संस्वीकृति (साक्ष्य अधिनियम)

   

संस्वीकृति (साक्ष्य अधिनियम)

 

भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 17 24 25 26 27 28 29 और 30 में संस्वीकृति के विषय में उपबंध किया गया है परंतु उसका सखेद कहना है की संस्कृति को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया संस्वीकृति से संबंधित जितने उपबंध है स्वीकृति शीर्षक के अंतर्गत दिए गए हैं।

      साक्ष्य  अधिनियम में उपबंधों के अनुसार जो परिभाषा संस्वीकृति की निकलती है वह यह है कि संस्वीकृति वह कथन होता है जो अपराध को स्वीकारता या सार रूप में सब तथ्यों को स्वीकारता है जिनसे अपराध घटित होते हैं।

     जस्टिस स्टेफन ने अपने  डाइजेस्ट ऑफ दी लाॅ ऑफ एविडेंस में संस्वीकृति की निम्न परिभाषा दी है-  

      संस्वीकृति किसी भी ऐसे व्यक्ति की किसी भी समय की गई स्वीकृति होती है, जिस पर अपराध करने का अभियोग लगाया गया हो, जिसमें यह कहा गया हो या जिससे इस अनुमान का संकेत मिलता हो कि उसने अपराध किया है।

       स्टीफन महोदय द्वारा दी गई यह परिभाषा तब तक मान्य होती रही जब तक कि 1939 में पाकला नारायण स्वामी के वाद में लॉर्ड एटकिन की निम्नलिखित परिभाषा नहीं आ गई ।

          संस्वीकृति शब्द का अर्थ यह नहीं लगाया जा सकता कि वह अभियुक्त द्वारा दिया गया ऐसा कथन है जिससे यह अनुमान लगाया जा सके उसने अपराध किया है, संस्वीकृति में या तो सीधे ही अपराध की अथवा कम से कम उन तथ्यों  की स्वीकृति होनी चाहिए जिनसे मिलकर अपराध घटित होता है।

        इसी परिभाषा को पलविंदर कौर बनाम स्टेट ऑफ पंजाब के वाद में सुप्रीम कोर्ट ने निम्नवत  स्वीकार किया है कि -

"किसी अभियुक्त द्वारा दिया गया कथन केवल तभी संस्वीकृति है जब कथन में स्वयं अपने द्वारा अपराध किया जाना या अपराध का गठन करने वाले तथ्यों को स्वीकार किया जाता है।"

  संस्वीकृतियोंको दो वर्गों में विभाजित किया गया है-

(1) न्यायिक संस्वीकृतियां(judicial confession)-

न्यायिक संस्वीकृतियां  वे है जो एक मजिस्ट्रेट या न्यायालय के सामने विधिक कार्रवाइयों में की जाती हैं ।

उदाहरण के लिए-

 'क' ,'ख ' की हत्या करने का अभियुक्त है परीक्षण  शुरू होने के पूर्व अपराध की संस्वीकृति किसी मजिस्ट्रेट के समक्ष कर सकता है , जिसे मजिस्ट्रेट दंड प्रक्रिया संहिता की धारा (164 के अनुसार) अभीलिखित करता है विचारण में सत्र न्यायाधीश के सामने और सुपुर्द करने की कार्यवाही में मजिस्ट्रेट के समक्ष अपने अपराधों की संस्वीकृतियां न्यायिक संस्वीकृतियां है। 

दूसरे शब्दों में, न्यायिक संस्वीकृतियों का धाराओं 164, 281 और 313, दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अनुसार लेखबद्ध किया जाना आवश्यक है। धारा 463 का आशय मौखिक साक्ष्य लेकर संस्वीकृति अभिलिखित करने में किसी औपचारिक त्रुटि को ठीक करना (cure) है। साक्ष्य अधिनियम की धारा 80 ऐसी लेखबद्ध की गई संस्वीकृति के हक में उपधारणा कर लेती है कि वह संस्वीकृति विधि अनुसार ली गई है।

