संविदा अधिनियम अवयस्क की संविदा की प्रकृति क्या है?
उत्तर-
प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार कोई भी व्यापार, व्यवसाय, कारोबार अथवा कार्य करने का अधिकार है। उसके इस अधिकार में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता। लेकिन इसके साथ ही यह भी ध्यान रखने योग्य है कि उसका यह अधिकार निरपेक्ष नहीं है अर्थात् यह भी प्रतिबन्धित है। कोई भी व्यक्ति किसी व्यापार, व्यवसाय, कारोबार अथवा कार्य के लिए किसी भी प्रकार का करार, अनुबन्ध अथवा संविदा भारतीय संविदा अधिनियम के प्रावधानों के अन्तर्गत रहकर ही कर सकता है। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि संविदा केवल वही व्यक्ति कर सकता है जो इसके लिए सक्षम है।
भारत में कोई ऐसा सांविधिक उपबन्ध नहीं है, जो इस बात का स्पष्ट उल्लेख करता हो कि अवयस्क द्वारा किया गया करार शून्य होगा अथवा शून्यकरणीय होगा। धारा 10 में केवल इतना स्पष्ट होता है कि संविदा के पक्षकार को संविदा करने में सक्षम होना चाहिए और धारा 11 से यह स्पष्ट हो जाता है कि अवयस्क संविदा करने के लिए सक्षम नहीं हैं। परन्तु दोनों ही धारायें यह स्पष्ट रूप से घोषित नहीं करती हैं कि यदि एक अवयस्क करार करता है तो वह शून्य अथवा शून्यकरणीय होगा।
सक्षम कौन है-
भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 11 में संविदा करने के लिए सक्षम व्यक्ति के बारे में प्रावधान किया गया है। इसके अनुसार-
हर ऐसा व्यक्ति संविदा करने के लिए सक्षम है जो उस विधि के अनुसार, जिसके वह अध्यधीन है, प्राप्तवय हो, और जो स्वस्थचित्त हो, और किसी विधि द्वारा जिसके वह अध्यधीन है, संविदा करने से निरर्हित न हो।"
स्वस्थचित्त क्या है- विधिमान्य संविदा के लिए पक्षकार का स्वस्थचित्त होना आवश्यक है। यदि संविवा करने वाला व्यक्ति विकृतचित्त है तो ऐसी संविदा शून्य होगी।
स्वस्थचित्त की कसौटी संविदा अधिनियम की धारा 12 के अनुसार, कोई व्यक्ति,
संविदा करने के प्रयोजन के लिये स्वस्थचित्त कहा जाता है। यदि वह उस समय, जब वह संविदा करता है, उस संविदा को समझने में और अपने हितों पर उसके प्रभाव के बारे में युक्तिसंगत निर्णय लेगे समर्थ है।
जो व्यक्ति प्रायः विकृतचित्त रहता है किन्तु कभी-कभी स्वस्थचित्त हो जाता है, वह जब स्वस्थचित्त हो तब संविदा कर सकेगा।
जो व्यक्ति प्रायः स्वस्थचित्त रहता है किन्तु कभी-कभी विकृतचित्त हो जाता है, वह जब विकृतचित्त हो, तब संविदा नहीं कर सकेगा।
दृष्टांत (क) पागलखाने का एक रोगी, जो कि अन्तरालों में स्वस्थचित्त हो जाता है, उन अन्तरालों के दौरान में संविदा कर सकेगा।
विधि द्वारा संविदा करने के लिये अयोग्य घोषित-
भारत में विदेशी शत्रु, विदेशी सम्प्रभु, सजा काटते हुये अपराधी भारतीय विधि के अन्तर्गत संविदा करने में अक्षम माने जाते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि अवयस्क विकृतचित्त तथा विधि द्वारा संविदा करने के लिये अयोग्य घोषित व्यक्ति संविदा करने में सक्षम हैं, लेकिन अवयस्क, विकृतचित्त व्यक्ति तथा निरर्हित व्यक्ति की अक्षमता के कारण उनके विधिक अधिकार प्रभावित नहीं होते हैं।
