प्राथमिक साक्ष्य एवं द्वितीयक साक्ष्य - भारतीय साक्ष्य अधिनियम 2023

 

 प्राथमिक साक्ष्य एवं द्वितीयक साक्ष्य

 आधुनिक न्याय प्रणाली पूरी तरह से साक्ष्यवलंबित है और न्यायालय के समक्ष साक्ष्य को मौखिक या दस्तावेजी स्वरूप में ही प्रस्तुत किया जाता है साक्ष्य की इस आवश्यकता को देखते हुए विधि यह अपेक्षा करती है कि सर्वोत्तम साक्ष्य ही पेश किया जाना चाहिए। ऐसी दशा में दस्तावेज साक्ष्य  के संबंध में उसका प्राथमिक साक्ष्य  सर्वोत्कृष्ट  होता है अन्य साक्ष्य  को गौड़ या द्वितीयक साक्ष्य माना जाता है जिसे बड़ी अपरीहार्य परिस्थिति में ही स्वीकार किया जाता है।  ऐसी परिस्थिति साक्ष्य अधिनियम की धारा 60 के अंतर्गत बतायी है वैसे धारा 56 यह कहती है कि दस्तावेजी साक्ष्य  को या तो प्राथमिक साक्ष्य या धारा 65 के अपवादिक परिस्थितियों के विधिमान्यता में द्वितीयक साक्ष्य द्वारा साबित किया जा सकेगा।  इसी संदर्भ में धारा 65- 'क' जहां प्राथमिक साक्ष्य  को स्पष्ट करती है वही धारा 67 द्वितीयक साक्ष्य  को गिनाने से नहीं चूकती।

         प्राथमिक या द्वितीयक साक्ष्य एक ही सिक्के के दो पहलू है और अपना साक्ष्यिक  महत्व रखते हैं किंतु विधि के निगाह में द्वितीयक साक्ष्य  को प्राथमिक साक्ष्य की छाया मात्र माना जाता है, या प्राथमिक साक्ष्य  को ही सर्वोत्तम मानते हुए सामान्यतः  ग्राहय किया जाता है।


अंतर-  प्राथमिक साक्ष्य  एवं द्वितीयक साक्ष्य में-

प्राथमिक साक्ष्य-

(1) यह दस्तावेज स्वयं  होता है। 

(2) यह सर्वोत्कृष्ट उच्चतर साक्ष्य होता है।

(3)यह सामान्यतः ग्राहय होता है।

(4) यह अनिवार्यता ग्राहय किया जाता है।

(5)इसका साक्ष्यिक  महत्व अधिक है।

(6) प्राथमिक से द्वितीयक बनाया जा सकता है।

         द्वितीयक साक्ष्य-

(1)यह दस्तावेज भी प्रमाणित या छाया प्रति होती है।

(2)यह निम्नतर होता है।

(3) यह आपवादिक परिस्थितियों में ही ग्राहय होता है।

(4) इसकी ग्राहयता  आवश्यकता पर आधारित है। 

(5) इसका साक्ष्यिक वजन कम है।

(6) द्वितीयक से प्राथमिक नहीं बनाया जा सकता।

       बबीता सतपति बनाम सीताशु कुमार दास (अगस्त 2022) के वाद में उड़ीसा उच्च न्यायालय निर्धारित किया कि द्वितीयक साक्षी की "स्वीकार्यता के तरीके" के रूप में उठाई गई आपत्तियों पर निर्णय के दौरान में विचारण न्यायालय द्वारा निर्णय लिया जा सकता है और कोई कठोर नियम नहीं है कि जब भी आपत्ति उठाई जाए या तर्कों की शुरुआत से पहले इसे तय किया जाए । यह प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करता है लेकिन आमतौर पर तर्क से पहले किसी भी स्तर पर किसी दस्तावेज की स्वीकारता पर आपत्ति से निपटने के लिए टुकड़ों में विचारण हो सकता है जो की विपिन शांतिलाल पांचाल सुप्रीम कोर्ट के मामले में बहिष्कृत है उसमें यह माना गया कि लंबी अवधि के दौरान बाधाओं  के रूप में महसूस की जाने वाली प्रथाओं, जो विचारण की कार्रवाई की स्थिर ओर तेज प्रगति में बाधा डालने से बेहतर विकल्प के लिए रास्ता देने के लिए फिर से तैयार किया जाना चाहिए, जो विचारण कार्रवाई में तेजी लाने में मदद करेगा| 

       परिस्थितियाँ जिनमें द्वितीयक साक्ष्य ग्राहय है-

       यद्यपि की धारा 66 यह कहती है कि दस्तावेज को निम्नलिखित अवस्थाओं के सिवाय प्राथमिक साक्ष्य  के द्वारा ही साबित किया जाएगा ऐसी दशाओं का वर्णन अधिनियम के धारा 67 के अंतर्गत निम्नवत में किया गया है- 

       दस्तावेज की अंतर्वस्तु दशा या अस्तित्व को निम्नलिखित अवस्थाओं में द्वितीयक साक्ष्य द्वारा साबित किया जा सकेगा-

(1) जबकि दर्शित कर दिया जाता है या प्रतीत होता है की मूल किसी ऐसे व्यक्ति के कब्जे में या शक्ति के अधीन है जिसके विरुद्ध उसे साबित किया जाना है अथवा ऐसा व्यक्ति न्यायालय की आदेशिका के पहुंच के बाहर है या उसके अध्यधीन नहीं है अथवा उसे पेश करने हेतु स्वयं बाध्य होते हुए भी सूचना के उपरांत पेश नहीं करता।

(2) जबकि मूल को विपक्षी द्वारा या उसके हित प्रतिनिधि द्वारा लिखित रूप से स्वीकार कर लिया जाता है।

(3) जबकि मूल नष्ट हो गया है या खो गया है या उसे प्रस्तुत करने वाले के स्वयं के व्यतिक्रम में उपेक्षा से उत्पन्न किसी कारण को छोड़कर निम्न किसी कारण से युक्तियुक्त समय में पेश नहीं कर सकता।

(4) जबकि वह आसानी से स्थानांतरणीय नहीं है।

(5) जबकि वह लोक दस्तावेज है।

 (6)जबकि वह भारत में प्रवृत किसी विधि द्वारा उसकी प्रमाणित प्रति बतौर साक्ष्य ग्राहय है।

(7) जबकि मूल अनेक ऐसे लेखाओं द्वारा निर्मित है जिसका न्यायालय में सुविधापूर्वक परीक्षा नहीं किया जा सकता। और साक्ष्याधीन तथ्य संपूर्ण संग्रह का सार है।

प्रश्न-

प्राथमिक और द्वितीयक साक्ष्य में अंतर स्पष्ट कीजिए, तथा उन परिस्थितियों का भी उल्लेख कीजिए जिनकी विद्यमानता में द्वितीयक साक्ष्य ग्राहय किया जाता है।







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