सरकार द्वारा या उसके विरुद्ध वाद (धारा-79-82 एवं आदेश 27 सीपीसी)-
सरकार द्वारा या उसके विरुद्ध वाद (धारा-79-82 एवं आदेश 27 सीपीसी)-
सरकार द्वारा या उसके विरुद्ध वाद में, यथास्थितिवादी या प्रतिवादी के रूप में नामित किया जाने वाला प्राधिकारी -
(क) केन्द्रीय सरकार या उसके विरुद्ध वाद की दशा में, भारत संघ होगा, तथा
(ख) किसी राज्य सरकार द्वारा या उसके विरुद्ध वाद की दशा में वह राज्य होगा।
जहां वाद केन्द्रीय सरकार के विरुद्ध है, उसमें अपील की गई है, भारत संघ को तो पक्षकार बनाया गया है, परन्तु विभाग के कनिष्ठ अधिकारियों को पक्षकार नहीं बनाया गया, वहां
मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने यूनियन ऑफ इण्डिया बनाम सोहन लाल ए. आई. आर. 1990 नामक वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि अपील ऐसे अधिकारियों को पक्षकार न बनाये जाने के कारण भी अग्रहणीय या अक्षम नहीं हो पाती।
चीफ कांजरवेटर बनाम कलेक्टर 2003 के वाद में अभिनिर्धारित किया गया है कि जहां एक रिट याचिका या सिविल वाद राज्य के एक विभाग द्वारा राज्य के दूसरे विभाग के विरुद्ध या भारत संघ के एक विभाग द्वारा भारत संघ के दूसरे विभाग के विरुद्ध संस्थित किया गया है, वहां ऐसी याचिका या वाद न तो उपयुक्त है और न ही अनुज्ञेय है।
चमनलाल बनाम स्टेट ऑफ पंजाब, 2014 सु. को. के वाद में अभिनिर्धारित किया कि जहां राज्य के विरुद्ध अनुतोष की मांग की गयी है वहां राज्य को पक्षकार बनाया जाना चाहिए और इसके अभाव में वाद पोषणीय नहीं होगा। जो डिक्री पारित की गयी है, वह अवैध है।
धारा 80 सूचना-
सरकार के विरुद्ध वाद संस्थित किये जाने की प्रक्रिया में सूचना (Notice) का एक महत्वपूर्ण स्थान है। संहिता की धारा 80 में ऐसी सूचना के बारे में प्रावधान किया गया है।
धारा 80 के अनुसार, (1) उपधारा (2) में उपबन्धित के सिवाय, सरकार के (जिसके अंतर्गत जम्मू कश्मीर राज्य-सरकार भी आती है) विरुद्ध या ऐसे कार्य की बाबत जिसके बारे में यह तात्पर्यंत है कि वह ऐसे लोक अधिकारी द्वारा अपने पदीय हैसियत में किया गया है, लोक-अधिकारी के विरुद्ध कोई वाद तब तक संस्थित नहीं किया जायेगा जब तक वाद हेतुक का, वादी के नाम, वर्णन और निवास स्थान का और जिस अनुतोष का वह दावा करता है, उसका कथन करने वाली लिखित सूचना-
(क) केन्द्रीय सरकार के विरुद्ध वाद की देश दशा में, वहां के सिवाय जहां वह रेल से सम्बन्धित है, उन सरकार के सचिव को,
(ख) केन्द्रीय सरकार के विरुद्ध वाद की दशा में, जहां वह रेल से सम्बन्धित है, उस रेल के प्रधान प्रबन्धक को,
(ख ख) जम्मू कश्मीर राज्य की सरकार के विरुद्ध वाद की दशा में, उस सरकार के मुख्य सचिव को या उस सरकार द्वारा इस निमित्त प्राधिकृत किसी अन्य अधिकारी को,
(ग) किसी अन्य राज्य सरकार के विरुद्ध की दशा में, उस सरकार के सचिव को या जिले के कलेक्टर को, परिदत्त किये जाने या उसके कार्यालय को छोड़े जाने के और लोक अधिकारी की दशा में उसे परिदत्त किये जाने या उसके कार्यालय में छोड़े जाने के पश्चात् दो मास का अवसान न हो गया हो, और वादपत्र में यह कथन अन्तर्विष्ट होगा कि ऐसी सूचना ऐसे परिदत्त कर दी गयी है या छोड़ दी गयी है।