अवयस्क के विरुद्ध की गई संविदा शून्य होती है अर्थात् न्यायालय द्वारा प्रवर्तन नहीं कराया जा सकता है।
मोहरी बीबी बनाम धर्मोदास घोष 1903 के वाद में लार्ड नाथ ने कहा कि धारा 11 को देखते हुए हम सन्तुष्ट हैं कि अधिनियम यह अनिवार्य करता है कि संविदा करने वाले पक्ष संविदा- सक्षम हो और स्पष्ट रूप से प्रावधानित करता है कि जो व्यक्ति अवयस्क होने के कारण संविदा योग्य नहीं है, वह अधिनियम के अभिप्राय में संविदा नहीं कर सकता। संविदा शून्य है या शून्यकरणीय। यह प्रश्न तो तब उठता है, जब अधिनियम के अनुसार कोई संविदा हुई हो, और अवयस्क के संदर्भ में तो यह प्रश्न उठ ही नहीं सकता।
इस निर्णय की तिथि से इस बात पर कोई संदेह नहीं किया गया है कि अवयस्क द्वारा किया गया करार बिल्कुल शून्य होता है।
मोहरी बीवी के वाद में प्रिवी कौंसिल द्वारा बताया गया नियम अभी तक माना जा रहा है, चाहे कुछ स्थितियों में वह अवयस्क को ही लाभदायक नहीं सिद्ध होता। यह प्रिवी कौंसिल के एक दूसरे बाद मीर सरवन जान बनाम फखरूद्दीन मोहम्मद चौधरी 1912 से प्रतीत होता है। इस वाद में एक अवयस्क के लिए उसके संरक्षक ने कुछ अचल सम्पत्ति खरीदने की संविदा की और अवयस्क उस सम्पत्ति को प्राप्त करने के लिए वाद लाया, परन्तु असफल रहा।
प्रिवी कौंसिल के वाद के निर्णय, सुब्रह्मण्यम बनाम सुब्बा राव में ए. आई. आर. 1948 के वाद में पहले निर्णयों को न मानते हुए प्रतिपादित किया गया कि निःसंदेह अवयस्क की मां उसकी सम्पत्ति को उसके पिता के ऋणों के भुगतान के लिये बेच सकती है। इस निर्णय के आधार पर उड़ीसा उच्च न्यायालय दुर्गा ठकुरानी बनाम चिन्तामनी, ए. आई. आर. 1982 के बाद में प्रतिपादित किया कि अवयस्क के धार्मिक कार्यों की पूर्ति के लिए उसका संरक्षक उसकी सम्पत्ति बेच सकता है।
आधुनिक समाज की स्थितियों के अनुसार अब इस सिद्धान्त पर दृढ़ रहना कुछ सीमा तक असम्भव हो गया है। अवयस्कों को भी आजकल अनेकों कार्यों के लिए सामाजिक जीवन के क्षेत्र में उतरना पड़ता है। इसलिए प्रिवी कौंसिल ने अपने पहले निर्णयों को श्री काकुलम सुवद्याक बनाम कुर्रा सुब्बा राब 1948 में इस सिद्धान्त को कुछ शिथिल किया और निर्णीत किया अवयस्क ऐसी संविदा द्वारा बाध्य था जिसके अन्तर्गत उसकी माता ने विरासत से आई सम्पति विरासत से आये ऋण को चुकाने के लिए बेचा था।
अवयस्क का अर्थ - अवयस्क से तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से है जिसने वयस्कता की आयु 20 नहीं की है अर्थात् अवयस्क से ऐसे व्यक्ति से है जो वयस्क नहीं है।
अंग्रेजी विधि में एक व्यक्ति उस समय तक वयस्कता की आयु प्राप्त करता है जब कि वह 12 वर्ष की आयु पूरी कर लेता है अर्थात् अंग्रेजी विधि में 18 वर्ष की आयु वाला व्यक्ति वयस्क होता। [फेमिली लॉ रिफार्म एक्ट 1969, धारा 9 (1).