(2) न्यायिककेतर संस्वीकृतियां (Extra-judicial confession)-

यह वह संस्वीकृति है जो अभियुक्त द्वारा मजिस्ट्रेट के समक्ष या न्यायालय में से भिन्न अन्य कहीं की जाती है। न्यायकेतर  संस्वीकृतियां  किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह के सामने की जाती है  यह प्रार्थना के रूप में हो सकती है।

 उदाहरण के लिए- एक व्यक्ति अपराध करने के बाद किसी दोस्त को या रिश्तेदार को यह पत्र लिख सकता है कि वह अपने को कुकृत्य  से अत्यंत दुखी है यह भी न्यायिकातर संस्वीकृति के तुल्य है। इस प्रकार स्पष्ट है कि न्यायकेत्तर संस्वीकृति प्राइवेट तौर से की गई संस्वीकृति है। और उच्चतम न्यायालय ने इसे कमजोर प्रकार का प्रमाण दर्शित किया है ।

राम खिलाड़ी तथा अन्य बनाम राजस्थान राज्य 1999 नामक वाद में न्यायिकेतर संस्वीकृति (Extra- judicial Confession) एक ऐसे व्यक्ति से की गई थी जो अभियुक्त का रिश्तेदार था। ऐसी संस्वीकृति विश्वसनीय तथा सत्य. पाई गई। इस संस्वीकृति को अभिलिखित करने में 20 दिन का विलम्ब अन्वेषण अधिकारी द्वारा स्पष्ट किया गया। इस न्यायिकेतर संस्वीकृति के आधार पर दोषसिद्धि उच्चतम न्यायालय द्वारा उचित्त पाई गई।

स्टेट ऑफ़ राजस्थान बनाम काशीराम 2007 के वाद में अभिनिर्धारित किया गया कि यदि दो साक्षियों के समक्ष की गई संस्वीकृति जो मृतक के भाई से परिचित थे। साक्ष्य को अविश्वसनीय एवं  अस्वाभाविक माना गया, क्योंकि वह न तो सरपंच थे और नाम वार्ड मेंबर थे।

यूनियन ऑफ इण्डिया बनाम मेजर आर० मेत्री 2022 के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि न्यायेतर संस्वीकृति एक कमजोर प्रकृति की साक्ष्य होती है। वह जब तक स्वैच्छिक एवं विश्वसनीय नहीं हो, तब तक अभिपुष्ट साक्ष्य के बिना मात्र न्यायेतर संस्वीकृति के आधार पर अभियुक्त को दोषसिद्ध नहीं किया जाना चाहिए।

अंतर-

न्यायिक संस्वीकृति (Judicial Confession) एवं न्यायेतर संस्वीकृति-(Extra-judicial confession-

1. न्यायिक संस्वीकृतियाँ वे हैं जो धारा 164 द० प्र० के अधीन मजिस्ट्रेट या न्यायालय के सामने विधिक कार्यवाहियों के दौरान की जाती हैं।

2. न्यायिक संस्वीकृति को साबित करने के लिये जिस व्यक्ति से न्यायिक संस्वीकृति की गई है उसे साक्षी के रूप में बुलाना जरूरी नहीं है।

3. न्यायिक संस्वीकृति पर अभियुक्त के विरुद्ध दोष के सबूत (Proof of guilt) के रूप में निर्भर किया जा सकता है, यदि न्यायालय को वह स्वैच्छिक और सत्य् प्रतीत हो ।

4. न्यायिक संस्वीकृति पर दोषसिद्धि आधारित की 4 जा सकती है।

न्यायेतर संस्वीकृति-(Extra-judicial confession)-

- 1. न्यायेतर संस्वीकृति वह है जो न्यायालय में के अतिरिक्त अन्य कहीं किसी व्यक्ति से या पुलिस से अन्वेषण के दौरान की जाती है।

