लिखित कथन प्रतिदावा एवं मुजरा (सीपीसी के आदेश 8 नियम 6 (क)

 प्रतिदावा ( सीपीसी के आदेश 8 नियम 6 (क)-


वादी द्वारा मांगे गए अनुतोष को असफल करने के लिए प्रतिवादी प्रतिदावे के तर्क को उठा सकता है। लेकिन ऐसा प्रतिदावा ऐसे अधिकार या दावे के संबंध में कर सकता है, जिसके लिए प्रतिवादी पृथक वाद संस्थित कर सकता है। प्रति दावा हेतु यह आवश्यक है कि वादी के विरुद्ध चाहा गया अनुतोष न्यायालय की धन संबंधी अधिकारिता से अधिक न हो। 

प्रतिदावा की शर्ते- 

प्रतिवादी प्रतिदावा निम्नलिखित परिस्थितियों में उठा सकेगा-

(1) प्रतिदावे से प्रतिवादी के मुजरा के अभिवचन (आदेश  8 नियम 6) का अधिकार प्रभावित नहीं होता। प्रतिदावे के रूप में अपने किसी अधिकार या दावे को प्रतिवादी अपने मुजरा के अधिकार के अतिरिक्त स्थापित कर सकेगा।

(2) प्रतिदावे के अधिकार का वाद हेतुक चाहे वह वाद संस्थित होने से पूर्व या पश्चात उत्पन्न हुआ हो किंतु प्रतिवादी द्वारा संबंधित वाद में अपनी प्रतिरक्षा आरंभ किए जाने से पूर्व उत्पन्न हुआ हो।

 (3) ऐसा प्रतिदावा न्यायालय की धन संबंधी अधिकारिता से अधिक नहीं होना चाहिए। 

(4) वादी द्वारा मांगे गए अनुतोष और प्रतिवादी द्वारा स्थापित प्रतिदावे के बीच कुछ संबंध अवश्य होना चाहिए।

  शांतिलता त्रिपाठी बनाम कृष्णा प्रिया पानी 2005 के वाद में अभिनिर्धारित किया गया कि वाद हेतुक की उत्पत्ति लिखित कथन दाखिल करने के पश्चात हुई है तो प्रतिदावे की मांग नहीं की जा सकती।

क्या इसे वाद के किसी भी स्तर पर दाखिल किया जा सकता है ?

 प्रतिवादी प्रतिदावा दाखिल करने हेतु मामले के विचारण के प्रत्येक चरण पर सक्षम नहीं होता है इस संबंध में उच्चतम न्यायालय ने महेंद्र कुमार बनाम स्टेट आफ एमपी एक्ट 1987 के वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि यह सीमा जब तक पक्षकारों द्वारा साक्ष्य पूर्णरूपेण से समाप्त न हो जाए और निर्णय सुनाये जाने के लिए सुरक्षित किए जाने के पूर्व होना चाहिए।

क्या अपील में भी दाखिल हो सकता है ?

 प्रतिवादी प्रतिदावा योजित करने हेतु मामले अथवा अपील के प्रत्येक स्तर पर योजित करने हेतु सक्षम नहीं है।  अतः अपील के स्तर पर प्रतिदावा नहीं उठाया जा सकता।

क्या यह सह प्रतिवादियों के विरुद्ध दाखिल किया जा सकता है ?

 रोहित सिंह बनाम स्टेट आफ बिहार 2007 उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि प्रतिदावा विवाद्यकों की विरचना और साक्ष्य होने के पश्चात नहीं उठाया जा सकता। पुनः प्रतिदावा केवल प्रतिवादियों के विरुद्ध नहीं स्थापित किया जा सकता न्यायालय केवल सहप्रतिवादियों के पक्ष में कोई डिक्री पारित नहीं कर सकता इस आधार पर कि उनके प्रतिदावे का कोई प्रति उत्तर अन्य प्रतिवादियों द्वारा दाखिल नहीं किया गया है। केवल सह प्रतिवादियों के विरुद्ध प्रतिदावा नहीं स्थापित किया जा सकता क्योंकि इसका परिणाम होगा दावे को अंतराभिवाची वाद में परिवर्तित कर देना। प्रतिदावा सामान्यतया वादी के विरुद्ध उठाया जाना चाहिए। परंतु अनुशांगिक रूप में और इसके साथ यह सह प्रतिवादियों के विरुद्ध उठाया जा सकता है।

लिखित कथन (Written Statement) - 

सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 8 में लिखित कथन के संबंध में प्रावधान किया गया है।

लिखित कथन प्रतिवादी द्वारा वादी के वाद-पत्र का लिखित जवाब अथवा प्रतिरक्षा है। जिस प्रकार वादी का अभिवचन वाद-पत्र है। उसी भांति प्रतिवादी का अभिवचन लिखित कथन है। लिखित कथन वह दस्तावेज है, जिसके माध्यम से प्रतिवादी वादी द्वारा लगाये गये अभिकथन या मांगे गये दावों का बचाव प्रस्तुत करता है।

वाद-पत्र एवं लिखित कथन दोनों ही अभिवचन के भाग हैं। इसलिए अभिवचन के सामान्य नियम इन दोनों पर लागू होते हैं तथा विशिष्ट नियम वाद-पत्र के सम्बन्ध में आदेश 7 तथा लिखित कथन आदेश 8 में है। लिखित कथन को निम्न तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-

(1) लिखित कथन कैसे प्रस्तुत किया जाय (नियम 1)

(2) लिखित कथन की अन्तर्वस्तु (नियम 2 से 10)

(3) मुजरा एवं प्रतिदावा (नियम 6 एवं 6 'क' से 6 'छ')

प्रतिवादी द्वारा लिखित कथन दाखिल करने की समय सीमा क्या है ?