(2) सरकार के (जिनके अंतर्गत जम्मू-कश्मीर राज्य की सरकार भी आती है) विरुद्ध या ऐसे कार्य की बाबत जिसके बारे में यह तात्पर्यित है कि वह ऐसे लोक-अधिकारी द्वारा अपनी पदीय हैसियत में किया गया है, लोक अधिकारी के विरुद्ध कोई अत्यावश्यक या तुरन्त अनुतोष अभिप्राप्त करने के लिए कोई वाद, न्यायालय की इजाजत से, उपधारा (1) द्वारा यथा अपेक्षित, किसी सूचना की तामील किये बिना, संस्थित किया जा सकेगा, किन्तु न्यायालय वाद में अनुतोष चाहे अन्तरिम या अन्यथा, यथास्थिति, सरकार या लोक अधिकारी को वाद में आवेदित अनुतोष की बावत हेतुक दर्शित करने का उचित अवसर देने के पश्चात् ही प्रदान करेगा अन्यथा नहीं-
परन्तु,
यदि न्यायालय का पक्षकारों को सुनने के पश्चात् यह समाधान हो जाता है कि वाद में कोई अत्यावश्यक या तुरन्त अनुतोष प्रदान करने की आवश्यकता नहीं है तो वह वाद-पत्र को वापस कर देगा कि उसे उपधारा (1) की अपेक्षाओं का पालन करने के पश्चात् प्रस्तुत किया जाये।
(3) सरकार के विरुद्ध या ऐसे कार्य की बाबत जिसके बारे में यह तात्पर्यित है कि वह ऐसे लोक अधिकारी द्वारा अपनी पदीय हैसियत में किया गया है, लोक अधिकारी के विरुद्ध संस्थित किया गया कोई वाद केवल इस कारण खारिज नहीं किया जायेगा कि उपधारा (1) में निर्दिष्ट सूचना में कोई त्रुटि या दोष है, यदि ऐसी सूचना में-
(क) वादी का नाम वर्णन और निवास स्थान इस प्रकार दिया गया है, जो सूचना की तामील करने वाले व्यक्ति की शिनाख्त करने में समुचित प्राधिकारी या लोक अधिकारी को समर्थ करे और ऐसी सूचना उपधारा (1) में विनिर्दिष्ट समुचित प्राधिकारी के कार्यालय में परिदत्त कर दी गयी है या छोड़ दी गयी है, तथा
(ख) वाद-हेतुक और वादी द्वारा किया गया अनुतोष सारतः उपदर्शित किया गया है।
उद्देश्य-
धारा 80 के अधीन सूचना देने का उद्देश्य है, सम्बन्धित सरकार या लोक-अधिकारी को एक अवसर प्रदान करना ताकि वह अपनी विधिक स्थिति पर पुनः विचार कर ले और अगर यह उचित समझे तो दावे को न्यायालय से बाहर सुलझा ले।
धारा 80 के अन्तर्गत, सूचना के बारे में अपना विचार व्यक्त करते हुये, उच्चतम न्यायालय ने सलेम एडवोकेट बार एसोसिएशन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया 2005 सु. को. में कहा कि इस बात का न्यायिक संज्ञान किया जाना चाहिए कि बहुत सारे मामले में सूचना का (सरकारों या अधिकारियों द्वारा) या तो उत्तर नहीं दिया जाता या यदि कुछ मामलों में दिया भी जाता है तो अस्पष्ट या भुलावा देने वाला होता है। इसका परिणाम होता है कि धारा 80 या उसी तरह के अन्य प्रावधानों का उद्देश्य असफल हो जाता है। इससे न केवल बचे जाने वाले मुकदमे में वृद्धि होती है, अपितु सरकारी खर्चे में भी वृद्धि होती है।
सूचना-
जब भी सरकार या लोक-अधिकारी के विरुद्ध वाद संस्थित किया जाना हो तो बाद संस्थित किये जाने से पूर्व (केवल धारा 80 की उपधारा (2) में वर्णित अपवाद को छोड़कर) सरकार या लोक अधिकारी को सूचना दिया जाना आवश्यक है। (दयानन्द बनाम स्टेट 2001 राज.)
