सह अपराधी (साक्ष्य अधिनियम) 1872

सह अपराधी (साक्ष्य अधिनियम) सह अपराधी- सह अपराधी को अधिनियम में कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है सह अपराधी की परिभाषा हम सामान्य भावाबोध  में निम्न प्रकार दे सकते हैं-

 

सह अपराधी (साक्ष्य अधिनियम)

सामान्यत : जो भी व्यक्ति किसी अपराध को करने में किसी न किसी रूप में (मुख्यकर्ता, दुष्प्रेरक, षडयंत्रकारी या सहयोगी) के रूप में संलग्न रहता है, उसे विधि की दृष्टि में सह-अभियुक्त माना जाता है।और इन्हीं से अभियुक्त में से किन्हीं को क्षमादान  प्रदान कर राज्य साक्षी बना लिया जाता है तब उन्हें विधि की दृष्टि में सह-अपराधी कहा जाता है।

          सह अपराधी शब्द की परिभाषा सर्वप्रथम डेविस बनाम  जिला डिस्टिक पब्लिक प्रॉसीक्यूशन 1954 के मामले में हाउस आफ लॉर्ड्स ने दिया जिसमें केवल इतना कहा गया कि जो कोई व्यक्ति जब  कर्ता के रूप में या दुष्प्रेरित करके या सहयोग करके किसी अपराध में शरीक रहा हो तो इसी को सह अपराधी कहते हैं। इसी को आर. के . डालमिया बनाम दिल्ली एडमिनिस्ट्रेशन के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्वीकार कर लिया।

          भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 133 अध्याय 9 में यह उपबंध किया गया है कि सह- अपराधी अभियुक्त व्यक्ति के विरुद्ध सक्षम साक्षी है और कोई दोषसिद्धि  इसलिए  अवैध नहीं है कि सह अपराधी के असंपुष्ट परिसाक्ष्य के आधार पर की गई है।


         इस अधिनियम के अध्याय 7 धारा 114 का दृष्टांत "ख" यह भी उल्लेख करता है कि -"न्यायालय उपधारित कर सकेगा कि सह अपराधी विश्वसनीयता के अयोग्य है जब तक की तात्विक विशिष्टियों  में उसकी संपुष्टि नहीं होती है।"

           इन दोनों में जो विपरीत बात प्रतीत होती है उसका समाधान डगडू बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र 1977 के बाद में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ के निर्णय में मिलता है जो-

           धारा 133 एवं 114 दृष्टांत "ख" में कोई विपरीतता नहीं है क्योंकि दृष्टांत केवल यह कहता है कि न्यायालय चाहे तो उपधारणा कर सकता है यह निर्णायक उपधारणा के लिए नहीं कहती है दोनों साथ लेने पर यह बात बनती है। कि सह अपराधी सक्षम गवाह होता है और उसकी  असंपुष्ट परिसाक्ष्य के आधार पर दोषसिद्धि हो सकती है। तब न्यायालय उचित रूप से यह आधारित कर सकता है कि सह अपराधी के परिसाक्ष्य पर विश्वास नहीं किया जा सकता है  जब तक की खास खास बातों में किसी स्वतंत्र साक्ष्य से सं संपुष्टि न हो जाए।

           बी.सी.शुक्ला बनाम दिल्ली प्रशासन के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि सह अपराधी के साक्ष्य को ग्रहण करने में सावधानी और सतर्कता का मापदंड अपनाना चाहिए।

           पंचू लाल बनाम पंजाब राज्य के वाद में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि साक्ष्य की संपुष्टि  एक प्रज्ञा का नियम है अतः यदि कथन का साक्षिकमूल्य अन्यथा ग्राहय है तो संपुष्टि न होने मात्र से उसे  निष्प्रभावी  नहीं किया बनाया जा सकता।

           साक्ष्यिक मूल्य-

इसके साक्ष्यिक मूल्य के संबंध में साक्ष्य अधिनियम कोई निर्देश नहीं देती।

     भूवनि साहू बनाओ किंग के वाद में जान व्यूमाट ने कहा कि-

(1) सह अपराधी के असंपुष्टि आधार पर निर्णय आधारित करना न्यायसंगत नहीं है।

(2) किसी सह अपराधी या सहअभियुक्त के साक्ष्य से किसी सह अपराधी के साक्ष्य का पुष्टिकरण न्यायसंगत नहीं है।

              बोस महोदय ने रामेश्वरम बनाम राजस्थान और सिद्धेश्वर बनाम स्टेट आफ पश्चिम बंगाल में कहा कि यद्यपि महिलाएं सह अपराधी की कोटि में नहीं आती फिर भी उनके साक्ष्यिक मूल्य  पर उतनी ही सावधानी रखनी चाहिए जितनी की सहअपराधी के। सह अपराधी और महिलाओं के साक्ष्य को एक ही दर्पण में देखना चाहिए।

            मदन मोहन बनाम स्टेट आफ पंजाब - सहअपराधी के साक्ष्य को अन्य स्वतंत्र साक्ष्य से संपुष्टि किया जाना आवश्यक है।

           पियारा सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब के वाद में सह अपराधी के साक्ष्य की दो कसोटियां की गई है- (1) क्या तत्विकता विश्वासनीय  है (2)अन्य साक्ष्य  है कि नहीं।

 उपरोक्त दोनों कसोटियों पर सहअपराधी का साक्ष्य खरा उतरता है तो दोषसिद्धि की जा सकती है।

          पृथ्वी पाल सिंह बनाम पंजाब राज्य के मामले में कहा गया कि यद्यपि से सहअपराधी एक सक्षम साक्षी होता है और उसके असंपुष्टि साक्ष्य के आधार पर दोषसिद्धि की जा सकती है,  किंतु न्यायालय इस बात के लिए अधिकृत है कि वह उसकी विश्वसनीयता की उपधारणा तब तक नहीं कर सकता जब तक तात्विक रूप से विशिष्टत: तथा साक्ष्य द्वारा उसे संपुष्टि न कर दिया जाए।

          निष्कर्षत:

यह कहा जा सकता है की उपयुक्त नियमों में और अवलोकन से यही स्पष्ट होता है कि न्यायालय का भी एक मत सा बन गया है कि सह अपराधी के साक्ष्य की संपुष्टि होना आवश्यक है और उसके साक्ष्य पर दोषसिद्ध किया जाना सुरक्षित नहीं है। इस प्रकार स्पष्ट है कि सह अपराधी के परिसाक्ष्य की संपुष्टि और उसके साक्ष्य की संपुष्टि का नियम अब एक विधिक नियम बन गया है। 





           

     

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