लोक अभियोजक एवं विशेष लोक अभियोजक -दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 24 में लोक अभियोजक एवं विशेष लोक अभियोजक की नियुक्ति के संबंध में आवश्यक उपबंध किया गया है-
धारा 24 के अनुसार, राज्य सरकार या केन्द्र सरकार उच्च न्यायालय के परामर्श से उस उच्च न्यायालय के लिए एक लोक अभियोजक तथा अपर लोक अभियोजक की नियुक्ति कर सकेगी। उपधारा 8 के अधीन केन्द्रीय सरकार या राज्य सरकार किसी मामले या किसी श्रेणी के मामले के प्रयोजन के लिए किसी ऐसे व्यक्ति को जिसने कम से कम दस वर्ष तक विधि व्यवसाय का कार्य किया हो, विशेष लोक अभियोजक के रूप में नियुक्त कर सकती है।
योग्यताएँ -
केवल उसी व्यक्ति को लोक अभियोजक तथा अपर लोक अभियोजक के पद पर नियुक्त किया जा सकेगा जिसने कम से कम सात वर्ष तक अधिवक्ता के रूप में विधि व्यवसाय किया हो।
क्वीन इम्परर बनाम माधो आई. एल. आर. इला. इलाहाबाद के वाद में अभिनिर्धारित किया कि सत्र न्यायालय में अभियोजन के संचालन हेतु जिला मजिस्ट्रेट द्वारा नियुक्त किये गये किसी भी व्यक्ति को धारा 321 के अधीन मामले को वापस लेने के संबंध में लोक अभियोजक की शक्ति नहीं होगी।
स्टेट ऑफ राजस्थान बनाम पुखराज 1965 राज. लॉ. बी. के वाद में कहा गया कि सरकार की ओर से उच्च न्यायालय में अभियोजन के संचालन हेतु नियुक्त किया गया व्यक्ति लोक अभियोजक की भांति आपराधिक अधिकारिता का प्रयोग मूल रूप से कर सकेगा।
राजेन्द्र शंकर त्रिपाठी बनाम उ.प्र. राज्य ए. आई. आर. 1978 इलाहाबाद के वाद में कहा गया कि लोक अभियोजक का पद एक लोकपद होता है, अतः इस पद की बाबत कोई भी रिट भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 के अधीन दायर की जा सकती है।
लोक अभियोजक के कार्य
उच्चतम न्यायालय ने शिवनन्दन पासवान बनाम बिहार राज्य ए. आई. आर. 1983 में को. के वाद में उक्त विषय पर यह अभिनिर्धारित किया कि लोक अभियोजक केन्द्र या राज सरकार की ओर से काउन्सिल के रूप में कार्य करता है। उसका पद अभियोजन के बाबत सृजित एक ऐसा पद होता है जिसके द्वारा उससे सदैव अभियोजन के संदर्भ में निष्पक्षता की अपेक्षा की जाती। अतः अपने पद की गरिमा एवं महत्व को समझते हुए उसे सदैव अपने कर्तव्यों का निर्धन उद्देश्यपरक रीति से करना चाहिए।
प्रभु दयाल गुप्ता बनाम राज्य 1986 क्रि. लॉ. ज. (दिल्ली) के वाद में यह अभिनिर्धारित किया गया कि अभियोजन को प्रस्तुत करने में लोक अभियोजक को दोनों पक्षों की ओर से शुद्ध आचरण युक्त होना चाहिए। उसे प्रकरण से संबंधित सभी सुसंगत सदस्यों को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए प्रस्तुत करना चाहिए।
कु. श्रीलेखा विद्यार्थी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 1991 एस.सी.सी. के वाद में लोक अभियोजक के पद के स्वरूप तथा उसके कार्यों की प्रकृति पर टिप्पणी करते हुए उच्चतम न्यायालय ने अभिकथन किया कि वह राज्य सरकार या केन्द्र सरकार की ओर से अभियोजन के संचालन में सरकार के परामर्शदाता के रूप में कार्य करता है। उसे अपना कार्य पूर्ण निष्पक्षता एवं न्यायोचित से संपादित करना चाहिए। अतः अभियोजन कार्यवाही के दौरान उससे यह अपेक्षा की जाती है। वह यह सुनिश्चित करे कि किसी निर्दोष व्यक्ति को व्यर्थ प्रताड़ित न किया जाए और साथ ही दोषी व्यक्ति दंडित होने से बचकर छूटने न पाए।
कोई टिप्पणी नहीं
एक टिप्पणी भेजें