अनुपूरक कार्यवाही-(धारा 94,95)सीपीसी
अनुपूरक कार्यवाही-
सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 94 एवं 95 में अनुपूरक कार्यवाहियों के बारे में उपबंध किया गया है।
जब कोई पक्षकार डिक्री से बचना चाहता है, या डिक्री के निष्पादन में विलम्ब या अवरोध उत्पन्न करना चाहता है या न्याय को विफल करना चाहता है, वहां न्यायालय ऐसा नहीं होने देगा और इस उद्देश्य हेतु उचित कार्यवाही करेगा और ऐसी उचित कार्यवाही करने की शक्ति न्यायालय को प्रदान की गई है। वे धारायें जो न्यायालय को ऐसी शक्ति प्रदान करती हैं, वे अनुपूरक कार्यवाहियाँ कहलाती हैं, जिनका धारा 94 और 95 तथा आदेश 38, 39 एवं 40 में उल्लेख किया गया है।
अनुपूरक कार्यवाहियों के सन्दर्भ में धारा 94 सामान्य नियम प्रतिपादित करते हुए यह प्रावधान करती है कि न्यायालय न्याय के उद्देश्यों को विफल किया जाने से निवारित करने के लिये उन दशाओं में जिसमें ऐसा करना विहित हो-
(क) प्रतिवादियों को गिरफ्तार करने के लिए और न्यायालय के सामने उसको इस बात का हेतुक दर्शित करने के लिए लाए जाने के लिए कि उसे अपने उपसंजात होने के लिए प्रतिभूति क्यों नहीं देनी चाहिए, वारण्ट निकाल सकेगा और यदि वह प्रतिभूति के लिए दिए गए किसी आदेश का अनुपालन करने में असफल रहता है, तो उसे सिविल कारागार को सुपुर्द कर सकेगा।
(ख) प्रतिवादी को अपनी कोई सम्पत्ति पेश करने के लिए प्रतिभूति देने का और उस सम्पत्ति को न्यायालय के नियंत्रणाधीन रखने का निदेश दे सकेगा या किसी सम्पत्ति कुर्की आदिष्ट कर सकेगा।
(ग) अस्थायी व्यादेश अनुदत्त कर सकेगा और अवज्ञा की दशा में उसके दोषी व्यक्ति को सिविल कारागार को सुपुर्द कर सकेगा और आदेश दे सकेगा कि उसकी सम्पत्ति कुर्क की जाए और उसका विक्रय किया जाय।
(घ) किसी सम्पत्ति का रिसीवर नियुक्त कर सकेगा और उसकी सम्पत्ति को कुर्क करके और उसका विक्रय करके उसके कर्तव्यों का पालन कर सकेगा,
(च) ऐसे अन्य अन्तर्वती आदेश कर सकेगा जो न्यायालय को न्यायसंगत और सुविधापूर्ण प्रतीत हों।
धारा 94 के अन्तर्गत जिन अनुपूरक कार्यवाहियों का वर्णन किया गया है। वे निम्न हैं-
(1) निर्णय के पूर्व की गिरफ्तारी
(2) निर्णय के पूर्व कुर्की
(3) अस्थायी व्यादेश
(4) किसी सम्पत्ति का रिसीवर नियुक्त करना
(5) अन्तर्वर्ती आदेश जारी करना
(1) निर्णय से पूर्व गिरफ्तारी -
सामान्यतया जब वाद में डिक्री पारित कर दी जाती है तभी उस डिक्री के निष्पादन में निर्णीत-ऋणी गिरफ्तार किया जा सकता है (आदेश 21)। परन्तु संहिता का आदेश 38 प्रतिवादी को निर्णय से पूर्व गिरफ्तारी एवं उसकी सम्पत्ति की कुर्की का उपबन्ध करती है।
संहिता के आदेश 38 नियम 1 से 4 तक में निर्णय से पूर्व गिरफ्तारी का उपबन्ध किया गया है।
आदेश 38 नियम 1-
(1) जहां वाद के किसी भी प्रक्रम पर शपथ-पत्र द्वारा या अन्यथा न्यायालय को यह समाधान हो जाता है कि प्रतिवादी-
(i) वाद को विलम्बित करने
(ii) न्यायालय की आदेशिका से बचने