- 2. न्यायेतर संस्वीकृति उस व्यक्ति को गवाह के रूप में बुलाकर के साबित कराया जाता है जिसके समक्ष न्यायेतर संस्वीकृति की गई है।

- 3. केवल न्यायेतर संस्वीकृति पर निर्भर नहीं किया जा सकता है, उसे अन्य समर्थक साक्ष्य की जरूरत होती है।

4. न्यायेतर संस्वीकृति पर दोषसिद्धि आधारित करना असुरक्षित है।

  साक्ष्यिक  मूल्य-

यद्यपि संस्वीकृति को साक्ष्य  में प्राप्त करने का आधार यह अभीकल्पना है कि कोई भी व्यक्ति ऐसा असत्य कथन नहीं कहेगा जो उसके हित के विरुद्ध फिर भी यह ध्यान देने योग्य बात है कि संस्वीकृति का साक्ष्यिक  मूल्य बहुत अधिक नहीं है।

 न्यायिक संस्वीकृति और न्यायिकेतर संस्वीकृति में अंतर होता है न्यायिकेतर संस्वीकृति पर किसी दंडादेश का आधारित किया जाना संदेहास्पद है किंतु न्यायिक संस्वीकृति पर आधारित दंडादेश देने में हिचकिचाने  का कोई कारण नहीं है ।

मजिस्ट्रेट के समक्ष किया गया अभियुक्त द्वारा संस्वीकृतिक कथन अच्छा साक्ष्य है  अभियुक्त  उसके आधार पर दंडित किया जा सकता है। किसी संस्वीकृति को स्पष्ट रूप से उसके करने वाले के विरुद्ध है प्रयोग किया जा सकता है और वह उसके दोषसिद्धि के लिए पर्याप्त होती है।

स्टेट ऑफ़ बालेंद्र के वाद में कहा गया कि किसी अभियुक्त की संस्वीकृति मौलिक साक्ष्य  होती है और दंडादेश एकमात्र संस्वीकृति पर आधारित किया जा सकता है ।

सुप्रीम कोर्ट ने साहू बनाम स्टेट ऑफ यूपी 1966 के वाद में कहा कि साक्ष्य कि ग्राहयता और उसकी विश्वसनीयता दोनों पूर्णता भिन्न बातें हैं और इस बात में कोई गलतफहमी नहीं होनी चाहिए कि एक साक्ष्य यदि ग्राहय है तो वह विश्वसनीय भी होगा ।

 संस्वीकृति के साक्ष्यिक मूल्य को निर्धारित करने में निम्नलिखित वादों  में निकाले गए तथ्य  अधिक महत्वपूर्ण है।-

       पाकला नारायण स्वामी बनाम एंपरर 1939 के बाद में कहा गया कि-

ऐसा कथन जिसमें  स्वयं को निर्दोष करने वाली बात भी सम्मिलित हो संस्वीकृति नहीं हो सकती यदि निर्दोष सिद्ध करने वाला कथन ऐसे स्वभाव का हो, जो कि लगाए गए अपराध को नकारात्मक कर दे । गंभीर रूप से अपराध लगाने वाले तथ्यों की स्वीकृति, चाहे वे अंतिम और निर्विवाद रूप से अपराध लगाने वाले ही तथ्य क्यों न हो, अपने आप संस्वीकृति नहीं हो सकते हैं। 

     बालमुकुंद बनाम इंपरर1939 के वाद में अवधारित किया गया कि जहां पर निश्चयाक रूप से यह दिखाने के लिए अन्य कोई साक्ष्य नहीं है की संस्वीकृति में दोषारोपण तत्व का कोई अंश झूठा है तो न्यायालय संस्वीकृति को पूर्ण रूप से स्वीकार अथवा अस्वीकार कर सकता है, जबकि दोष मुक्त करने वाले तत्व को अंत भूत रूप से अविश्वास के रूप में अस्वीकार कर सकता है।