बिन्दुभूषण बनाम एस. के. अजीज, 1985 पटना के वाद में कहा गया कि लोक-अधिकारी के विरुद्ध वाद लाने के लिये सूचना दिया जाना वहीं आवश्यक है, जहां लोक-अधिकारी के द्वारा किया गया कार्य सरकारी हैसियत में किया गया है।
म्यूनिसिपल कॉसिल, भालकी वाई इट चीफ आफिसर बनाम गुरप्पा, 2015 सु. को. के बाद में कहा गया कि म्यूनिसिपल कोसिंल एक लोक अधिकारी नहीं है। अतः जब वाद म्यूनिसिपैलिटी के खिलाफ दाखिल करना हो तो सूचना देना जरूरी नहीं है।
सूचना की अवधि-
सूचना वाद संस्थित किये जाने से कम से कम दो माह पूर्व दी जानी चाहिए।
बिहारी चौधरी बनाम स्टेट ऑफ बिहार, 1984 सु. को. के वाद में कहा गया कि जहाँ वाद नोटिस की अवधि समाप्त होने से पूर्व संस्थित कर दिया गया है, वहां वाद खारिज किया जा सकता है।
बिना सूचना के वाद-
धारा 80 (2) में यह उपबंध किया गया है कि जहां सरकार या लोक-अधिकारी के विरुद्ध शीघ्र या अविलम्ब अनुतोष प्राप्त करना है (वहां अगर नोटिस देने की आवश्यकता का पालन किया जाये तो न्याय के असफल होने की सम्भावना रहती है) वहां न्यायालय की अनुमति से, बिना सूचना के भी वाद संस्थित किया जा सकता है। (स्टेट ऑफ ए. पी. बनाम पाइनियर बिल्डर्स, ए. पी. 2007 सु. को. ) लेकिन न्यायालय की ऐसी अनुमति के लिये किसी औपचारिक आदेश की आवश्यकता नहीं है।
जनकराजी देवी बनाम चन्द्रावली देवी, 2002 कल. के वाद में धारा 80 (2) के अन्तर्गत अनुमति विवक्षित मानी जा सकती है, और इसका पता न्यायालय क्या करता है या आदेश देता है से पता लगाया जाना चाहिए। अनुमति के लिए प्रार्थना किसी भी रूप में हो सकती है।
मेसर्स बेसिक टेली सर्विसेज लि. बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया, 2000 देलही , के वाद में कहा गया कि परन्तु जहां ऐसा वाद संस्थित किया गया है, वहां न्यायालय, किसी भी प्रकार का अनुतोष, अन्तरिम या अन्यथा, तब तक नहीं प्रदान करेगा, जब तक कि सरकार को या लोक अधिकारी को, जैसी भी स्थिति हो, आवेदित अनुतोष के बारे में अपना पक्ष प्रस्तुत करने का अवसर न प्रदान कर दे।
सूचना में त्रुटि या दोष-
धारा 80 की उपधारा (3) संशोधन अधिनियम, 1976 के माध्यम से जोड़ी गयी है। इसमें यह उपबंध किया गया है कि तकनीकी आधारों पर व्यक्तियों के न्यायोचित दावे विफल न हो जाये। इस उपधारा के अनुसार सरकार या लोक अधिकारी के विरुद्ध संस्थित किया गया वाद किसी तकनीकी कमी, अथवा नोटिस में किसी त्रुटि अथवा नोटिस तामील किये जाने में की गयी किसी अनियमितता के कारण खारिज नहीं किया जायेगा किन्तु शर्त यह है कि ऐसी नोटिस में वादी का नाम, वर्णन और निवास स्थान इस प्रकार दिया गया है, जो सूचना तामील करने वाले व्यक्ति की शिनाख्त (पहिचान) करने में समुचित प्राधिकारी या लोक-अधिकारी को समर्थ करता है, तथा नोटिस में वाद हेतुक और वादी द्वारा दावा किया गया। अनुतोष सारतः उपदर्शित किया गया है। (कर्नाटक बोर्ड ऑफ वक्फ, बंगलोर बनाम वी. सी. नागरराजा राव, 1992 कर्नाटक )