भारत में जब कोई व्यक्ति 18 वर्ष की आयु पूरी कर लेता है तो वयस्क हो जाता है। परन्तु यदि वयस्क के लिये अथवा उसकी सम्पत्ति के लिये न्यायालय द्वारा संरक्षक नियुक्त किया गया है तो वह उस समय वयस्क होगा जबकि 21 वर्ष की आयु पूरी कर लेता है। (इण्डियन मेजरिटी एक्ट, 1871 धारा 3)
अवयस्क के करार के परिणाम- क्योंकि अवयस्क का करार बिल्कुल शून्य होता है इसलिए यह स्वाभाविक रूप से बिल्कुल प्रभाव रहित होता है। यदि कोई संविदा ही नहीं है तो दोनों ओर कोई संविदात्मक दायित्व भी नहीं उत्पन्न होगा। इसलिए अवयस्क के करार के यदि कोई प्रभार हैं भी, तो वे संविदा से स्वतन्त्र ही होते हैं।
(1) अवयस्क के विरुद्ध विबन्ध नहीं होगा- कुछ मतभेद के उपरांत अब या निश्चित हो चुका है कि यदि कोई अवयस्क अपनी आयु के बारे में झूठ बोलकर भी संविदा करता है वह अपनी सही आयु बताकर छूट पा सकता है, उसके विरुद्ध कोई विबन्ध नहीं होता। तदनुसा बम्बई उच्च न्यायालय के एक प्रमुख बाद में मुख्य न्यायमूर्ति ब्यूमाण्ट ने गादिगेप्या भीमप्या बनाम बालन्गौडा भीमन्गौडा, ए. आई. आर. 1931 के वाद में कहा कि न्यायालय का विचार है कि यदि कोई अवयस्क कपटपूर्ण या अन्य कारणवश स्वयं को वयस्क बताता है और इस चाल से दूसरे व्यक्ति के साथ संविदा करता है तब यदि दूसरा व्यक्ति उस पर वाद लाता है तो अवयस्क अपनी सही आयु बताने से विबन्धित नहीं किया जा सकता।
(2) संविदा तथा संविदा सम्बन्धी दुष्कृति (tort) के अन्तर्गत कोई दायित्व नहीं - विधि के अनुसार, अवयस्क को सहमति देने योग्य नहीं समझा जाता और क्योंकि वह सहमति नहीं दे सकता इसलिए पक्षकारों की परिस्थिति पर कोई प्रभाव नहीं आता।
इंग्लैंड में जान्सन बनाम पार्ड 1665 में निर्णीत हुआ था, में प्रतिपादित किया गया था कि जो अवयस्क आयु के बारे में झूठ बोलकर ऋण लेता है उसे न तो संविदा भंग के लिए और न है दुष्कृति विधि में कपट के लिए दायी ठहराया जा सकता है।
न्यायालय ने कहा कि यदि अवयस्कों को संविदा भंग के लिए दुष्कृति विधि के अन्तर्गत दार्या ठहराया जा सकता तो न केवल संविदा विधि जो उन्हें सुरक्षा देना चाहती है, वही विफल होती बल्कि सभी बच्चे नष्ट हो जाते। इसलिए यह सिद्धान्त है कि किसी अवयस्क को किसी ऐसे कार्य के लिये दायी नहीं ठहराया जा सकता जो अप्रत्यक्ष रूप से उसे संविदा भंग के लिये दायी करेगा। "आप संविदा को दुष्कृति में बदलकर अवयस्क को दायी नहीं ठहरा सकते।" भारत में भी इस सिद्धान्त का माना गया है।
उदाहरणार्थ- कलकत्ता उच्च न्यायालय ने ऐसे अवयस्क को दुष्कृति विधि के अन्तर्गत दायी ठहराने से इन्कार कर दिया जिसने बॉण्ड भर कर ऋण लिया था। न्यायालय ने कहा कि यदि दुष्कृति सीधे ही संविदा से सम्बन्धित है और उसी को लागू करने का एक ढंग है या उसी सौदे का एक अंग है तो दुष्कृति विधि में भी अवयस्क दायी नहीं होगा।
