हिन्दू विवाह की प्रकृति
हिन्दू विवाह की प्रकृति
हिन्दू विधि विवाह को पवित्र एवं महत्वपूर्ण संस्कार मानती है। हिन्दू विधि में पुरुष पत्नी के बिना अधूरा समझा जाता है। पत्नी को पुरुष की अर्धांगिनी माना जाता है। जैसा कि महाभारत के आदि पर्व के श्लोक संख्या 40-41 और 74 में बताया गया है कि वही व्यक्ति कौटुम्बिक जीवन बिताते हैं जिनके पत्नियाँ होती हैं। जिनकी पत्नियों होती हैं। वही व्यक्ति सुखी रहता है। वहीं पूर्ण जीवन व्यतीत कर सकते हैं।
कलकत्ता उच्च न्यायालय ने मनमोहनी बनाम बसन्त कुमार के मामले में यह कहा कि हिन्दू विवाह एक संस्कार से अधिक है। यह मांस से मांस तथा हड्डी से हड्डी का मिलन है।
हिन्दू विवाह 16 संस्कारों में से प्रमुख संस्कार हैं-
निम्नलिखित कारणों से हिन्दू विवाह को एक संस्कार (बन्धन स्थायित्व) माना गया है-
(1) पितृ ऋण से मुक्ति
(2) स्वर्ग की प्राप्ति
(3) धार्मिक अनुष्ठानों को पूर्ण करने के लिए विवाह,
(4) वंश-वृद्धि के लिये विवाह।
याज्ञवल्क्य स्मृति (1-77)- स्त्री माता बनने के लिए एवं पुरुष पिता बनने के लिए उत्पन्न किए गए हैं—
(5) विवाह न टूटने वाला एक बन्धन है-मनु
(6) धार्मिक रीति से विवाह का सम्पन्न किया जाना।
(7) हिन्दू विवाह का संविदात्मक स्वरूप का न होना।
हिन्दू विवाह संविदा की प्रकृति का नहीं होता क्योंकि संविदा के लिए जिन तीन अनिवार्य तत्वों प्रस्ताव, स्वीकृति और प्रतिफल की आवश्यकता होती है, हिन्दू विवाह में इन तीनों का अभाव है अर्थात् हिन्दू विवाह में विवाह के पक्षकारों में मुस्लिम विवाह की तरह प्रस्ताव और स्वीकृति जैसी कोई बात नहीं होती और न वर को दुल्हन प्राप्त करने के बदले में कोई प्रतिफल देना पड़ता है।
कन्या का पिता स्वेच्छा से वर को कन्यादान में देता है। वह कन्यादान करने के बदले में कोई प्रतिफल नहीं लेता। इसके अतिरिक्त हिन्दू विवाह इस कारण भी संविदा नहीं कहा जा सकता क्योंकि संविदा के लिए पक्षकारों का वयस्क एवं स्वस्थ मस्तिष्क का होना आवश्यक होता है जबकि हिन्दू- विवाह को किसी भी दशा में संविदा तो कहा ही नहीं जा सकता।
अतः हिन्दू विवाह संस्कार है, संविदा नहीं।
वर्तमानं स्वरूप-विभिन्न अधिनियमों, हिन्दू विवाह, बाल विवाह, नारी पृथक आवास एवं भरण-पोषण 1946, विवाह अधिनियम 1955 के पारित होने के कारण कहा जा सकता है कि हिन्दू विवाह का वर्तमान स्वरूप प्राचीन स्वरूप जैसा नहीं रह गया है।
हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 का हिन्दू विवाह के स्वरूप में प्रभाव-
(1) विवाह के सांस्कारिक स्वरूप पर प्रभाव
(2) वैवाहिक विधि पर प्रभाव
(i) एक विवाह को मान्यता
(ii) विवाह-विच्छेद का उपबंध
(iii) अन्तर्जातीय विवाह को मान्यता
(iv) विवाह की शर्तों का सरलीकरण
(v) नये अनुतोषों का उपबंध
(vi) शून्य एवं शून्यकरणीय विवाह से उत्पन्न सन्तान की वैधता (धारा 16)
vii) सगोत्र विवाह को विधिमान्यता
(vii) विवाह-विच्छेद के बाद सन्तानों के भरण-पोषण एवं अभिरक्षा के बारे में व्याक व्यवस्था।