(iii) अपने विरुद्ध पारित की जाने वाली आज्ञप्ति के निष्पादन में अवरोध पैदा करने के आशय से-
(क) न्यायालय के क्षेत्राधिकार की स्थानीय सीमाओं से फरार हो गया है, या उसे छोड़कर बाहर चला गया है, या
(ख) फरार होने वाला है या न्यायालय की स्थानीय क्षेत्राधिकार को छोड़कर बाहर जाने वाला है, या
(ग) अपनी सम्पत्ति को या उसके किसी भाग को व्ययनित कर चुका है या न्यायालय की स्थानीय क्षेत्राधिकार से हटा चुका है, या
(घ) भारत से बाहर जाने वाला है।
(2) प्रतिवादी ऐसी परिस्थितियों में भारत छोड़ने वाला है, जिससे यह पूरी सम्भावना है कि वादी किसी ऐसी डिक्री के वाद में जो प्रतिवादी के विरुद्ध पारित की जायेगी उसके निष्पादन में बाधा उत्पन्न करेगा या विलम्ब करेगा,
वहाँ न्यायालय प्रतिवादी की गिरफ्तारी के लिये निर्णय से पूर्व वारण्ट जारी कर सकेगा। परन्तु अगर वाद संहिता की धारा 16 के खण्ड (क) से (घ) में निर्दिष्ट वाद है तो निर्णय से पूर्व गिरफ्तारी का वारण्ट नहीं जारी किया जा सकेगा।
(2) निर्णय से पूर्व कुर्की-
सामान्यतया किसी की सम्पत्ति डिक्री के निष्पादन में ही कुर्क की जा सकती है, किन्तु आदेश 38, नियम 5 के उपबंधों के अधीन प्रतिवादी की सम्पत्ति निर्णय से पूर्व कुर्की की जा सकेगी-
आदेश 38 नियम-5-जहां वाद के किसी प्रक्रम पर न्यायालय का शपथ-पत्र द्वारा या अन्यथा यह समाधान हो जाता है कि प्रतिवादी ऐसी किसी डिक्री के, जो उसके विरुद्ध पारित की जाये। उसके निष्पादन को बाधित या विलम्बित करने के आशय से-
(1) अपनी पूरी सम्पत्ति या उसके किसी भाग को व्ययनित करने वाला है,
(ii) अपनी पूरी सम्पत्ति या उसके किसी भाग को न्यायालय की अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं से हटा देने वाला है।
वहां न्यायालय प्रतिवादी को यह आदेश दे सकेगा कि-
(1) वह हेतु सन्दर्शित करे कि वह प्रतिभूति क्यों न दे, और
(ii) वह उक्त सम्पत्ति को या उसके मूल्य को या किसी पर्याप्त भाग को प्रस्तुत करने का न्यायालय के व्ययनाधीन के लिये प्रत्याभूति दे, तथा
(iii) आदेश में उल्लिखित सम्पत्ति को सशर्त कुर्की का आदेश दे सकेगा।
नियम-6- जहां प्रतिवादी न्यायालय में दावा के लिये नियत समय के भीतर यह हेतुक दर्शित करने में असफल रहता है कि उसे प्रतिभूति क्यों नहीं देनी चाहिये या अपेक्षित प्रतिभूति देने में असफल रहता है, वहां न्यायालय यह आदेश दे सकेगा कि विनिर्दिष्ट सम्पत्ति या उसका ऐसा भाग जो डिक्री को तुष्ट करने के लिये पर्याप्त प्रतीत होता है कुर्क कर लिया जाये।
शंकर राम बनाम श्याम नन्दन त्रिपुरा के वाद में त्रिपुरा उच्च न्यायालय ने निर्णीत किया कि निर्णय से पूर्व कुर्की तथा प्रापक की नियुक्ति से पूर्व प्रतिवादी को कारण दिखाओ की सूचना देना आवश्यक है।
(3) अस्थायी व्यादेश - व्यादेश दो प्रकार के होते हैं- अस्थायी और शाश्वत। अस्थायी व्यादेश आदेश 39 के नियम (1) (2) से विनियमित होते हैं, शाश्वत व्यादेश विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 38-42 से विनियमित होते हैं।
