विशेषज्ञ साक्षी (साक्ष्य अधिनियम की धारा 45 से 51तक)

 विशेषज्ञ साक्षी-

भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 के अंतर्गत धारा 45 से लेकर धारा 51 तक में कुछ तकनीकी एवं विशिष्ट मामलों के संदर्भ में क्रमशः विशेषज्ञ एवं परव्यक्तियों के राय को सुसंगत  घोषित किया गया है।  यद्यपि कि किसी मामले में राय निर्धारित करना न्यायालय का कार्य है, साक्षी का नहीं, किन्तु न्यायालय के समक्ष कभी-कभी कुछ ऐसे तकनीकी एवं विशिष्ट मामले आ जाते हैं, जिनके संबंध में न्यायालय को राय धारित करना टेढ़ी खीर साबित हो जाता है ऐसी दशा में विधि उन्हें अपने सहयोग के लिए कतिपय व्यक्तियों में से राय अभीप्राप्त करने के लिए स्वविवकी शक्ति प्रदान करती है। यह विषय धारा 45 के अंतर्गत तथा धारा 47,48 49 ,50 तथा 51 के अंतर्गत बनाए गए हैं।


 धारा 45 कहती है कि जबकि न्यायालय को विज्ञान, कला, विदेशी विधि या हस्तलेख  अथवा अंगुली चिन्ह के किसी बात के बारे में राय बनानी हो तो विशेष कुशल व्यक्तियों की राय सुसंगत है। ऐसे विशेष कुशल व्यक्ति ही विशेषज्ञ कहलाते हैं।

      स्पष्ट है किसी विषय के संबंध में विशेष ज्ञान रखने वाला व्यक्ति ही विशेषज्ञ कहलाता है ज्ञान का यह मानक एक युक्तियुक्त व्यक्ति के ज्ञान से ऊपर का होता है जो सतत अध्ययन से, जिनकी स्थिति शैक्षिक उपाधि के रूप में होता है या सतत् अध्ययन से प्राप्त होता है। जैसे- विशेषज्ञ होने के लिए किसी शैक्षिक उपाधि की अनिवार्यता नहीं है इसके लिए सिर्फ विशेषज्ञ की ही आवश्यकता है इसलिए-

     अब्दुल रहमान बनाम स्टेट आफ मैसूर 1972 के प्रकरण में न्यायालय ने एक 20 वर्ष से स्वर्णकारी करने वाले व्यक्ति को विशेषज्ञ माना, यद्यपि की उसके पास किसी प्रकार की शैक्षणिक उपाधि नहीं थी, इसी प्रकार सर्वोच्च न्यायालय ने श्रीचंद्र बत्रा बनाम स्टेट ऑफ़ यूपी 1974 के वाद में विशेषज्ञ शब्द के तकनीकीपन को अस्वीकार  करते हुए कहा कि इसे संकुचित अर्थो के बजाय विस्तृत अर्थो में समझना चाहिए।

      किशन सिंह बनाम एन सिंह 1983 के वाद में उच्च न्यायालय ने मूक एवं बधिर विद्यालय के प्रिंसिपल को उस संबंध में विशेषज्ञ माना।

      और जब यही साक्षी बतौर राय अपने साक्ष्य  को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करते हैं तो इनके इस राय को विशेषज्ञ साक्ष्य भी कहा जाता है।  तथा इन्हें विशेषज्ञ साक्षी।

      निम्नलिखित विषयों के संबंध में विशेषज्ञ की राय सुसंगत है-

(1) विज्ञान और कला- स्टीफन ने इस बात को निम्नवत स्पष्ट किया जिसे प्रसिद्ध विधि शास्त्री फील्ड ने भी स्वीकारा।      इन्होंने कहा कि इसके अंतर्गत वे समस्त विषय आते हैं जिनके बारे में तकनीकी जन के कारण सामान्य व्यक्ति द्वारा कोई भी विचार धारित करना दुष्कर होता है।

(2) विदेशी विधि- इस विधि का तात्पर्य ऐसी विधि से है जो कि भारत में प्रवर्तनीय नहीं है 

मोहम्मद इब्राहिम बना अजयबानो 1915 के प्रकरण में न्यायालय ने धारित किया कि चूंकि  शिया विधि भारत में प्रवर्तनीय है इसलिए वह विदेशी विधि नहीं है यद्यपि कि उसका विधायन विदेश में हुआ है अर्थात् व पर्शियन विधि होते हुए भी अपने देश में लागू होने के कारण विदेशी विधि नहीं है।

(3) हस्तलेख एवं उंगली चिन्ह- के संबंध में विशेषज्ञ की राय सुसंगत है। 

    साक्ष्यिक मूल्य

भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 के अंतर्गत विशेषज्ञ साक्षी के संबंध में प्रावधान धारा 45 में तो किया गया है किंतु उसके राय के साक्ष्यिक मूल्य के संबंध में अधिनियम पूरी तरह से मोन है।समान्यतः विशेषज्ञ की राय के साक्ष्यिक महत्व को कमतर आँका जाता है इसके पीछे एम. आर. जाफरान द्वारा बतायी गयी कुछ बातें दृष्टव्य है।  उन्होंने अपने  द डाइजेस्ट ऑफ एक्सपर्ट ऑपिनियन नामक पुस्तक में कहा कि विशेषज्ञ साक्षी का साक्ष्य चूंकि  पैसा चुकाकर प्राप्त किया जाता है।  इसलिए यह संभावना होती है कि वह भुगतान करने वाले पक्षकार का पक्ष ले ले, यह भी कि चूंकि  वह मानव है  वह मानवीय त्रुटियों  से परे नहीं हो सकता अतः उससे भूल भी हो सकती है। उसका ज्ञान अपरिपक्व भी हो सकता है, वह राय देने के लिए भ्रष्ट्र तरीके से उत्प्रेरित भी हो सकता है वह रिश्वत भी लेकर राय दे सकता है किंतु

 भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने रामनारायण बनाम यू.पी. 1970 के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने विशेषज्ञ की इस राय के आधार पर व्यपहरण के लिए दोषसिद्धि की राय सही मानी कि जिस पक्ष द्वारा फिरौती मांगी गई थी वह अभियुक्त के ही हस्तलेख में था- 

पुनः मुरारी लाल बनाम मध्य प्रदेश राज्य के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विशेषज्ञ साक्षी सहअपराधी नहीं है इसलिए उसके साथ को साधारण साक्षी के ही साक्ष्य की तरह देखना चाहिए। और उसकी राय विश्वासनीय एवं सत्य प्रतीत हो रही है तो उसका संपुष्टीकरण किया जाना आवश्यक नहीं है। इसके लिए न्यायालयों को चाहिए कि विशेषज्ञ की राय को उचित सावधानी से परखे  तथा उसकी राय के कारण को जानने की कोशिश करें और सभी परिस्थितियों की जांच करते हुए तय करें कि विशेषज्ञ की राय विश्वसनीय है या नहीं। यदि उसकी राय विश्वासनीय है तो वह महत्वपूर्ण साक्ष्य हो सकती है।  और उसके आधार पर निर्णय भी दिया जा सकता है इसी मामले में न्यायमूर्ति  चिनप्पारेड्डी ने कहा कि जैसे जैसे तकनीकी जानकारी बढ़ती जाएगी वैसे-वैसे तकनीकी साक्ष्य का मूल्य भी बढ़ता जाएगा। यद्यपि कि एस. गोपाल रेड्डी बनाम स्टेट आफ यू.पी . 1996 के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने पुनः दुहराया कि विशेषज्ञों का साक्ष्य बहुत कमजोर प्रकृति का होता है फिर भी वाद के तमाम मामले में सुप्रीम कोर्ट ने विशेषज्ञ राय की विश्वसनीयता के आधार पर निर्णय दिए हैं।

       जैसे लाखव सिंह बनाम स्टेट आफ राजस्थान 1997 के प्रकरण पोस्टमार्टम की रिपोर्ट को विश्वसनीय मानते हुए निणॅय  दिया गया था किंतु तेज सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब 1997 सुप्रीम कोर्ट के प्रकरण में एक्सीडेंट के बारे में विशेषज्ञ की राय को विश्वसनीय न होने के कारण नहीं माना इसी प्रकार प्रेम बनाम दूल्हा 1997 सुप्रीम कोर्ट के प्रकरण में न्यायालय ने हथियार के बारे में चिकित्सीय  रिपोर्ट न मानकर चश्मदीद गवाह की बात मानी ।

      स्टेट ऑफ़ एमपी बनाम पल्टन माल्लाह 2005 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा देशी और विदेशी दोनों पिस्तौले बरामद की गई बैलेस्टिक एक्सपर्ट के अनुसार, तीनों गोलियाँ  12 बोर के देसी पिस्तौल से चलाई गई थी और उस विशेषज्ञ ने उचित स्पष्टीकरण भी अपनी रिपोर्ट में दिया था कि कारतूसों की सूक्ष्म काया लगाना जरूरी नहीं था।

उपयुक्त निर्णय के सूक्ष्म विवेचन से विशेषज्ञ साक्षी के राय के वजन के बारे में यह निष्कर्ष धारित किया जा सकता है यद्यपि कि सामान्यतः विशेषज्ञ साक्षी का साक्ष्य कम मजबूत होता है किंतु न्यायालयों ने ऐसी साक्ष्य पर विश्वास करते हुए निर्णय धारित किया है जो उन्हें सत्य एवं विश्वसनीय प्रतीत हुए है।  अतः यदि साक्ष्य सत्य एवं विश्वसनीय है तो उस पर निर्णय आधारित किया जा सकता है।

अंतर-

 सामान्य साक्षी एवं विशेषज्ञ साक्षी में

     सामान्य साक्षी-

(1) यह सामान्य तथ्यों का साक्ष्य  देता है। 

(2) यह तथ्य स्वंय दृष्टि एवं व्यक्तिगत जानकारी का साक्ष्य देता है। 

(3) यह विशेषज्ञ साक्षी नहीं हो सकता।

(4)सामान्य साक्षी के साक्ष्य का क्षेत्र विस्तृत है। 

       विशेषज्ञ साक्षी-

(1)यह विशिष्ट तथ्यों का साक्ष्य देता है। 

(2) यह तथ्यों के विश्लेषण से प्राप्त जानकारी का साक्ष्य देता है। 

(3) यह सामान्य साक्षी भी हो सकता है।

(4) विशेषज्ञ साक्षी के साक्ष्य का क्षेत्र संकुचित है।

   बाल कृष्ण अग्रवाल बनाम राधा देवी एवं अन्य 1989 के वाद में विशेषज्ञ को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया गया है जिसने अपने प्रशिक्षण और अनुभव के द्वारा एक राय देने की योग्यता अर्जित कर ली है किंतु एक सामान्य साक्षी में यह योग्यता नहीं होती है।





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