जब दुष्कृति संविदा से स्वतंत्र हो तो अवयस्क अपने दायित्व से बच नहीं सकता चाहे संविदा का भी हस्तक्षेप हो। दुष्कृति विधि में अवयस्क होना कोई बचाव नहीं है। एक अवयस्क ने केवल सवारी के लिये घोड़ी किराये पर ली और उसे अपने मित्र को दे दिया जिसने उसे कुदाया और जिस कारण वह मर गई। अवयस्क को दायी ठहराया गया। कुदाना संविदा क्षेत्र से बाहर था, इसलिए स्वतन्त्र दुष्कृति थी।
(3) प्रत्यास्थापन का सिद्धान्त (Doctrine of Restitution) - यदि कोई अवयस्क अपनी आयु के बारे में झूठ बोल कर कुछ माल या सम्पत्ति खरीदता है तो जब तक ऐसी वस्तुएं उसके कब्जे में हैं, उससे वापस ली जा सकती हैं। इसे प्रत्यास्थापन का सिद्धान्त कहते हैं। संविदा शून्य होने के कारण स्वामित्व का अन्तरण नहीं होता और इसलिए माल उससे वापस लिया जा सकता है। जब अवयस्क ने माल बेच दिया हो या प्रयोग कर लिया हो तो उससे कुछ नहीं वसूला जा सकता क्योंकि ऐसी वसूली से तो शून्य संविदा प्रवर्तनीय हो जायेगी। प्रतिस्थापन का सिद्धान्त धन के सम्बन्ध में लागू नहीं होता और इसका प्रमाण लेसली (आर.) लि. बनाम शील 1914 में मिलता है। एक अवयस्क ने अपनी आयु के बारे में झूठ बोलकर कुछ महाजनों से 400 पौंड उधार लिया। महाजनों ने इस धन को ब्याज सहित वापस लेने के लिए वाद किया परन्तु असफल रहे। उन्होंने इसी धन को संविदा कल्प (quasi contract) के सिद्धान्त के अन्तर्गत जो किसी अन्य व्यक्ति के भले के लिए रुपया पाने और रखने का नियम है (money had and received to the Plaintiffs use) उसके आधार पर धन वापस पाने का तर्क किया। इस तर्क का उत्तर देते हुए लॉर्ड समनर ने कहा कि अधिनियम के अन्तर्गत जो यह सिद्धान्त है कि अवयस्क को किसी दुष्कृति के लिये दायी नहीं ठहराया जायेगा जो संविदा के कारण उत्पन्न हुई हो क्योंकि वह एक प्रकार से संविदा को प्रवर्तनीय करने का ढंग होगा, वह सिद्धान्त यह भी वर्जित करता है कि विवक्षित या अर्ध संविदा की आड़ में ऐसी संविदा को प्रवर्तनीय किया जाय जो अधिनियम द्वारा शून्य घोषित है।
अन्त में ऋणदाताओं ने प्रतिस्थापन के सिद्धान्त का सहारा लिया और कहा कि अवयस्क को रुपये लौटाने के लिए मजबूर किया जाना चाहिए। इस तर्क को भी ठुकराते हुए लॉर्ड समनर ने कहा कि हो सकता है कि अवयस्क ने रुपया खर्च कर दिया हो, उसके कब्जे में रुपया मिलने की कोई सम्भावना नहीं है और न्यायालय उसके विरुद्ध रुपया वापस लेने की व्यक्तिगत डिक्री नहीं पारित कर सकता।