  इसी वाद में दिए गए अवधारण को आधार मानते हुए- पलविंदर कौर बनाम पंजाब राज 1952 के बाद में सुप्रीम कोर्ट ने संस्वीकृति के साक्ष्यिक मूल्य को निम्न तरीके से स्पष्ट किया है-जो सुप्रीम कोर्ट द्वारा अन्य वादों में भी भली-भाँति  स्थापित किया जा चुका है ।

"संस्वीकृति को या तो संपूर्ण रूप में स्वीकार करना चाहिए या संपूर्ण रूप में अस्वीकार  करना चाहिए न्यायालय इस बात के लिए सक्षम नहीं है कि वह अपराध में फंसाने वाले भाग को तो स्वीकार कर ले, किंतु अपराध से निर्दोषिता साबित करने वाले भाग को नितांत अविश्वसनी कहकर अस्वीकार कर दे। "

       हनुमंत राव बनाम स्टेट ऑफ़ एमपी 1952 के वाद में कहा गया कि यदि आत्मादोषकारी और निर्दोषकथन दो कथन है  तो स्वतंत्र साक्ष्य के आधार पर ही दोषसिदध  किया जा सकता है।

       निशिकांत झा  बनाम स्टेट आफ बिहार 1969 के वाद में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि- यदि कथन का आत्म दोषकारी और निर्दोषकारी दोनों भाग अलग किया जा सकता है तो स्वतंत्र साक्ष्य से पुष्टि किया जा सकता है। 

     मक्खन सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब 1988 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने  निर्धारित किया कि न्यायिकेतर संस्वीकृति का अन्य कोई संपोषक साक्ष्य नहीं है न्यायकेतर  संस्वीकृति बहुत कमजोर साक्ष्य है और उसका कोई मूल्य नहीं है।

जहां तक न्यायकेतर संस्वीकृति का प्रश्न है इसे ग्राहय किये  जाने की  से पूर्व इस बात पर विचार कर लेना चाहिए कि-

(1) वह स्वेच्छा  से की गई थी। 

(2) क्या वह सत्य थी।

(3)जिस व्यक्ति के समक्ष की गई है, उसे व्यक्ति की परिस्थिति और उत्तरदायित्व, 

(4) ऐसे व्यक्ति की सत्यवादिता  आदि।

  संस्वीकृति का स्वीकृति से अंतर-

      संस्वीकृति-

(1) लिखित या मौखिक कथन है जो आरोप  के बारे में अनुमान इंगित करता है। 

(2) संस्कृति एक उपजाती है।

(3) संस्वीकृति में स्वीकृत सम्मिलित है।

(4) धारा 21 के अंतर्गत स्वीकृत का प्रयोग स्वयं  स्वीकताॅ  द्वारा साक्ष्य के रूप में कुछ परिस्थितियों में किया जाता है।

(5) धारा 24 के अनुसार धमकी उत्प्रेरणा और वचन के अधीन की गई संस्वीकृति की ग्राहय नहीं है।

(6)धारा 25 के अनुसार  पुलिस के समक्ष की गई संस्वीकृति अभियुक्त  के विरुद्ध  साबित नहीं की जा सकती है। 

       स्वीकृति-

(1) लिखित या मौखिक कथन है जो किसी विवाद्यक तथ्य या सुसंगत तथ्य के बारे में अनुमान इंगित करता है।

(2) स्वीकृति एक जाति है।

(3) स्वीकृति संस्वीकृति हो भी सकती है और नहीं भी।

(4) किंतु संस्वीकृति सदैव उस व्यक्ति के विरुद्ध प्रयोग की जाती है जो उसे करता है।

(5) इसमें धमकी इत्यादि का कोई महत्व नहीं है।

(6) पुलिस के समक्ष की स्वीकृति का कोई महत्व नहीं है।


  








    

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