निम्नलिखित अवस्थाओं पर व्यादेश जारी किया जा सकता है-
(1) जहाँ किसी वाद में शपथ-पत्र द्वारा या अन्यथा यह साबित कर दिया जाता है कि-
(क) विवादित सम्पत्ति के बारे में, यह खतरा है कि वाद का कोई भी पक्षकार उसका दुर्व्ययन करेगा, उसे नुकसान पहुंचायेगा या अन्यसंक्रांत करेगा या डिक्री के निष्पादन में उसका सदोष विक्रय कर दिया जायेगा, अथवा
(ख) प्रतिवादी अपने लेनदारों को कपट-वंचित करने की दृष्टि से अपनी सम्पत्ति को हटाने या व्ययनित करने की धमकी देता है या ऐसा आशय रखता है, अथवा
(ग) प्रतिवादी वादी को वाद में विवादित किसी सम्पत्ति से बेकब्जा करने की या वादी को उस सम्पत्ति के सम्बन्ध में अन्यथा, क्षति पहुंचाने की धमकी देता है, वहां न्यायालय ऐसे कार्य को अवरुद्ध करने के लिये आदेश द्वारा अस्थायी आदेश जारी कर सकेगा।
(4) रिसीवर की नियुक्ति-
धारा 94 के अन्तर्गत न्यायालय रिसीवर की नियुक्ति कर सकते हैं। रिसीवर की नियुक्ति की प्रक्रिया और नियम आदेश 40 में दिये गये हैं।
आदेश 40 नियम 1-
(1) जहां न्यायालय को यह न्यायसंगत और सुविधापूर्ण प्रतीत होता है, वहां न्यायालय आदेश द्वारा-
(क) किसी सम्पत्ति का रिसीवर चाहे डिक्री पारित होने के पहले या पश्चात् नियुक्त कर सकेगा,
(ख) किसी सम्पत्ति पर से किसी व्यक्ति का कब्जा या अभिरक्षा हटा सकेगा,
(ग) उसे रिसीवर के कब्जे, अभिरक्षा या प्रबन्ध के सुपुर्द कर सकेगा, तथा
(घ) वाद संस्थित करने और वादों में बचाव करने के बारे में और सम्पत्ति के आपन, प्रबन्ध, संरक्षण और सुधार उसके भाटकों और लाभों के संग्रहण, ऐसे भाटकों और लाभों के उपयोजन और व्ययन तथा दस्तावेजों के निष्पादन के लिये सभी ऐसी शक्तियां जो स्वयं स्वामी की हैं, या उन शक्तियों में से ऐसी शक्ति जो न्यायालय ठीक समझे, रिसीवर को प्रदत्त कर सकेगा।
(5) अन्तर्वर्ती आदेश-
अन्तर्वर्ती आदेश जारी करते समय न्यायालय को यह ध्यान में रखना चाहिए और यह उसका कर्तव्य भी है कि ऐसे आदेश से कहीं पक्षकारों के अधिकारों को कोई खतरा न उत्पन्न हो जाये और ऐसा करने से न्याय न विफल हो।
अन्तर्वर्ती आदेश को लेकर उच्चतम न्यायालय ने यू. पी. जूनियर डाक्टर्स एक्शन कमेटी बनाम बी. सी. एल. नन्दवानी 1992 सु. को. नामक वाद में यह अभिनिर्धारित किया है कि व्यवहार एवं प्रक्रिया का यह बहुचर्चित नियम है कि अन्तर्वर्ती प्रक्रम पर एक अनुतोष जो मांगा गया है और मामले के निपटारे पर प्राप्त है.... नहीं प्रदत्त किया जाना चाहिए। इस नियम को लागू करते हुये उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अस्थायी प्रवेश की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए जब तक कि उसके लिये विशेष कारण न हो। तकनीकी पाठ्यक्रमों में तो और नहीं दिया जाना चाहिए।
धारा-95 अपर्याप्त आधारों पर गिरफ्तारी, कुर्की या व्यादेश प्राप्त करने के लिये प्रतिकर-
जहां किसी वाद में, जिसमें इसके ठीक पहले की धारा के अधीन कोई गिरफ्तारी या कुर्की कर ली गयी है या अस्थायी व्यादेश दिया गया है-