भारतीय विधि- कपटपूर्ण अवयस्क के विरुद्ध उपचार के सम्बन्ध में भारतीय विधि का उल्लेख मोहरी बीबी बनाम धर्मोदास घोष 1903 के वाद में भी मिलता है। इस वाद में ऋणदाता की ओर से यह कहा गया है कि अवयस्क ने जो ऋण की रकम वास्तव में लिया था। उसे वापस करने हेतु उसे आदेश दिया जाय। ऋणदाता ने भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 64 और 65 का सहारा लिया परन्तु प्रिवी कौंसिल ने उसका तर्क इस आधार पर अस्वीकार कर दिया कि उस धारा 64 और 65 अवयस्क के साथ की गई संविदा के संबंध में लागू नहीं होती है। प्रिवी कौंसिल ने निर्णय दिया कि धारा 64 शून्यकरणीय संविदा के संबंध में लागू होती है, जबकि अवयस्क के साथ की गई संविदा शून्य होती है। धारा 65 के संबंध में प्रिवी कौंसिल ने निर्णय दिया कि यह धारा उसी करार या संविदा के सम्बन्ध में लागू होती है, जो संविदा करने के लिये सक्षम व्यक्तियों के मध्य हुआ है परन्तु बाद में किसी कारण से शून्य हो गया है अथवा शून्य पाया जाता है।
विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम के अन्तर्गत कपटपूर्वक अवयस्क को प्रतिकर देने के आदेश के सम्बन्ध में विभित्र उच्च न्यायालयों में मतभेद रहा है। लाहौर उच्च न्यायालय के अनुसार, कपटपूर्वक अवयस्क को विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम 1877 की धारा 41 के अन्तर्गत प्रतिकर देने का आदेश दिया जा सकता है, चाहे वादी हो या प्रतिवादी। न्यायालय ने यह भी मत व्यक्त किया कि प्रत्यास्थापन का सिद्धान्त मुद्रा के संबंध में भी लागू किया जाना चाहिए। इस प्रकार लाहौर उच्च न्यायालय लेसली बनाम शैल में दिये गये निर्णय के विरुद्ध मत व्यक्त किया कि प्रत्यास्थापना का सिद्धान्त मुद्रा के सम्बन्ध में लागू नहीं होता है।
भारतीय विधि की वर्तमान स्थिति - इस विषय पर भारतीय विधि की स्थिति सुनिश्चित हो गई है। भारतीय विधि आयोग ने लाहौर उच्च न्यायालय के मत को बेहतर माना। नवीन विनिर्दिश अनुतोष अधिनियम 1963 की धारा 33 का उपबन्ध विधि की स्थिति को स्पष्ट कर देता है। जब शून्य या शून्यकरणीय संविदा का कोई पक्षकार न्यायालय से यह प्रार्थना करता है कि संविदा को रद्द कर दिया जाय और न्यायालय उसकी प्रार्थना पर उक्त संविदा को रद्द कर सकता है, तो वह उक्त धारा 33 के अन्तर्गत उसे आदेश दे सकता है कि दूसरे पक्षकार से जो लाभ उसने प्राप्त किये हैं। उसे उस पक्षकार को वापस कर दे अथवा उस पक्षकार को न्यायोचित प्रतिकर दे। इस प्रकार यदि अवयस्क स्वयं संविदा को रद्द करना चाहता है और इसके लिए वाद चलाता है तो न्यायालय उसे यह आदेश दे सकता है कि उक्त शून्य संविदा के अन्तर्गत वह जो लाभ प्राप्त किया है। उसे उस पक्षकार को वापस कर दे जिससे उसने प्राप्त किया है अथवा न्यायोचित प्रतिकर दे।
(4) सेवा-संविदा- के सम्बन्ध में अंग्रेजी विधि और भारतीय विधि में भेद है। अंग्रेजी विधि के अन्तर्गत अवयस्क द्वारा की गई सेवा संविदा बन्धनकारी होती है, यदि यह अवयस्क के भले के लिये है। यदि कोई अवयस्क अपने भरण-पोषण के लिए साधन प्राप्त करने हेतु सेवा-संविदा करता है तो यह सेवा-संविदा उस अवयस्क पर बन्धनकारी होगी।
भारतीय विधि - के अन्तर्गत सेवा-संविदा चाहे वह अवयस्क ने स्वयं किया हो अथवा उसके संरक्षक ने उसके लिए किया हो, शून्य होती है।
