दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 - जमानती अपराध, आरोप, परिवाद , जाँच, अन्वेषण.


 जमानतीय अपराध धारा 2 (क)-


 (Bailable Offence) - जमानतीय अपराध' से ऐसा अपराध अभिप्रेत है जो प्रथम अनुसूची में जमानतीय के रूप में दिखाया गया है या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि द्वारा जमानतीय बनाया गया है और 'अजमानतीय अपराध' से कोई अन्य अपराध अभिप्रेत है।

मोती राम बनाम मध्य प्रदेश राज्य 1978 एस.सी. के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिमत प्रकट किया कि वस्तुतः जमानत एक नियम है तथा निरोध उसका एक अपवाद है।

वस्तुतः जमानतीय अपराध की दशा में अभियुक्त जमानत की मांग साधिकार कर सकता है किन्तु अजमानतीय अपराध की दशा में वह जमानत की मांग अधिकार के रूप में नहीं कर सकता है अपितु न्यायालय के विवेक पर उसे जमानत पर छोड़ा जा सकता है।

(ख) आरोप (Charge) (धारा 2 (ख)- 

'आरोप' के अन्तर्गत, जब आरोप में एक से अधिक शीर्ष हो, आरोप का कोई भी शीर्ष है।

सामान्यतः आरोप किसी अपराध के विचारण की सर्वप्रमुख सारभूत अपेक्षा है क्योंकि आरोप के प्रतिप्रेषण के बिना विचारणा संभव ही नहीं है। यह ऐसा दस्तावेज होता है जिसके द्वारा अभियुक्त को इस बात की सूचना होती है कि उसके विरुद्ध अमुक कथित अपराध का अभियोग है। वस्तुतः प्रतिरक्षा के क्रम के अनुसार भी आरोप का महत्व व्यापक होता है। संक्षिप्त विचारण के मामले के सिवाय सभी मामलों में विचारण की प्रक्रिया आरोप विरचित (तैयार) किए जाने के बाद ही प्रारंभ होती है। आरोप अभियुक्त के नाम से सम्बोधित होना चाहिए।

(ग) परिवाद (Complaint) [धारा 2 (घ)

 - 'परिवाद' से इस संहिता के अधीन मजिस्ट्रेट द्वारा कार्यवाही किये जाने की दृष्टि से मौखिक या लिखित रूप में उससे किया गया यह अधिकथन अभिप्रेत है कि किसी व्यक्ति ने, चाहे वह ज्ञात हो या अज्ञात् अपराध किया है, किन्तु इसके अन्तर्गत पुलिस रिपोर्ट नहीं है।

स्पष्टीकरण-

ऐसे किसी मामले में, जो अन्वेषण के पश्चात् किसी असंज्ञेय अपराध का किया जाना प्रकट करता है, पुलिस अधिकारी द्वारा की गई रिपोर्ट परिवाद समझी जायेगी और वह पुलिस अधिकारी जिसके द्वारा ऐसी रिपोर्ट की गयी है, परिवादी समझा जाएगा।

सामान्यतया किसी अपराध के घटित होने के पश्चात् व्यक्ति को दो विकल्प प्राप्त होते हैं। प्रथम अपराध के घटित होने की शिकायत पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को दी जाए अथवा द्वितीय अपराध के घटित होने की शिकायत मजिस्ट्रेट को की जाए।

राम मनोहर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 1979 के वाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि प्राइवेट व्यक्ति द्वारा असंज्ञेय अपराध के संदर्भ में दायर परिवाद पुलिस अधिकारी के समक्ष की गयी रिपोर्ट के समान है। जहाँ अपराध का अन्वेषण पुलिस अधिकारी द्वारा मजिस्ट्रेट की अनुज्ञा से किया गया है, वहाँ मजिस्ट्रेट धारा 256 (1) के परन्तुक के अधीन परिवादी को निजी हाजिरी से अभिमुक्ति दे सकता है।

मोहम्मद युसूफ बनाम श्रीमती आफाक जहान 2006 एस.सी. के वाद में यह अभिनिर्धारित किया गया कि एक ऐसी याचिका जो मजिस्ट्रेट को इस सूचना के साथ संबोधित की जाती है कि कोई अपराध घटित हुआ है तथा जो प्रार्थना के साथ समाप्त होती है कि दोषी व्यक्ति/व्यक्तियों के विरुद्ध उचित कार्यवाही की जाय 'परिवाद' कहलाता है।

प्रकाश सिंह बादल बनाम पंजाब राज्य 2007 एस. सी. के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिकथन किया कि केवल इस आधार पर कि परिवाद राजनीतिक विरोधी द्वारा दायर किया गया है, मजिस्ट्रेट को उसकी अनदेखी नहीं करना चाहिए और न धारणा बना लेनी चाहिए कि परिवाद में लगाये गये आरोप में कोई सार नहीं है।

(घ) जांच (Inquiry) (धारा 2 (छ)] - 

'जाँच' से अभिप्रेत है विचारण से भिन्न, ऐसी प्रत्येक जांच जो इस संहिता के अधीन मजिस्ट्रेट या न्यायालय द्वारा की जाय।

शम्भू नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य 1985 पटना के वाद में अभिनिर्धारित किया गया कि जहाँ मजिस्ट्रेट किसी अभियुक्त के विरुद्ध पेश की गयी रिपोर्ट पर विचार कर लेता है, तो मामले के संज्ञान की पूर्णता को परिकल्पित किया जाएगा तथा उसे धारा 2 (छ) के अर्थान्तर्गत जांच माना जाएगा। जांच का कार्य केवल मजिस्ट्रेट या न्यायालय द्वारा ही किया जा सकता है इसलिए पुलिस अधिकारी द्वारा किये जाने वाले अन्वेषण का कार्य वस्तुतः जांच की कोटि में नहीं आएगा क्योंकि वा अन्वेषण का ही भाग होता है न कि जांच का।

(ङ) अन्वेषण (Investigation) (धारा 2 (ज)] -

 'अन्वेषण' के अन्तर्गत वे सब कार्यवाहियों सम्मिलित हैं जो इस संहिता के अधीन पुलिस अधिकारी द्वारा या (मजिस्ट्रेट से भिन्न) किसी भी ऐसे व्यक्ति द्वारा जो मजिस्ट्रेट द्वारा इस निमित्त प्राधिकृत किया गया है, साक्ष्य एकत्र करते के लिए की जाए।

अन्वेषण की कार्यवाही में मुख्यतया निम्नलिखित कार्यवाहियाँ सम्मिलित होती हैं-

(1) अपराध स्थल का निरीक्षण

(2) मामले एवं घटना से संबंधित सभी तथ्य एवं परिस्थितियों का अभिनिश्चयन

(3) नामनिदेशित या संदेहित व्यक्ति की गिरफ्तारी तथा उससे पूछताछ

(4) अपराध कारित होने से संबंधित सभी महत्वपूर्ण साक्ष्यों का संग्रहण

(5) इस तथ्य पर राय कि संग्रहीत सामग्री के आधार पर किसी आरोप का युक्तिसंगत आधार बनता है या नहीं तथा उक्त राय के आधार पर अपनी रिपोर्ट का दंडाधिकारी के समक्ष प्रतिप्रेषण।


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