वाद संस्थित करने का स्थान-
वाद संस्थित करने का स्थान-
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 15 से 20 तक में उन न्यायालयों का उल्लेख किया गया है जिसमें कोई वाद संस्थित किया जाना चाहिए।
हर वाद उस निम्नतम श्रेणी के न्यायालय में संस्थित किया जायेगा, जो उसका विचारण करने के लिये सक्षम है। किसी वाद को संस्थित करने से पूर्व पक्षकार को स्थान का निर्धारण करना होता है। स्थान निर्धारित करने के उपरान्त यह निश्चित करना होगा कि एक विशेष स्थान में स्थित किस न्यायालय में वाद संस्थित किया जाये। इस सन्दर्भ में धारा 15 एक सामान्य सिद्धान्त प्रतिपादित करती है।
धारा 15 के अनुसार, हर वाद, उस निम्नतम श्रेणी के न्यायालय में संस्थित किया जाएगा, जो उसका विचारण करने के लिए सक्षम है।
उदाहरणस्वरूप - अगर 5000 रुपये के मूल्यांकन का मानहानि की क्षतिपूर्ति का वाद संस्थित करना है, तो उत्तर प्रदेश में ऐसा वाद मुन्सिफ के न्यायालय में ही संस्थित होगा न कि सिविल जज या जिला जज के न्यायालय में। इसी प्रकार मध्य प्रदेश में वाद सिविल जज द्वितीय श्रेणी के न्यायालय में संस्थित होगा न कि सिविल जज प्रथम श्रेणी या जिला जज के न्यायालय में।
वाद संस्थित करने का स्थान निर्धारित करने के लिए विभिन्न वादों को निम्नलिखित तीन श्रेणियां में विभाजित किया जा सकता है-
1.) अचल सम्पत्ति से सम्बन्धित वाद (धारा 16, 17 और 18)।
(2) शरीर या जंगम सम्पत्ति के प्रति किये गये अपकृत्य (tort) सम्बन्धी प्रतिकर (Compensation) के लिये वाद (धारा 19)।
(3) अन्य वाद (धारा 20)
स्थावर अर्थात अचल सम्पत्ति सम्बन्धी वाद-
इस संबंध में संहिता की धारा 16, 17 एवं 18 में प्रावधान किये गये हैं। सामान्यतया धारा 16 के अनुसार अचल सम्पत्ति सम्बन्धी वाद उस न्यायालय में संस्थित किये जाते हैं, जहां ऐसी सम्पत्ति स्थित है। परन्तु जहां अचल सम्पत्ति विभिन्न न्यायालयों की सीमा में स्थित हो या अचल सम्पत्ति के संबंध में न्यायालय की स्थानीय अधिकारित अनिश्चित हो ऐसी स्थिति में वाद के संस्थित करने के सम्बन्ध में धारा 17 एवं 18 में प्रावधान किया गया है।
(क) वाद वहां संस्थित किया जाना जहां विषय-वस्तु स्थित है-
धारा-16 के अनुसार, किसी विधि द्वारा विहित धन सम्बन्धी या अन्य परिसीमाओं के अधीन रहते हुए, वे वाद जो-
(1) भाटक या लाभों के सहित या रहित स्थावर सम्पत्ति के प्रत्युद्धरण के लिए,
(ii) स्थावर सम्पत्ति के विभाजन के लिए,
(iii) स्थावर सम्पत्ति के बन्धक की या उस पर के भार की दशा में पुरोवन्ध विक्रय या मोचन के लिये,
(iv) स्थावर सम्पत्ति में के किसी अन्य अधिकार या हित के अवधारण के लिये,
(v) स्थावर सम्पत्ति के प्रति किये गये दोष के प्रतिकर के लिये,
(vi) करस्थम या कुर्की के वस्तुतः अधीन जंगम सम्पत्ति के प्रत्युद्धरण के लिये हैं। उस न्यायालय में संस्थित किये जायेंगे, जिसकी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर वह सम्पत्ति स्थित है।
परन्तु,
प्रतिवादी के द्वारा या निमित्त धारित स्थावर सम्पत्ति के सम्बन्ध में अनुतोष की या ऐसी सम्पत्ति के प्रति किये गये दोष के लिए प्रतिकर की अभिप्राप्ति के लिए वाद, जहां चाहा गया अनुतोष उसके स्वीय आज्ञानुवर्तन के द्वारा पूर्ण रूप से अभिप्राप्त किया जा सकता है, उस न्यायालय में जिसकी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर सम्पत्ति स्थित है या उस न्यायालय में जिसकी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर प्रतिवादी वास्तव में और स्वेच्छा से निवास करता है या कारबार करता है या अभिलाभ के लिए स्वयं काम करता है, संस्थित किया जा सकेगा।