राजरानी बनाम प्रेम अदीब 1949 बाम्बे के वाद वादी अवयस्क भी। उसकी ओर से उसके पिता ने एक फिल्म निर्माता के साथ संविदा किया। संविदा के अन्तर्गत फिल्म निर्माता ने उस अवयस्क को एक फिल्म में अभिनेत्री का अभिनय देने का वचन दिया, परन्तु उसने यह अभिनय किसी अन्य अभिनेत्री को दिया। उस अवयस्क के फिल्म निर्माता के विरुद्ध संविदा-भंग का वाद चलाया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि वादी के अवयस्क होने के कारण संविदा शून्य थी और इस कारण वादी उसका प्रवर्तन नहीं करा सकती है।
(5) विवाह की संविदा- विवाह की संविदा अवयस्क के भले के लिए होती है। भारत में यह परम्परा चली आ रही है कि मां बाप नाबालिग बच्चों के विवाह तय कर देते हैं और विधि को लोगों की परम्पराओं के साथ चलना होता है। इसलिए बिना किसी मतभेद के यह सिद्धान्त भलीभांति प्रतिपादित है कि अवयस्क चाहे तो दूसरे पक्षकार के विरुद्ध विवाह की संविदा लागू करवा सकता है, दूसरा व्यक्ति उसके विरुद्ध नहीं। कुछ अवयस्कों के विवाह के खर्चे भरने के लिए उनकी सम्पत्ति का विक्रय प्रवर्तनीय माना गया और क्रेता को यह मालूम भी नहीं थी कि सम्पत्ति अवयस्कों की थी।
(6) अप्रेण्टिसशिप (शिक्षु) की संविदा (Contracts of Apprenticeship) - अप्रेण्टिस या शिक्षु बनने की संविदा भी अवयस्क के भले के लिए होती है। भारतीय शिक्षुता अधिनियम, 1850 कुछ ऐसी संविदाओं के बारे में है, जो अवयस्कों पर बाध्य होती है जैसा कि इस अधिनियम का शीर्षक बताता है, यह बच्चों को व्यापार, कला तथा नियोजन की अधिक अच्छी सुविधा देने के लिए बनाया गया है। अधिनियम यह अनिवार्य करता है कि संविदा बच्चे के संरक्षक द्वारा हो। इंग्लैंड में शिक्षुता की संविदा आवश्यकताओं की श्रेणी में रखी जाती है। इस विषय पर रॉबर्ट्स बनाम ग्रे 1913 सुप्रसिद्ध वाद है।
प्रतिवादी जो अवयस्क था। उसने वादी जो प्रसिद्ध बिलियर्ड के खिलाड़ी थे, के साथ संविदा की कि बिलियर्ड खेलने के विश्व के दौर में वह उसके साथ रहेंगे। वादी ने काफी समय और धन बिलियर्ड प्रतियोगिताओं का प्रबन्ध करने में खर्च किया। किन्तु प्रतिवादी ने साथ नहीं दिया। वादी ने उस पर संविदा भंग का वाद किया। उसे दायी ठहराया गया।
बम्बई उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति देसाई ने राजरानी बनाम प्रेम अदीब, ए. आई. आर. 1949 में विचार प्रकट किया कि ऐसी परिस्थिति में भारतीय विधि के अनुसार अवयस्क दायी नहीं होगा। धारा 68 के अन्तर्गत अवयस्क की सम्पत्ति दायी हो सकती है परन्तु वह केवल तब जब आवश्यक वस्तुयें या सेवायें अर्पित की जा चुकी हो जबकि इस वाद में अवयस्क ने संविदा का क्रियान्वयन आरम्भ होने से पहले ही निराकरण कर दिया था।