(1) सांस्कारिक स्वरूप- पहले विवाह को ऐसा धार्मिक बन्धन एवं जन्म-जन्मान्तर के साथ माना जाता था, जिसे तोड़ना पाप समझा जाता था। पुरुष को चाहे जैसी पत्नी मिलती थी, या उसके साथ जीवन निर्वाह करता था और स्त्री को चाहे जैसा पति मिलता था वह उसके साथ है. खुशी जिन्दगी बिताती थी। परन्तु अधिनियम में विवाह-विच्छेद, न्यायिक पृथक्करण तथा विवाह को शून्य घोषित कराने का वैवाहिक उपचार का उपबन्ध कर हिन्दू विवाह के सांस्कारिक स्वरूप को छि भिन्न कर डाला गया है।
(2) वैवाहिक विधि पर प्रभाव-
(1) एक विवाह को मान्यता- एक विवाह को विधिमान्य बनाया गया। धारा 5 में यह कहा गया है कि यदि कोई विवाह इस अधिनियम के बाद सम्पन्न हुआ है और विवाह के पक्षकारों का कोई स्त्री अथवा पति जीवित है तो विवाह शून्य समझा जायेगा।
(2) विवाह-विच्छेद का उपबंध-न्यायिक विलगाव, विवाह-विच्छेद तथा विवाह की अकृतता की सुविधायें प्रदान की गई हैं।
(3) अन्तर्जातीय विवाह को मान्यता अन्तर्जातीय विवाह निषिद्ध नहीं किया गया। अधिनियम की धारा 29 के अनुसार पूर्व सम्पन्न अन्तर्जातीय विवाह को भी वैध करार दिया गया।
(4) विवाह की शर्तों का सरलीकरण- वैध हिन्दू विवाह की शर्तों एवं आवश्यकताओं को सरल बना दिया गया। सपिण्ड के सीमा क्षेत्र को कम कर दिया गया एवं प्रतिषिद्ध सम्बन्धों को परिभाषित करके सीमित कर दिया गया।
(5) नये अनुतोषों का उपबंध- वैवाहिक मामलों में नये अनुतोष प्रदान किये गये।
(6) शून्य एवं शून्यकरणीय विवाह से उत्पन्न सन्तान की वैधता - शून्य तथा शून्यकरणीय विवाहों से उत्पन्न सन्तानों को भी वैधता प्रदान की गयी।
(7) सगोत्र विवाह को विधिमान्यता सगोत्र विवाह के निषेध को स्वीकार नहीं किया गया, परिणामतः सब सगोत्रों के साथ विवाह विधिक रूप से हो सकता है।
(8) विवाह-विच्छेद के बाद सन्तानों के भरण-पोषण एवं अभिरक्षा के बारे में व्यापक व्यवस्था - न्यायालयों द्वारा सन्तानों के संरक्षण तथा भरण-पोषण के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण अधिकार प्रदान किये गये। इस अधिनियम को सर्वोपरि प्रभाव प्रदान किया गया है। धारा 4 के अनुसार हिन्दू विधि का कोई पाठ, नियम या प्रथा, जो इस अधिनियम के प्रारंभ होने के पूर्व प्रचलित थी, उन सभी बातों के विषय में शून्य हो जायेगी जिनके लिए इस अधिनियम में उपबंध प्रदान किये गये। इसके अतिरिक्त अन्य विधियाँ, जो इस अधिनियम के प्रारंभ होने के पूर्व प्रचलित थी, उस सीमा तक प्रभाव-शून्य हो जायेगी। जहाँ तक वे अधिनियम में उल्लिखित उपबन्धों में से किसी से असंगत हैं।
(9) बहु विवाह को भारतीय दण्ड संहिता के अन्तर्गत अपराध घोषित कर दिया गया है।
अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि हिन्दू विवाह के लिए स्वेच्छा या अनुमति का कोई महत्व नहीं है। अतः हिन्दू विवाह अनुबंध नहीं है। यह तर्क भी दिया जा सकता है कि जब दो व्यक्ति विवाह के अनुष्ठान को सम्पन्न करते हैं तो उनकी स्वेच्छा विवक्षित है। कोई व्यक्ति यह सिद्ध करने में सफल हो जाता है कि विवाह न उसकी स्वेच्छा से हुआ और न उनकी अनुमति थी तो क्या विवाह शून्य होगा? क्या विवाह के शून्यकरण की घोषणा की डिक्री किसी न्यायालय से प्राप्त की जा सकती है। इस संबंध में हिन्दू विवाह अधिनियम में कोई उपबंध नहीं है। विवाह विधिमान्य विवाह है तो फिर स्पष्ट है कि हिन्दू विवाह अनुबंध नहीं है।
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