सूचना का अधित्यजन-
कोई कारण नहीं है कि वह अधिकारी या सरकार, जिसको नोटिस दी जानी है। वह नोटिस का अभित्यजन न कर सके क्योंकि नोटिस उसके हितों की रक्षा के लिये है। किन्तु जहां ऐसा अभित्यजन किया गया है, वहां यह प्रमाणित करना वादी का काम है। सूचना का अभित्यजन आचरण द्वारा भी किया जा सकता है।
उच्चतम न्यायालय ने बिशनलाल एंड सन्स बनाम स्टेट ऑफ आरीसा, ए. 2001 सु. को. के वाद में यह कहा कि इस प्रतिपादन में कोई सन्देह नहीं है कि धारा 80 की सूचना का अभित्यजन किया जा सकता है। किंतु यहां प्रश्न यह है कि क्या संशोधित लिखित कथन में इस तर्क को न उठाया जाना, इसका (अर्थात् धारा 80 की सूचना का) अभित्यजन माना जायेगा? इस प्रश्न का उत्तर देते हुये उच्चतम न्यायालय ने कहा, नहीं। एक बार जब तर्क मूल लिखित कथन में उठा दिया गया, और यह एक विवाद्यक बन गया, तब इसका संशोधित लिखित कथन में उठाया जाना आवश्यक नहीं।
स्टेट ऑफ ए. पी. बनाम मेसर्स प्वाइनियर बिल्डर्स, 2007 सु. को. के वाद में कहा गया कि जहां सूचना के अभाव की बात सरकार द्वारा लिखित कथन और अतिरिक्त लिखित कथन में नहीं उठाया गया, वहां यह मान लिया जायेगा कि सूचना का अभित्यजन् कर दिया गया।
सूचना की विषय वस्तु-
नोटिस में निम्न बातें अवश्य लिखी रहनी चाहिए-
(1) वाद हेतुक
(2) वादी का नाम, वर्णन
(3) वादी का निवास स्थान, तथा
(4) वह अनुतोष वादी जिसका दावा करता है।
नोट-
अजारा अरबन कोआपरेटिव बैंक लि. बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र 2009 (एन. ओ. सी.) बम्बई के वाद में मकान मालिक ने राज्य सरकार को मकान खाली करने के लिये वाद दाखिल किया, जिसके पूर्व खाली करने के लिये राज्य सरकार को धारा 106 सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम के अन्तर्गत सूचना दी। महाराष्ट्र उच्च न्यायालय ने निर्णीत किया कि किसी व्यक्ति को सरकार के विरुद्ध वाद दाखिल करने के लिये सी. पी. सी. की धारा 80 में वाद कारण उल्लिखित करते हुये नोटिस देना आवश्यक है। धारा 80, सी. पी. सी. एवं धारा 106 सम्पत्ति अंतरण के नोटिस को मिलाया नहीं जा सकता।
धारा-81 गिरफ्तारी और स्वीय उपसंजाति से छूट-
ऐसे किसी भी कार्य के लिये, जो लोक अधिकारी द्वारा उसकी पदीय हैसियत में किया गया तात्पर्यित है, उसके विरुद्ध संस्थित किये गये वाद में-
(क) डिक्री के निष्पादन में से अन्यथा न तो गिरफ्तार किये जाने का दायित्व प्रतिवादी पर और न कुर्क किये जाने का दायित्व उसकी सम्पत्ति पर होगा, तथा
(ख) जहां न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि प्रतिवादी लोक सेवा का अपकार किये बिना अपने कर्तव्य से अनुपस्थित नहीं हो सकता वहां, वह उसे स्वीय उपसंजाति से छूट दे देगा।