(क) न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि ऐसी गिरफ्तारी, कुर्की या आदेश के लिये आवेदन अपर्याप्त आधारों पर दिया गया था, अथवा
(ख) वादी का वाद असफल हो जाता है और न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि उसके संस्थित किये जाने के लिये कोई युक्तियुक्त या अधिसम्भाव्य आधार नहीं था, वहां प्रतिवादी न्यायालय से आवेदन कर सकेगा और न्यायालय ऐसे आवेदन पर अपने आदेश द्वारा पचास हजार रुपये से अनधिक इतनी रकम वादी के विरुद्ध अधिनिर्णीत कर सकेगा, जितना कि वह प्रतिवादी के लिये उसके द्वारा किये गये व्यय के लिये या उसे हुई क्षति के लिये (जिसके अन्तर्गत प्रतिष्ठा को हुई क्षति भी है) युक्तियुक्त प्रतिकर समझे-
परन्तु,
न्यायालय अपनी धन-सम्बन्धी अधिकारिता की परिसीमाओं से अधिक रकम इस धारा के अधीन अधिनिर्णीत नहीं करेगा।
(2) ऐसे किसी आवेदन का अवधारण करने वाला आदेश ऐसी गिरफ्तारी, कुकीं या व्यादेश के सम्बन्ध में प्रतिकर के लिये किसी भी वाद का वर्जन करेगा।
बैंक ऑफ इण्डिया बनाम लक्ष्मीमनि दास 2000 सु. को. के वाद में कहा गया कि इस धारा के अधीन जो उपाय बताये गये हैं, वह वैकल्पिक है। प्रतिवादी अगर चाहे तो विधिवत वादी के विरुद्ध प्रतिकर के लिये वाद संस्थित कर सकता है भले ही उसने पहले इस धारा का अवलम्बन लिया हो। किन्तु शर्त यह है कि उसकी गिरफ्तारी कुर्की और व्यादेश दोषपूर्ण था। किन्तु इस धारा के अधीन आवेदन पर प्रतिकर प्राप्त कर, असन्तुष्ट रहने की स्थिति में और अधिक प्रतिकर के लिए अलग से वाद नहीं लाया जा सकता।
रामप्रकाश अरोरा एवं अन्य बनाम एम. एल. खन्ना 1983 एन. ओ. सी. (दिल्ली) के वाद में कहा गया कि अगर प्रतिवादी पचास हजार रुपये से ज्यादा प्रतिकर चाहता है तो उसके लिये उपाय धारा 95 के अधीन नहीं है, उसे अलग से वाद संस्थित करना होगा। प्रतिकर के लिये नियमित वाद धारा 95 के अनुसार वर्जित नहीं है।
👉 प्रश्न-
👉 निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए-
(क) अनुपूरक कार्यवाहियाँ
(ख) अपर्याप्त आधारों पर गिरफ्तारी, कुर्की या व्यादेश प्राप्त करने के लिए प्रतिकर
👉 संहिता की धारा 95 के अनुसार क्या अपर्याप्त आधारों पर गिरफ्तारी या कुर्की या अस्थाई व्यादेश अभिप्राप्त किये जाने पर प्रतिवादी को प्रतिकर प्रदान किया जा सकता है? यदि हां तो कितना?
👉 किन परिस्थितियों में निर्णय से पूर्व गिरफ्तारी एवं कुर्की की जा सकेगी? क्या अपर्याप्त आधार पर गिरफ्तारी एवं कुर्की के लिए प्रतिकर प्रदान किया जा सकता है?
👉 प्रतिवादी को किन परिस्थितियों में निर्णय के पूर्व गिरफ्तार किया जा सकता है और गिरफ्तारी का आदेश कब किया जा सकता है? इस प्रकार की गिरफ्तारी की प्रक्रिया को समझाइए।
👉 निर्णय पूर्व गिरफ्तारी एवं कुर्की से संबंधित संहिता के प्रावधानों पर प्रकाश डालिए।
👉 प्रतिवादी की सम्पत्ति किन परिस्थितियों में निर्णय के पूर्व ही कुर्क की जा सकती है? ऐसी कुर्की किस प्रक्रिया के अन्तर्गत की जाएगी? समझाइए।
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