गिरफ्तारी के बाद प्रक्रिया-
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 B, 50, 50 A, 51, 54, 55, 57, 59 में गिरफ्तारी की प्रक्रिया को बताया गया है जो गिरफ्तारी के समय एवं उसके बाद गिरफ्तार व्यक्ति के कानूनी अधिकार को नियंत्रित करती है।
धारा 41 'B' में किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने की प्रक्रिया एवं गिरफ्तार करने वाले व्यक्ति के कर्तव्य वर्णित है। गिरफ्तारी के ज्ञापन (Memorandum of Arrest) में गिरफ्तार व्यक्ति के घर के सदस्य द्वारा या किसी स्थानीय सम्मानित व्यक्ति के द्वारा सत्यापित होना चाहिए तथा यह उस पुलिस अधिकारी का यह कर्त्तव्य है कि गिरफ्तार व्यक्ति को यह बताए कि उसे अधिकार है कि उसके किसी दोस्त या संबंधी को गिरफ्तारी की सूचना दी जाए।
धारा-50 में उसे अपराध एवं गिरफ्तार करने के अन्य आधार का विवरण जानने का अधिकार है। यह संविधान के अनुच्छेद 22(1) द्वारा प्रत्याभूत एक संवैधानिक अधिकार है। इस संहिता की धारा 50 संविधान के अनुच्छेद 22(1) की समरूपता में है। यह धारा अमूल्य अधिकार प्रदान करती है और इसके अननुपालन (non-compliance) से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया की उपेक्षा होती है। (गोविन्द्र प्रसाद बनाम पश्चिम बंगाल राज्य 1975)
धारा 50 'क' गिरफ्तार करने वाले व्यक्ति पर यह जिम्मेदारी डालती है कि गिरफ्तार व्यक्ति द्वारा नामित व्यक्ति को उसके गिरफ्तारी की सूचना दे, कि किस जगह से उसे गिरफ्तार किया जा रहा है और गिरफ्तार व्यक्ति का अधिकार कि उसे थाना ले जाया जाय।
धारा 51 में पुलिस अधिकारी गिरफ्तार किये गये व्यक्ति की तलाशी ले सकता है तथा पहनने के आवश्यक वस्त्रों को छोड़कर उसके पास पाई गई सभी वस्तुओं को सुरक्षित अभिरक्षा में रख सकता है। यदि गिरफ्तार किए गये व्यक्ति से कोई वस्तु अभिग्रहीत की गई है, तो पुलिस अधिकारी इस प्रकार अभिगृहीत वस्तुओं की रसीद गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को देगा।
धारा 54 के तहत गिरफ्तार करने वाले अधिकारी पर यह जवाबदेही है कि वह सुनिश्चित करें कि गिरफ्तार व्यक्ति को किसी सरकारी चिकित्सक को या निबंधित चिकित्सक से जांच कराया जाए।
धारा 55 के अन्तर्गत जहाँ पुलिस थाने का कोई भारसाधक अधिकारी अपने अधीनस्थ किसी अधिकारी से किसी व्यक्ति को वारण्ट के बिना गिरफ्तार करने की अपेक्षा करता है, वहाँ उस अधिकारी को लिखित आदेश देगा जिससे गिरफ्तारी की अपेक्षा की गई है।
धारा 57 के अन्तर्गत गिरफ्तार किये गये व्यक्ति को चौबीस घंटे से अधिक अवधि तक निरुद्ध नहीं रखा जाएगा। इस धारा में वर्णित यह उपबंध भारतीय संविधान के अनुच्छेद 22 (2) द्वारा प्रत्याभूत मूल अधिकार के समतुल्य है इसमें उपबंधित है कि प्रत्येक ऐसे व्यक्ति को जिसे गिरफ्तार किया गया है और अभिरक्षा में निरुद्ध रखा गया है, गिरफ्तारी के स्थान से मजिस्ट्रेट के न्यायालय तक यात्रा के लिए आवश्यक समय को छोड़कर ऐसी गिरफ्तारी से चौबीस घण्टे की अवधि में निकटतम मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाएगा और ऐसे किसी व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के प्राधिकार के बिना उक्त अवधि से अधिक अवधि तक निरुद्ध नहीं रखा जाएगा। यदि चौबीस घंटे में उसे मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश नहीं किया जाता है, तो उक्त दशा में निरुद्ध व्यक्ति को छोड़ दिया जाना आवश्यक हो जाएगा।