धारा-82 डिक्री का निष्पादन -
(1) जहां सरकार द्वारा या उसके विरुद्ध या ऐसे कार्य की बाबत जिसके बारे में यह तात्पर्यत है कि ऐसे लोक अधिकारी द्वारा अपनी पदीय हैसियत में किया गया है, उसके द्वारा या उसके विरुद्ध किसी वाद, में यथास्थिति, भारतीय या किसी राज्य या लोक- अधिकारी के विरुद्ध डिक्री पारित की जाती है, वहां ऐसी डिक्री उपधारा (2) के अनुसार ही निष्पादित की जायेगी, अथवा नहीं।
(2) ऐसी डिक्री की तारीख के संगणित तीन मास की अवधि तक उस डिक्री के तुष्ट न होने पर ही किसी डिक्री के निष्पादन का आदेश निकाला ।
(3) उपधारा (1), (2) के उपबन्ध किसी आदेश या पंचाट के सम्बन्ध में ऐसे लागू होंगे जैसे डिक्री के संबंध में लागू होते हैं, यदि वह आदेश या पंचाट -
(क) भारत संघ या किसी राज्य के या यथापूर्वोक्त किसी कार्य के बारे में किसी लोक-अधिकारी के विरुद्ध चाहे न्यायालय द्वारा चाहे किसी अन्य प्राधिकारी द्वारा, दिया गया हो, तथा
(ख) इस संहिता या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के उपबन्धों के अधीन ऐसे निष्पादित किये जाने के योग्य हो मानों वह डिक्री हो।
सरकार द्वारा या उसके विरुद्ध वाद की प्रक्रिया-
संहिता के आदेश 27 में सरकार द्वारा उसके विरुद्ध संस्थित वादों के सन्दर्भ में न्यायालय द्वारा अपनायी जाने वाली प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है।
सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 27, नियम 1 सरकार द्वारा या उसके विरुद्ध वाद-
सरकार के द्वारा या उसके विरुद्ध किसी भी वाद में वाद-पत्र या लिखित कथन ऐसे व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षरित किया जाएगा जिसे सरकार, साधारण या विशेष आदेश द्वारा, इस निमित्त नियुक्त करे और किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा सत्यापित किया जाएगा जिसे सरकार इस प्रकार नियुक्त करे और जो मामले के तथ्यों से परिचित है।
नियम 2 सरकार के लिये कार्य करने के लिये प्राधिकृत व्यक्ति -
किसी भी न्यायिक कार्यवाही के बारे में सरकार के लिये कार्य करने के लिये पदेन या अन्यथा प्राधिकृत व्यक्ति मान्यता - प्राप्त अभिकर्ता समझे जाएंगे, जो सरकार की ओर से इस संहिता के अधीन उपसंजात हो सकेंगे, कार्य कर सकेंगे और आवेदन कर सकेंगे।
नियम 3 सरकार द्वारा या उसके विरुद्ध वादों में वाद-पत्र-
सरकार द्वारा या उसके विरुद्ध वादों में, वाद-पत्र में वादी या प्रतिवादी का नाम, वर्णन और निवास का स्थान अन्तः स्थापित करने के बजाय वह समुचित नाम, जो धारा 79 में उपबन्धित है, अन्तःस्थापित करना पर्याप्त होगा।
नियम 4 आदेशिका प्राप्त करने के लिये सरकार का अभिकर्त्ता-