स्पष्टीकरण-इस धारा में 'सम्पत्ति' से भारत में स्थित सम्पत्ति अभिप्रेत है।
धारा 16 के उपरोक्त प्रावधानों से स्पष्ट है कि सामान्यतया अचल सम्पत्ति सम्बन्धी वाद उस न्यायालय में संस्थित किया जाता है जिसकी स्थानीय सीमा के अन्दर ऐसी सम्पत्ति स्थित है।
(ख) विभिन्न न्यायालयों की अधिकारिता के भीतर स्थित स्थावर सम्पत्ति के लिये वाद (धारा 17)-
जहां वाद विभिन्न न्यायालयों की अधिकारिता के भीतर स्थित स्थावर सम्पत्ति के सम्बन्ध में अनुतोष के लिए या ऐसी सम्पत्ति के प्रति किये गये दोष के लिए प्रतिकर की अभिप्राप्ति के लिए है वहां वह वाद किसी भी ऐसे न्यायालय में संस्थित किया जा सकेगा जिसकी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर सम्पत्ति का कोई भाग स्थित है-
परन्तु,
यह तब जब कि पूरा दावा उस वाद की विषय-वस्तु के मूल्य की दृष्टि से ऐसे न्यायालय द्वारा संज्ञेय है।
उदाहरणस्वरूप - यदि विवादित, सम्पत्ति गोरखपुर, बस्ती एवं देवरिया जिले (उत्तर प्रदेश) की सीमाओं में या सागर, दमोह एवं भोपाल जिले (मध्य प्रदेश) के सीमाओं में स्थित है। वाद उन तीनों जिलों में से किसी भी जिला न्यायालय में संस्थित किया जा सकता है। परन्तु धारा 17 की शर्त यह है कि ऐसा न्यायालय जिसमें वाद संस्थित किया गया है उसको तीनों जिलो में स्थित सम्पत्ति के मूल्य के बराबर के मूल्यांकन का वाद ग्रहण करने और विचारण करने की अधिकारीता रखनी चाहिए।
(ग) जहां न्यायालयों की अधिकारिता की स्थानीय सीमाएं अनिश्चित हैं, वहां वाद के संस्थित किये जाने का स्थान (धारा 18)-
(1) जहां यह अभिकथन किया जाता है कि यह अनिश्चित है कि कोई स्थावर सम्पत्ति दो या अधिक न्यायालयों में से किस न्यायालय की अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर स्थित है, वहाँ उन न्यायालयों में से कोई भी एक न्यायालय यदि उसका समाधान हो जाता है कि अभिकथित अनिश्चितता के लिए आधार है, उस भाव का कथन अभिलिखित कर सकेगा और तब उस सम्पत्ति से सम्बन्धित किसी भी वाद को ग्रहण करने और उसका निपटारा करने के लिए आगे कार्यवाही कर सकेगा, और उस वाद में उसकी डिक्री का वही प्रभाव होगा मानो वह संपत्ति इसकी अधिकारिक की स्थानीय सीमाओं के भीतर स्थित हो।
परन्तु
यह तब जबकि यह वाद ऐसा है जिसके संबंध में न्यायालय उस वाद की प्रकृति और मूल्य की दृष्टि से अधिकारिता का प्रयोग करने के लिए सक्षम है।
(2) जहां कथन उपधारा (1) के अधीन अभिलिखित नहीं किया गया है और किसी अपील या पुनरीक्षण न्यायालय के सामने यह आक्षेप किया जाता है कि ऐसी सम्पत्ति से सम्बंधित वाद में डिक्री या आदेश ऐसे न्यायालय द्वारा किया गया था जिसकी वहां अधिकारिता नहीं थी जहां सम्पत्ति स्थित है। वहां अपील या पुनरीक्षण न्यायालय उस आक्षेप को तब तक अनुज्ञात नहीं करेगा जब तक कि उसकी राय न हो कि वाद के संस्थित किये जाने के समय उसके सम्बन्ध में अधिकारिता रखने वाले न्यायालय के बारे में अनिश्चितता के लिए कोई युक्तियुक्त आधार नहीं था, उसके परिणामस्वरूप न्याय की निष्फलता हुई है।
शरीर या जंगम सम्पत्ति के प्रति किये गये दोषों के लिये प्रतिकर के वाद (धारा 19)-
जहां वाद शरीर या जंगम सम्पत्ति के प्रति किये गये दोष के प्रतिकर के लिए हैं वहां यदि दोष एक न्यायालय की अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर किया गया था और प्रतिवादी किसी अन्य न्यायालय की अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर निवास करता है या कारबार करता है या अभिलाभ के लिए स्वयं करता है तो वाद वादी के विकल्प पर उक्त न्यायालयों में से किसी भी न्यायालय में संस्थित किया जा सकेगा।
