सुसंगतता एवं ग्राहयता-1872
सुसंगतता एवं ग्राहयता- भारतीय साक्ष्य अधिनियम-1872
सुसंगतता एवं ग्राहयता-आधुनिक न्याय प्रणाली का मूल उद्देश्य है, त्वरित एवं सस्ता न्याय उपलब्ध कराना क्योंकि यह समझा जाता है, कि विलंब से न्याय करना न्याय न करने के बराबर है, (justice delayed to justice denied) और किसी तथ्य की सत्यता की जांच साक्ष्य द्वारा किया जाता है जिससे संबंधित तथ्य की सत्यता का पता लगाकर न्याय निर्णयन किया जाता है। इसलिए मामले से जुड़े हुए अर्थात सुसंगत तथ्यों का ही साक्ष्य लिए जाने एवं अनावश्यक तथ्यों अर्थात् विसंगत तथ्यों को बहिष्कृत करने के लिए भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 5 एक मर्यादा रेखा का अंकन करते हुए कहती है कि किसी वाद या कार्यवाही में विवाद्यक तथ्यों तथा एतिस्मन पश्चात सुसंगत घोषित किये गये सुसंगत तथ्यों का ही साक्ष्य दिया जा सकेगा अन्यों का नहीं।
इस धारा का मुख्य उद्देश्य (साक्ष्य के क्षेत्र) को सीमित करना है ताकि न्याय में अनावश्यक विलंब एवं व्यय से बचा जा जा सके ।
पदावली अन्यों का नहीं (And of noothes) से स्पष्ट है कि बतौर साक्ष्य किसी तथ्य को तब ग्रहण किया जा सकता है जबकि वह विवाद्यक तथ्य या सुसंगत के अस्तित्व या अनस्तित्व से संबंधित हो, इसके अतिरिक्त किसी अन्य तथ्य को बतौर साक्ष्य ग्रहण नहीं किया जा सकेगा।
धारा 3 के पैरा (4) में कहा गया है, कि विवादक तथ्य का तात्पर्य किसी ऐसे तथ्य से है जो किसी ऐसे अधिकार, दायित्व, निर्योग्यता के अस्तित्व, अनास्तित्व, प्रकृति एवं विस्तार की उत्पत्ति करता है, जिसे वाद या कार्रवाई में स्वीकार या अस्वीकार किया गया है। और - सुसंगत तथ्य को धारा 3 के पैरा ( 3) में स्पष्ट करते हुए कहती है कि कोई तथ्य किसी अन्य तथ्य से तभी से सुसंगत होता है जबकि वह तथ्य किसी न किसी भांति इस अधिनियम के तहत सुसंगत बताये गये तथ्यों से जुड़ा हुआ हो।
ज्ञातव्य है कि इस अधिनियम में (धारा 6 से 55 तक) में तथ्यों की सुसंगतता का विभिन्न प्रकार से उल्लेख किया गया है इसका तात्पर्य है यह है कि किसी तथ्य को साक्ष्य में ग्राहय होने के लिए आवश्यक है कि वह तथ्य विवाद्यक तथ्य से या उक्त सुसंगत तथ्यों में से किसी भी तथ्य से जुड़ा हो और यदि कोई तथ्य उक्त प्रकार से जुड़ा हुआ नहीं है तो उसे बतौर साक्ष्य ग्रहण नहीं किया जा सकता।
स्पष्ट है कि यह धारा सिर्फ सुसंगत तथ्य को स्पष्ट करती है किंतु तथ्य की सुसंगतता को नहीं बताती। वस्तुतः सुसंगतता किसी तथ्य का वह गुण है जो विवाद्यक तथ्य के अनस्तित्व या अस्तित्व को स्पष्ट करता है या संभाव्य बनाता बनाता है अर्थात सुसंगतता किसी तथ्य की वह क्षमता है जो संबंधित तथ्य में किसी विवाद्यक तथ्य के द्वारा नकारात्मक या सकारात्मक प्रभाव डालने की क्षमता से युक्त कर देता है इस शब्द को विभिन्न विधिशास्त्रियों ने अपने-अपने ढंग से स्पष्ट किया है किंतु उनमें से सबसे सरल एवं सुबोध परिभाषा स्टीफेन तथा बेस्ट की है जो निम्नवत है-
स्टीफन के अनुसार-
सुसंगत से तात्पर्य उस तथ्य से है जो घटनाओं के सामान्य क्रम के अनुसार या तो अकेले या दूसरे तथ्य के साथ मिलकर अन्य तथ्य के भूत वर्तमान या भविष्य के अस्तित्व या अनस्तित्व को साबित करता है या संभाव्य बनाता है।
बेस्ट के अनुसार-
विधि की दृष्टि में सुसंगत तथ्य वे तथ्य जो विवाद्यक तथ्य नहीं होते किंतु विवाद्यक तथ्य से इस प्रकार संसक्त होते हैं कि उससे विवाद्यक तथ्य संभाव्य या अधिसंभाव्य हो जाते हैं।
निष्कर्षतः हम यह कह सकते हैं कि सुसंगतता किसी तथ्य की वह क्षमता है जो मुख्य तथ्य (विवाद्यक तथ्य) को साबित या नासाबित कर सकता है।