किसी भी न्यायालय में का सरकारी प्लीडर ऐसे न्यायालय द्वारा सरकार के विरुद्ध निकाली गई आदेशिकायें लेने के प्रयोजन के लिये सरकार का अभिकर्त्ता होगा।
नियम 5 सरकार की ओर से उपसंजाति के लिये दिन नियत किया जाना-
न्यायालय वह दिन नियत करते समय जिस दिन वाद-पत्र का उत्तर, सरकार द्वारा दिया जाना है, इतना युक्तियुक्त समय अनुज्ञात करेगा जितना सरकार को आवश्यक संसूचना उचित प्रणाली द्वारा भेजने के लिये और सरकार की ओर से उपसंजात होने और उत्तर देने के लिये सरकारी प्लीडर को अनुदेश देने के लिये आवश्यक हों और उस समय को स्वविवेकानुसार बढ़ा सकेगा, किन्तु इस प्रकार बढ़ाया गया समय कुल मिलाकर दो मास से अधिक नहीं होगा।
नियम 5 'क' लोक-अधिकारी के विरुद्ध वाद में सरकार को पक्षकार के रूप में संयोजित किया जाना-
जहां लोक अधिकारी के विरुद्ध वाद किसी ऐसे कार्य के बारे में जिसके सम्बन्ध में यह अभिकथित किया गया है। वह उसने अपनी पदीय हैसियत में किया है, नुकसानी या अन्य अनुतोष के लिये संस्थित किया जाता है, वहां सरकार को वाद में पक्षकार के रूप में संयोजित किया जायेगा।
नियम 5 'ख' सरकार या लोक अधिकारी के विरुद्ध वादों में निपटारा कराने में सहायता करने के लिये न्यायालय का कर्त्तव्य-
(1) ऐसे प्रत्येक वाद या कार्यवाही में जिसमें सरकार या अपनी पदीय हैसियत में कार्य करने वाला लोक अधिकारी पक्षकार है, न्यायालय का यह कर्तव्य होगा कि वह वाद की विषय-वस्तु के बारे में निपटारा कराने में पक्षकारों की सहायता करने के लिये हर प्रयास प्रथमतः करे जहां ऐसा करना मामले की प्रकृति और परिस्थितियों से सुसंगत हो।
(2) यदि किसी ऐसे वाद या कार्यवाही में किसी प्रक्रम में न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि पक्षकारों के बीच निपटारा होने की युक्तियुक्त सम्भावना है तो न्यायालय कार्यवाही को ऐसी अवधि के लिये जो वह ठीक समझे, स्थगित कर सकेगा जिससे कि ऐसा निपटारा कराने के लिये प्रयत्न किया जा सके।
(3) उपनियम (2) के अधीन प्रदत्त शक्ति कार्यवाहियों को स्थगित करने के लिये न्यायालय की किसी अन्य शक्ति के अतिरिक्त है।
नियम 6 सरकार के विरुद्ध वाद से सम्बन्ध रखने वाले प्रश्नों का उत्तर देने योग्य व्यक्ति की हाजिरी-
न्यायालय किसी ऐसे मामले में जिसमें सरकारी प्लीडर के साथ सरकार की ओर से ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है, जो वाद सम्बन्धी किन्हीं भी तात्विक प्रश्नों का उत्तर देने में समर्थ हो, ऐसे व्यक्ति की हाजिरी के लिये भी निर्देश दे सकेगा।
नियम 7 समय का इसलिए बढ़ाया जाना कि लोक अधिकारी सरकार से निर्देश करके पूछ सके-