दृष्टांत-
(क) दिल्ली में निवास करने वाला 'क' कलकते में 'ख' को पीटता है। 'ख' कलकते में या दिल्ली में 'क' पर वाद ला सकेगा।
(ख) 'ख' की मानहानि करने वाला कथन दिल्ली में निवास करने वाला 'क' कलकते में प्रकाशित करता है। 'ख' कलकत्ते में या दिल्ली में 'क' पर वाद ला सकेगा।
अन्य वाद वहां संस्थित किए जा सकेंगे जहां प्रतिवादी निवास करते हैं या वाद हेतुक पैदा होता है (धारा 20)-
पूर्वोक्त परिसीमाओं के अधीन रहते हुए, हर वाद ऐसे न्यायालय में संस्थित किया जाएगा जिसकी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर :
क) प्रतिवादी, या जहां एक से अधिक प्रतिवादी हैं वहां प्रतिवादियों में से हर एक वाद के प्रारम्भ के समय वास्तव में और स्वेच्छा से निवास करता है या कारबार करता है या अभिलाभ के लिए स्वयं काम करता है। अथवा
(ख) जहां एक से अधिक प्रतिवादी हैं वहां प्रतिवादियों में से कोई भी प्रतिवादी वाद के प्रारंभ के समय वास्तव में और स्वेच्छा से निवास करता है या कारबार करता है या अभिलाभ के लिए स्वयं काम करता है, परन्तु यह तब जब कि ऐसी अवस्था में या तो न्यायालय की इजाजत दे दी गई है या तो प्रतिवादी पूर्वोक्त रूप से निवास नहीं करते या कारबार नहीं करते या अभिलाभ के लिए स्वयं काम नहीं करते, वे ऐसे संस्थित किये जाने के लिए, उपमत हो गये हैं, अथवा
(ग) वाद हेतुक पूर्णतः या भागतः पैदा होता है।
स्पष्टीकरण-निगम के बारे में यह समझा जायेगा कि वह भारत में अपने एक मात्र या प्रधान कार्यालय में या किसी ऐसे वादहेतुक की बाबत, जो किसी स्थान में पैदा हुआ है जहां उसका अधीनस्थ कार्यालय भी है, ऐसे स्थान में कारबार करता है।
दृष्टांत-'क' कलकत्ते में एक व्यापारी है, 'ख' दिल्ली में कारबार करता है। 'ख' कलकत्ते के अपने अभिकर्ता के द्वारा 'क' से माल खरीदता है और ईस्ट इण्डियन रेल कंपनी को उनका परिदान करने को 'क' से प्रार्थना करता है। 'क' तदनुसार माल का परिदान कलकत्ते में करता है। 'क' माल की कीमत के लिये 'ख' के विरुद्ध वाद या तो कलकत्ते में जहां वाद हेतुक पैदा हुआ है, या दिल्ली में जहां 'ख' कारबार करता है, ला सकेगा।
बाद हेतुक (Cause of action)- कोई भी वाद किसी भी वाद हेतुक पर आधारित होता है। वाद-हेतुक तथ्यों, का ऐसा समूह है जो वादी को प्रतिवादी के विरुद्ध अनुतोष प्रदान करता है। वाद- हेतुक ऐसे कारणों का समूह है जो वादी और प्रतिवादी के मध्य उत्पन्न संव्यवहार के प्रारंभ से ही उत्पन्न हुए हों एवं जिनके कारण वादी प्रतिवादी के विरुद्ध वाद संस्थित करने के लिये विवश हुआ। इनमें प्रतिवादी द्वारा किये गये ऐसे कृत्य सम्मिलित हैं, जिनके अभाव में वादी को कोई वाद-हेतुक उत्पन्न नहीं होता। यह विवादित अधिकार के वास्तविक उल्लंघन तक सीमित नहीं है। अपितु उन सभी सारपूर्ण तथ्यों तक विस्तृत है। जिन पर ऐसा उल्लंघन किया जाने वाला अधिकार आधारित है।
अतः वाद हेतुक में तथ्यों का ऐसा समूह आता है जिसे वादी को अपने पक्ष में डिक्री प्राप्त करने के लिए सिद्ध करना होता है परन्तु इसमें साक्ष्य सम्मिलित नहीं है। कोई भी तथ्य जिसे वादी साबित नहीं कर सका और प्रतिवादी को तुरंत निर्णय का अधिकार यदि प्राप्त हो जाता है तो ये तथ्य वाद हेतुक के हिस्से माने जायेंगे।
अतः वाद हेतुक में ऐसे तथ्य सम्मिलित हैं, जिनके माध्यम से वादी न्यायालय से अपने पक्ष में अनुतोष की मांग करता है। वाद हेतुक को सदैव वाद का पूर्वगामी होना आवश्यक है। बीमा सम्बन्धी वाद में वाद-हेतुक तब ही गठित होता है, जबकि सम्बन्धित व्यक्ति की मृत्यु वाद संस्थित करने से पूर्व हो गयी हो।
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