मृत्युकालिक कथन (धारा 32 साक्ष्य अधिनियम)


मृत्यकालिक कथन की परिभाषा साक्ष्य अधिनियम में नहीं दी गई है धारा 32 के मुख्य भाग तथा इसके उपधारा (1) को साथ पढ़ने से साथ मृत्यकालिक कथन की निम्न परिभाषा बनती है-

मृत्युकालिक कथन किसी ऐसे व्यक्ति का लिखित या मौखिक कथन है, जो मर गया है तथा जिसने अपने कथन में अपनी मृत्यु के कारणों  को बताया है या उन परिस्थितियों को बताया है जिनमें उसकी मृत्यु हुई है । कथन करते समय उसे मृत्यु की आशंका रही हो या नहीं । 

संत गोपाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 1995 के बाद में उच्च न्यायालय ने कहा की "मृत्युकालिक कथन" से तात्पर्य उस व्यक्ति के लिखित या मौखिक सुसंगत कथनों से है जो मर चुका है।

मृत्युकालिक कथन के बारे में विभिन्न विद्वानों के कथन-

न्यायाधीश लश-  कोई व्यक्ति जो कि तुरंत ही अपने निर्माता (ईश्वर) के समक्ष जा रहा हो, वह अपनी जुबान पर झूठ लेकर न जाएगा ।

आर्नाल्ड- "मरते हुए व्यक्ति, के अधरों पर सत्य का वास होता है ।"

शेक्सपियर - "वे सच बोलते हैं जो तकलीफ में बोलते हैं।

मृत्यु कालिक कथन का विधिक सूत्र

"Memo moriturus, procesumiture mentri"(a man will not meet his maker with a lie in his mouth.)

अर्थात "कोई व्यक्ति अपने निर्माता से अपने मुंह में झूठ के साथ नहीं मिलेगा ।"

यदि मृत्युकालिक कथन को रोक दिया जाए(Excluded) तो इसका परिणाम न्याय की हत्या (Miscarriage of justice)होगा ।

आवश्यक शर्तें-

(1) व्यक्ति जिसने मृत्यु कालिक कथन दिया था, उसकी मृत्यु हो गई हो।

(2) कथन उस व्यक्ति की मृत्यु के कारण के बारे में या ऐसी परिस्थिति के बारे में किया गया हो जिसके फलस्वरुप उसकी मृत्यु हुई हो।

(3) कार्यवाही में उसे व्यक्ति की मृत्यु का कारण प्रश्न हो |

  कारवाई सिविल या दाडिंक की हो सकती है।

मृत्यु कालिक  कथन की ग्राहयता के संबंध में सामान्य नियम

(1) ऐसा कोई नियम नहीं है कि जब तक मृत्युकालिक कथन समर्थित ना हो इसके आधार पर सजा नहीं दी जा सकती।

(2) किसी भी अन्य  साक्ष्य की तुलना में मृत्यु कालिक कथन दुर्बल प्रकार का साक्ष्य नहीं होता है ।

(3)ऐसा मृत्यु कालिक कथन जिसे प्रश्न उत्तर रूप में तथा मृतक के अपने शब्दों में किसी मजिस्ट्रेट द्वारा लिखा जाता है पूर्ण रूप से विश्वसनीय होता है।

संकेत द्वारा कथन(statement by signs)

क्वीन इंप्रेस बनाम अब्दुल्ला 1885 के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ ने कहा कि इशारे द्वारा किया गया का कथन भी बराबर ग्राहय  होगा।

 संव्यवहार की परिस्थितियों जिससे उसकी मृत्यु हुई(circumstances of transaction which resulted in his death)

शरदबरधी चंद शारदा बनाम महाराष्ट्र राज्य 1984

इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने निर्धारित किया कि संव्यहार  की परिस्थितियों में क्रूरता (evidence of cruelty)भी शामिल है।

मृत्यु की प्रत्याशंका का (पूर्वानुमान) आवश्यक नहीं(Expectations of death not necessary)

पकला नारायण स्वामी बनाम एंपरर 1939 पी सी 

इस वाद में प्रिवी कौंसिल ने निर्धारित किया कि कथनकर्ता  को मृत्यु की प्रत्याशंका  होना का आवश्यक नहीं।












 

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