ग्राहयता-
ग्राहयता शब्द को अधिनियम में न तो स्पष्टीकृत किया गया है न ही परिभाषित किया गया है सामान्य भावाबोध में किसी तथ्य को बतौर साक्ष्य स्वीकार कर लेना ही उसकी ग्राहयता है, अर्थात जब कोई तथ्य न्यायालय द्वारा साक्ष्य के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है तो उसे ग्राहय कर लिया गया कहा जाता है, किसी तथ्य के उक्त गुण संपन्न होने पर न्यायालय की इस कार्यवाही को विधिक भाषा में ग्राहयता के रूप में जाना जाता है, यह तथ्य का नहीं अपितु विधि का प्रश्न है, कोई तथ्य साक्ष्य ग्राहय किया जाना चाहिए या नहीं। इसे न्यायालय भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 136 के अंतर्गत निर्मित करता है और इसके लिए ग्राहय होने से पूर्व तथ्य को सुसंगत होने की अपेक्षा करता है तथ्य के सुसंगत होने पर उसे बतौर साक्ष्य ग्रहण करने से इंकार भी कर सकता है। इस प्रकार ग्राहयता की सुसंगतता पूर्व शर्त होती है। अर्थात जो तथ्य ग्राहय है वह सुसंगत होता है, किंतु जो तथ्य सुसंगत है वह ग्राहय हो ऐसा आवश्यक नहीं है क्योंकि अधिनियम में बहुत से ऐसे तथ्य बताए गये है जो कि सुसंगत तो होते हैं किंतु उन्हें बतौर साक्ष्य ग्रहण करने से लोकनीति एवं आवश्यकता के आधार पर ग्राहय करने से स्पष्टतः मना कर दिया गया है जैसे- अधिनियम की धारा 122 के अंतर्गत वैवाहिक स्थिति के दौरान पति-पत्नी के द्वारा किया गया एक दूसरे से कथन लोकनीति के आधार पर बतौर साक्ष्य अनुज्ञात नहीं किया जाता। इसी प्रकार धारा 126 के तहत नियोजन के लिए या नियोजन के दौरान वकील और मुवक्किल के मध्य के वार्तालाप या सलाह को साधारणतया बतौर साक्ष्य अनुज्ञात नहीं किया जाता है। ऐसी ही विधि धारा 127 के अंतर्गत वकील के लिपिक एवं सेवकों के ऊपर भी अधिरोपित होती है इसी प्रकार आवश्यकता के आधार पर कुछ तथ्यों को सुसंगत होते हुए भी बतौर साक्ष्य प्रकट करने हेतु सामान्यतः न तो अनुज्ञात किया जाता है और ना ही विवश किया जा सकता है जैसे- धारा 124 के अंतर्गत शासकीय विश्वास में की गई लोकहित की बातें, इसी प्रकार धारा 123 में शासकीय अभिलेख की गोपनीय बातें और धारा 125 के अंतर्गत किसी मजिस्ट्रेट पुलिस अधिकारी या राजस्व ऑफिसर को किसी अपराध के संबंध प्राप्त जानकारी के स्रोतों को बताने हेतु अनुज्ञात या विवश नहीं किया जाता।
इस प्रकार से स्पष्ट है कि जो तथ्य ग्राहय हो गए हैं वे आवश्यक रूप से सुसंगत होते हैं किंतु जो तथ्य सुसंगत है वे अनिवार्य रूप से ग्राहय हो, यह आवश्यक नहीं है।
सुसंगतता ग्राहयता में अंतर-
जैसा कि ग्राहयता एवं सुसंगतता को एक साथ देखने से प्रथम दृष्टया दोनों समानार्थी लगते हैं किंतु दोनों एक दूसरे के पर्यायवाची नहीं है दोनों में निम्नलिखित भेद स्पष्ट किये जा सकते हैं।
सुसंगतता-
(1)सुसंगता तथ्य का विषय है।
(2) सुसंगत का क्षेत्र विस्तृत है।
(3)सुसंगत तथ्य अनिवार्य रूप से ग्राहय हो आवश्यक नहीं है।
(4)ग्राहयता सुसंगतता की पूर्व शर्त नहीं है।
(5) सुसंगत एक जाति है।
(6) सुसंगतता में तर्क की शक्ति है।
ग्राहयता-
(1) ग्राहयता विधि का विषय है।
(2) ग्राहयता का क्षेत्र सीमित है।
(3) ग्राहय तथ्य को अनिवार्य रूप से सुसंगत होना आवश्यक है।
(4)सुसंगतता, ग्राहयता की पूर्व शर्त है।
(5)ग्राहयता उपजाति है।
(6)ग्राहयता में विधि की शक्ति है।
प्रश्न-
सुसंगत तथ्यों से आप क्या समझते हैं? सुसंगतता एवं ग्राहयता में कोई अंतर है? प्रत्येक तथ्य जो ग्राहय है वह सुसंगत है, किंतु जो सुसंगत है वह अनिवार्य रूप से ग्राहय हो यह आवश्यक नहीं है।
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