धारा 59 के अन्तर्गत पुलिस अधिकारी द्वारा पकड़े गये व्यक्ति को उन्मोचित किया जा सकता है। ऐसे व्यक्ति को या तो उसके स्वयं के बंधपत्र पर छोड़ा जा सकता है या फिर मजिस्ट्रेट के विशेष आदेश के अधीन उन्मोचित किया जा सकता है।
विन्देश्वरी महतो बनाम स्टेट 1973 पटना लॉ. ज. रि. के वाद में कहा गया कि यदि गिरफ्तारी के बाद गिरफ्तार किये गये व्यक्ति को आंतरिक आदेश की सूचना न दी जाकर केवल उसके सार से ही अवगत कराया जाता है, तो ऐसी अभिकथित धारणा के अन्तर्गत की गयी गिरफ्तारी अवैध नहीं होगी।
रमन राय बनाम सम्राट ए. आई. आर. 1942 इलाहाबाद के वाद में अभिनिर्धारित किया गया कि तलाशी केवल गिरफ्तारी के बाद ही ली जा सकती है, चाहे ऐसी गिरफ्तारी वारंट के अन्तर्गत की गई हो या वारंट के बिना।
भीमसिंह बनाम जम्मू-कश्मीर राज्य 1985 (4) एस. सी. सी. के वाद में विधानसभा के एक सदस्य को जानबूझकर अवैध रूप से गिरफ्तार करके विधान सभा सत्र में उपस्थित रहने से रोका गया था। उच्चतम न्यायालय ने इस प्रकरण में पुलिस के इस कार्य को भारतीय संविधान के अनुच्छेद (22) (2) का अतिलंघन माना तथा उक्त अवैध गिरफ्तारी के लिये जम्मू कश्मीर राज्य को यह निर्देश दिया कि वह याचिकाकर्ता को 50,000 रुपये का प्रतिकर क्षतिपूर्ति के रूप में दे।
जितेन्द्र सिंह बनाम स्टेट ऑफ उ.प्र. 2013 (9) SCALE के वाद में जब एक अवयस्क को वयस्क के तरह विचारण किया जा रहा था तो उसके अपील के दौरान सर्वोच्च न्यायालय में उसकी अवयस्कता का पता चला। यह कहा गया कि यदि उपर्युक्त प्रावधानों का पालन किया गया होता तो अवयस्क को वयस्क की तरह विचारण की संभावना कम की जा सकती है।
डी. के. बसु बनाम स्टेट ऑफ बंगाल ए. आई. आर. 1997 एस. सी. 610 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्णीत किया कि 'Custodial torture' मानव सम्मान एवं बहुत हद तक व्यक्ति के व्यक्तित्व का खुला हनन है।
डी. के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य और अन्य जुलाई 2015 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि राज्य सरकारें जेलों में और संवेदनशील पुलिस थानों में सी. सी. टी. वी. कैमरा लगवाने की व्यवस्था करें, मानवाधिकार न्यायालयों की स्थापना/विनिर्दिष्टीकरण सुनिश्चित करें, जेलों/पुलिस थानों के लिए नान आफिशियल विजिटर्स की नियुक्ति हेतु विचार करें, अभिरक्षा में मृत्यु या यातना के लिए दोषियों का अभियोजना सुनिश्चित करें।
प्रश्न-
गिरफ्तारी के बाद क्या प्रकिया अपनाई जाती है।
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