 आदेश 8 नियम 1

 प्रतिवादी अपनी प्रतिरक्षा का लिखित कथन उस पर समन तामिल होने के दिन से 30 दिन के भीतर उपस्थित कर सकेगा। 

 परंतु जहां प्रतिवादी 30 दिन के भीतर लिखित कथन दाखिल करने में असफल रहता है वहां अन्य दिन जो न्यायालय द्वारा अभिलिखित किया जाएगा लेकिन जो समन की तिथि से 90 दिन के बाद का नहीं होगा।

 जोल्वा बनाम केशव 2008 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि आदेश 8 नियम 1 के अंतर्गत 90 दिन की समय सीमा बढाई जा सकती है किंतु अपवादात्मक परिस्थितियों में। इस नियम के प्रावधान निदेशात्मक है, आदेशात्मक नहीं। यह प्रतिवादी की निर्योग्यता को प्रस्तुत करती है, न्यायालय को समय बढ़ाने की शक्ति पर कोई प्रतिषेध नहीं है।

अशोक कुमार कालरा बनाम विंग कमांडर, सुरेंद्र अग्निहोत्री और अन्य 2019 के वाद में अभिनिर्धारित किया गया कि प्रतिवादी द्वारा प्रतिदावा लिखित कथन प्रस्तुत कर दिए जाने के बाद किंतु मामले में वाद बिंदु की विरचना के पूर्व किसी भी समय प्रस्तुत किया जा सकता है किंतु इसके बाद नहीं। यह प्रकृति में वादपत्र के समान होते हैं और लिखित कथन के सारे नियम प्रतिदावा को भी लागू होते होंगे।

निष्कर्ष-

  आदेश 8 नियम 6 'क' लिखित कथन प्रस्तुत किए जाने के बाद प्रतिदावा प्रस्तुत करने पर कोई प्रतिबंध अधिरोपित नहीं करता है  वास्तव में प्रतिबंध केवल वाद कारण की वृद्धि के संबंध में है  यह प्रतिवादी को विलंब से प्रतिदावा प्रस्तुत करने का निरपेक्ष अधिकार प्रदान नहीं करता है, भले ही परिसीमा अवधि समाप्त न हुआ हो। न्यायालय को प्रतिदावा पेश करने की बाहय सीमा पर विचार करना चाहिए, जो केवल तब तक विस्तारित है,  जब तक वाद बिंदु की रचना नहीं हो जाती है।

        मुजरा (आदेश 8 नियम 6)-


मुजरा का शाब्दिक अर्थ होता है दूसरों के विरुद्ध किया गया दावा। इसे ॠणों की पारस्परिक  विमुक्ति भी कहते हैं यह एक प्रकार से धन के लिए प्रतिदावा है इसे वाद में के दावे के बारे में बचाव या दावा भी कह सकते हैं। ॠणों के बीच पारस्परिक विमुक्ति दो व्यक्तियों के बीच होती है। यह प्रतिवादी द्वारा एक नए वाद संस्थित करने की आवश्यकता को समाप्त कर देता है।

 अंतर- मुजरा एवं प्रतिदावा

(1) मुजरा वादी की कार्यवाही का वैध बचाव है।

(2)  मुजरा एक अभिनिश्चित धनराशि के लिए होना चाहिए या इसकी उत्पत्ति उसी संव्यवहार से हुई हो।

(3) वैध मुजरा के लिए आवश्यक है कि वह वाद संस्थित किये जाने की तिथि पर वैध रूप से वसूली योग्य हो।

(4)  मुजरा बचाव का एक वैध साधन है, जिसका उपयोग ढाल की तरह किया जाता है।

(5) जब प्रतिवादी वादी के वाद के अंतर्गत उतनी ही धनराशि तक के लिए या उससे कम धनराशि के लिए जितना वादी द्वारा वाद में मांगी गई है, मुजरा की मांग करता है, तो उसे कठोर अर्थों में मुजरा कहते हैं।

(6) मुजरा का संबंध वादी के दावे से होता है।

      प्रतिदावा

(1) प्रतिदावा सारभूत रूप से प्रतिदावा है।

 (2) प्रतिदावा के लिए यह आवश्यक नहीं है कि इसकी उत्पत्ति उसी संव्यवहार से हुई हो।

(3) प्रतिदावा लिखित कथन की तिथि पर वसूली योग्य होना चाहिए। 

(4) प्रतिदावा बचाव का साधन ही नहीं है, अपितु उसका उपयोग तलवार की तरह भी किया जाता है, यह आक्रमण का हथियार है।

(5)  जहां मुजरा की मांगी गई धनराशि वादी द्वारा मांगी गई धनराशि से अधिक है वहां ऐसे अधिक धनराशि को प्रतिदावा कहा जाएगा।

(6) प्रतिदावा, प्रतिवादी द्वारा वादी के विरुद्ध उत्पन्न वाद कारण पर आधारित किसी अनुतोष या अधिकार का दावा है जो एक पृथक दावे के समतुल्य है। जिसे प्रतिवादी पृथक दावे के बजाय लिखित में प्रस्तुत कर दिया है।

महेंद्र कुमार बनाम मध्य प्रदेश राज्य  1987 के वाद में अभिनिर्धारित  किया गया कि लिखित कथन प्रस्तुत किये दिए जाने के बाद भी आदेश 8 नियम 6 'क' के अंतर्गत प्रतिदावा प्रस्तुत किया जा सकता है।

विजय प्रकाश जराठ बनाम तेज प्रकाश जराट 2016 के वाद में अभिनिर्धारित  किया गया कि प्रतिदावा विवाद्यकों  की रचना एवं साक्ष्यों के बंद हो जाने के बाद प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है। 























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