दण्ड प्रक्रिया संहिता के अधीन दण्ड न्यायालयों के कितने वर्ग बताये गये हैं। उल्लेख कीजिए ।
दण्ड प्रक्रिया संहिता के अधीन दण्ड न्यायालयों के कितने वर्ग बताये गये हैं। उल्लेख कीजिए ।
दण्ड न्यायालयों की पुर्नसंशोधित व्यवस्था तथा कार्यपालक और न्यायिक मजिस्ट्रेटों बीच मजिस्ट्रेटों के कृत्यों का आवंटन न्यायपालिका का कार्यपालिका से पृथक्करण के आशय से किया गया है। जिन राज्यों में सुधार को लागू किया गया था, उन्होंने जो पद्धति अपनाई थी, उससे मार्गदर्शित होकर इस संहिता के उपबन्ध रचे गए थे।
इस प्रकार के पृथक्करण के फलस्वरूप मजिस्ट्रेटों के दो प्रवर्ग है, अर्थात् न्यायिक मजिस्ट्रेट और कार्यपालक मजिस्ट्रेट। न्यायिक मजिस्ट्रेट उच्च न्यायालय के नियन्त्रण के अधीन होते हैं और अधिकारिता का कार्यपालक मजिस्ट्रेट राज्य सरकार के नियन्त्रण के अधीन होते हैं।
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 6 में दण्ड न्यायालय के वर्ग बताये गये हैं-
धारा 6 दण्ड न्यायालयों के वर्ग-
उच्च न्यायालयों और इस संहिता से भिन्न किसी विधि के अधीन गठित न्यायालयों के अतिरिक्त, प्रत्येक राज्य में निम्नलिखित वर्गों के दण्ड न्यायालय होंगे,
अर्थात् -
(1) सेशन न्यायालय
(2) प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट और किसी महानगर क्षेत्र में महानगर मजिस्ट्रेट
(3) द्वितीय वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट, और
(4) कार्यपालक मजिस्ट्रेट
दण्ड न्यायालय 4 वर्गों में विभाजित हैं, लेकिन वास्तव में ऐसे वर्ग इससे अधिक हैं। उपर्युक्त न्यायालय निम्नलिखित वर्गों में विभाजित हैं- (1) सेशन न्यायालय (2) प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट (3) द्वितीय वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट (4) महानगर क्षेत्र में महानगर मजिस्ट्रेट और (5) कार्यपालक मजिस्ट्रेट।
इसके अतिरिक्त 'इस संहिता से भिन्न किसी अन्य विधि के अधीन' भी न्यायालय गठित किये जा सकते हैं।
उदाहरणार्थ प्रेसीडेन्सी नगरों में कारोनर्स अधिनियम (1871 का IV) द्वारा कारोनर्स न्यायालय और कैण्टोनमेंट अधिनियम, (1924 का II) के अधीन कैण्टनमेंट मजिस्ट्रेट के न्यायालय गठित किए गए। भारतीय संविधान में कुछ आपराधिक मामलों का निपटारा करने की शक्ति उच्चतम न्यायालय को दी गई है (संविधान के अनुच्छेद 132, 134 और 136)।
पीपुल्स पेट्रियाटिक फ्रंट बनाम के. के. बिरला 1984 क्रि. लॉ. ज. (दिल्ली) के वाद में यह विनिश्चित किया गया कि यद्यपि भारतीय दण्ड विधान के अनुसार उच्च न्यायालय को अपने क्षेत्राधीन किसी भी अपराध के विचारण की अधिकारिता है, तथापि जो अपराध सामान्यतः किसी अधीनस्थ न्यायालय द्वारा विचारणीय हो, उसका अन्तरण उच्च न्यायालय को किया जाना उचित नहीं होगा।
लोक अभियोजक बनाम सदानन्द पन्त की 13 क्रि. लॉ. ज. (850) के वाद में कहा गया कि डिप्टी मजिस्ट्रेट, ज्वाइंट मजिस्ट्रेट, जनरल डिप्टी मजिस्ट्रेट इत्यादि शब्द संहिता में परिभाषित नहीं है।
क्वीन इम्परर बनाम रतन लाला अन. कि. केसेज के वाद में कहा गया कि पुलिस पटेल के न्यायालय को इस संहिता के भावाबोध में आपराधिक न्यायालय नहीं माना गया है।
कोई टिप्पणी नहीं
एक टिप्पणी भेजें