(7) लाभदायक करार से वयस्क होकर हटने का विकल्प- लाभदायक संविदाओं के सम्बन्ध में भी अवयस्क को वयस्क हो जाने पर उनका निराकरण करने का अधिकार होता है बशर्ते वह इस अधिकार को युक्तियुक्त समय के अन्दर प्रयोग करे। एक अवयस्क ने विवाह का करार किया और यह वचन दिया कि जो सम्पत्ति उसको उत्तराधिकार द्वारा मिलेगी, उसे विवाह के लिए व्यवस्थापित करेगा। वयस्क हो जाने के बाद उसे अपने पिता की वसीयत के अन्तर्गत आशा से अधिक सम्पत्ति मिल गई। इसलिये उसने विवाह और व्यवस्थापन की संविदा का निराकरण करना चाहा। परन्तु हाउस ऑफ लॉर्ड्स ने उसे ऐसा नहीं करने दिया। उसको वयस्क हुए पांच वर्ष हो चुके थे और इसलिए निराकरण के लिए युक्तियुक्त समय समाप्त हो चुका था।
(8) अनुसमर्थन (Ratification) - अवयस्क के साथ की गई संविदा प्रारम्भ से ही शून्य होती है और इस कारण अवयस्कता में की गई संविदा का अनुसमर्थन, वयस्क होने पर नहीं किया जा सकता है अर्थात् एक अवयस्क वयस्क होने पर, उस संविदा का अनुसमर्थन नहीं कर सकता है जो कि उसने वयस्कता की दशा में किया था। जो प्रतिफल की अवयस्कता की दशा में की गई संविदा के लिए दिया गया है, वह वयस्क होने पर की गई संविदा का प्रतिफल नहीं हो सकता है।
उदाहरण के लिये-
सूरज नारायण बनाम सुक्खू अहीर, ए. आई. आर. 1928 के वाद में एक अवयस्क ने एक प्रोनोट लिखकर कुछ धन ऋण के रूप में लिया। जब वह वयस्क हो गया तो उसने पुराने प्रोनोट के स्थान पर नया प्रोनोट लिखकर ऋणदाता (लेनदार) को दे दिया। नये प्रोनोट में अवयस्कता में लिये गये ऋण की रकम तथा उस पर देय ब्याज के भुगतान की प्रतिज्ञा की गई थी। न्यायालय ने निर्णय दिया कि नया प्रोनोट प्रतिफल रहित होने के कारण प्रवर्तनीय नहीं था। अवयस्कता में लिया गया प्रतिफल (ऋण की रकम) वयस्क होने के कारण वाद में की गई प्रतिज्ञा का अच्छा प्रतिफल नहीं हो सकता है।
(9) आवश्यक वस्तुओं के लिए दायित्व (धारा 68) संविदा अधिनियम की धारा 68 में संविदा अक्षम व्यक्ति का आवश्यक वस्तुओं के मूल्य के सम्बन्ध में दायित्व बताया गया है इसके अनुसार,
"यदि किसी ऐसे व्यक्ति को, जो संविदा करने में असमर्थ है या किसी ऐसे व्यक्ति को जिसके पालन-पोषण के लिए वैध रूप से आबद्ध हो, जीवन में उसकी स्थिति के योग्य आवश्यक वस्तुएं किसी अन्य व्यक्ति द्वारा प्रदाय की जाती है तो वह व्यक्ति जिसने, ऐसे प्रदाय किये हैं, ऐसे असमर्थ व्यक्ति की सम्पत्ति से प्रतिपूर्ति पाने का हकदार है।"
दृष्टांत (क) 'ख' को, जो पागल है, जीवन में उसकी स्थिति के योग्य आषश्यक वस्तुओं का प्रदाय 'क' करता है। 'ख' की सम्पत्ति से 'क' प्रतिपूर्ति पाने का हकदार है।
अवयस्क की सम्पत्ति को दायी ठहराने के लिए दो शर्तों का पूरा होना आवश्यक है-
(1) संविदा ऐसी वस्तुओं के विषय में होनी चाहिए जो उसे, उसके जीवन स्तर में बनाये रखने के लिए आवश्यक हो, और
(2) उसे ऐसी वस्तुएं पहले से ही प्राप्त न हों।
कोई टिप्पणी नहीं
एक टिप्पणी भेजें