(1) जहां प्रतिवादी कोई लोक-अधिकारी है और समय मिलने पर वह यह उचित समझता है कि वाद-पत्र का उत्तर देने से पूर्व वह बात सरकार को निर्देशित की जाये। वहां वह न्यायालय से आवेदन कर सकेगा कि समन में नियत समय उसके लिये इतना बढ़ा दिया जाये जितना उसे उचित प्रणाली द्वारा ऐसा निर्देश करने के और उस पर आदेश प्राप्त करने के लिये आवश्यक है।
(2) न्यायालय ऐसे आवेदन पर उस समय को उतना बढ़ा देगा, जितना उसे आवश्यक प्रतीत हो।
नियम 8 लोक-अधिकारी के विरुद्ध वादों में प्रक्रिया-
(1) जहां किसी लोक अधिकारी के विरुद्ध किसी वाद की प्रतिरक्षा करने का जिम्मा सरकार लेती है, वहां सरकारी प्लीडर उपसंजात होने और वाद-पत्र का उत्तर देने का प्राधिकार दिये जाने पर न्यायालय से आवेदन करेगा और न्यायालय ऐसे आवेदन पर उसके प्राधिकार का टिप्पण सिविल वादों को रजिस्टर में प्रविष्ट करायेगा।
(2) जहां उस दिन को जो प्रतिवादी के उपसंजात होने और उत्तर देने के लिये सूचना में नियत हैं, या उस दिन के पूर्व कोई आवेदन सरकारी प्लीडर द्वारा उपनियम (1) के अधीन नहीं किया जाये वहां मामला ऐसे चलेगा जैसे वह प्राइवेट पक्षकारों के बीच चलता है-
परन्तु,
प्रतिवादी की गिरफ्तारी या उसकी सम्पत्ति की कुर्की डिक्री के निष्पादन में ही की जा सकेगी, अन्यथा नहीं।
नियम 8 'क' कुछ मामलों में सरकार से या लोक- अधिकारी से कोई प्रतिभूति अपेक्षित न की जायेगी-
सरकार से या जहां सरकार ने वाद की प्रतिरक्षा का जिम्मा लिया है। वहां किसी ऐसे लोक अधिकारी से जिस पर किसी ऐसे कार्य के बारे में वाद लाया गया है, जिसके सम्बन्ध में यह अभिकथित किया गया है कि वह उसने अपनी पदीय हैसियत में किया है, आदेश 41 के नियम 5 और 6 में यथावर्णित प्रतिभूति की अपेक्षा नहीं की जायेगी।नियम 8 'ख' 'सरकार' और 'सरकारी प्लीडर' की परिभाषा से संबंधित है।
प्रश्न-
सिविल प्रक्रिया संहिता में नोटिस के सम्बन्ध में क्या प्रावधान है? क्या बिना नोटिस के भी वाद संस्थित किया जा सकता है? क्या नोटिस में तकनीकी त्रुटि से न्यायोचित दावे विफल हो जायेंगे? विवेचना कीजिए। (UPCJ 1997)
सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 80 के अधीन नोटिस में कौन-कौन से तथ्य आवश्यक है? यदि यह सूचना न दी गई हो, तो केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकार, अथवा उनके कर्मचारियों के विरुद्ध दायर किए गये वादों पर क्या प्रभाव पड़ेगा? (UPCJ 1985)
सिविल प्रक्रिया संहिता में सरकार अथवा उसके कर्मचारी के विरुद्ध वाद प्रस्तुत करने के लिए कौन सी विशेष प्रक्रिया है?(यूपीसीजे 1987)
सिविल प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत किन उपबन्धों के अनुसार, सरकार तथा लोक अधिकारी के द्वारा तथा विरुद्ध में वाद किए जा सकते हैं? (BCJ 2006)
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 80 में विहित 'सूचना' के नियम को समझाइये। (यूपीसीजे 1997)
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