निकाह (विवाह) (Marriage)

 

 निकाह (विवाह) (Marriage)

विवाह एक संस्था है। "यह संस्था मानव सभ्यता का आधार है। " कुरान में लिखा है कि "हमने पुरुषों को स्त्रियों पर हाकिम (अधिकारी) बना कर भेजा है।" दूसरे शब्दों में, मुस्लिम विधि में पत्नी की अधीनता स्वीकार की गयी है। निकाह (विवाह) का शाब्दिक अर्थ है- स्त्री और पुरुष का यौन- संयोग (Carnal Conjunction) और विधि में इनका अर्थ है- "विवाह"। वेली के सार-संग्रह में विवाह की परिभाषा स्त्री पुरुष के समागम को वैध बनाने और सन्तान उत्पन्न करने के प्रयोजन के लिये की गयी संविदा के रूप में की गयी है।

परिभाषा- निकाह  एक संविदा है, जिसका प्रयोजन बच्चों की उत्पत्ति तथा उन्हें वैध करार करना होता है। कुछ विवाह की महत्वपूर्ण परिभाषाएं निम्न हैं-

हेदाया के अनुसार, "विवाह एक विधिक प्रक्रिया है। जिसके द्वारा स्त्री और पुरुष के बीच समागम और बच्चों की उत्पत्ति एवं औरसीकरण पूर्णतया वैध और मान्य होते हैं।"

बेली के अनुसार, "स्त्री-पुरुष के समागम को वैध बनाने और सन्तान उत्पन्न करने के प्रयोजन के लिए की गई संविदा निकाह है।"

डॉक्टर मोहम्मद उल्लाह एस. जंग कहते हैं कि "विवाह सारतः एक संविदा होते हुए भी एक श्रद्धात्मक कार्य है, जिनके उद्देश्य है उपभोग और सन्तानोत्पत्ति के अधिकार और समाज के हित में सामाजिक जीवन का नियमन।"

अब्दुर्रहीम के अनुसार, विवाह की प्रथा में इबादत (धार्मिक कृत्य), आमलात व्यावहारिक कृत्य) दोनों गुण पाये जाते हैं, अर्थात् "मुस्लिम रिवाजों के अन्तर्गत विवाह सारत: एक व्यावहारिक संविदा होते हुए भी श्रद्धात्मक कार्य है।"

सर रोलैण्ड विलसन के अनुसार, "निकाह यौन सम्बन्ध को वैध करने तथा संतान उत्पन्न करने के निमित संविदा (Contract) है।"

अब्दुल कादिर बनाम सलीमा (1886) 8 इला. 149 के मुकदमें में विवाह की परिभाषा देते या देते हुए न्यायाधीश महमूद ने कहा था, कि मुस्लिमों में विवाह शुद्ध रूप से (Purely) एक सिविल संविदा (Civil Contract) है. यह कोई संस्कार (Sacrament) नहीं है।

उपर्युक्त परिभाषा और कथनों के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर सिविल संविदा (Civil Contract) है जो श्री पहुंचते हैं कि निकाह एक और पुरुष के बीच होता है और इस संविदा का तद्देश्य परस्पर संभोग (Sexual Intercourse), सन्तानोत्पत्ति तथा सन्तानों को वैधता प्रदान करता है।

विवाह का उद्देश्य

तिरमिजी' विवाह के पांच उद्देश्यों का उल्लेख करता है-

(1) कामवासना का नियमन

(2) गृहस्थ जीवन का नियमन

(3) वंश की वृद्धि

(4) पत्नी और बच्चों की देखभाल और जिम्मेदारी में आत्मसंयम, और

(5) सदाचारी बच्चों का पालन

हेदाया के अनुसार विवाह के उद्देश्य (1) समागम (2) संगति और (3) समान हितेच्छा है।

पैगम्बर ने कहा- 'पुरुष स्त्रियों से विवाह उनकी धर्मनिष्ठा, सम्पत्ति या उनके सौन्दर्य के लिये करते हैं, परन्तु धन्हें विवाह केवल धर्मनिष्ठा के लिये करना चाहिए।'

फैजी का विचार है कि निकाह के उद्देश्य को हम तीन विभागों में बाँट सकते हैं-विधिक, सामाजिक तथा धार्मिक।

मुस्लिम विवाह की प्रकृति (Nature of Marriage)

महत्वपूर्ण वाद अब्दुल कादिर बनाम सलीमा (1846) में न्यायाधीश महमूद और न्यायाधीश मित्तर ने सबरुनिशा के वाद में मुस्लिम विवाह को संविदात्मक दायित्व के रूप में अभिनिर्धारित किया है और मुस्लिम संविदा को विक्रय संविदा के समान बताया है।

        मुस्लिम विवाह की प्रकृति का वर्णन करते हुए न्यायाधीश महमूद ने कहा-

मुसलमान लोगों में शादी एक संस्कार नहीं है अपितु पूर्ण रूप से एक सिविल संविदा है। यद्यपि सामान्य रूप में शादी सम्पन्न होते समय कुरान का सुपठन किया जाता है फिर भी मुस्लिम विधि में इस विशिष्ट अवसर के लिये विशिष्ट सेवा सम्बंधी कोई प्रावधान नहीं है। यह परिलक्षित होता है कि विभिन्न दशाओं में जिसके अन्तर्गत शादी सम्पन्न होती है अथवा शादी के संविदा की उपधारणा की जाती है। वह एक सिविल संविदा है। सिविल संविदा होने के बावजूद लिखित रूप से ही संविदा हो, यह आवश्यक नहीं है। एक पक्षकार द्वारा इस संबंध में घोषणा अथवा कथन और दूसरे पक्षकार द्वारा सहमति अथवा स्वीकृति होनी चाहिए, अथवा उसके प्राकृतिक या विधिक अभिभावक द्वारा सहमति दी जानी चाहिए। यह सहमति सक्षम और साक्षीगणों के सम्मुख व्यक्त होनी चाहिए। इसके अलावा परिस्थितियों के अनुसार निश्चित प्रतिबन्ध भी आरोपित किये जा सकते हैं।"

          उपर्युक्त विवेचना के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता है कि न्यायाधीश महमूद ने मुस्लिम विवाह को केवल सिविल संविदा के रूप में प्रतिपादित किया है लेकिन इसकी इतरोक्ति प्रतिपादित सिद्धान्त से विधिक अनुशासित रखती है। न्यायधीश महमूद, बेली के इस विचार से कि विवाह जीवन की पवित्रता के लिये भी होता है, सहमत हैं। उन्होंने स्वयं विवाह के अन्य पहलू को प्रतिबिम्बित करते हुए कहा है कि इसका सामाजिक पक्ष भी है।

         लिली थामस बनाम भारत संघ, ए. आई. आर. 2000 एस.सी. के मामले में अभिनिर्धारित किया गया कि मुस्लिम विधि में एक से अधिक पत्नियों से किया गया निकाह बिना शर्त नहीं है, बल्कि इसके लिए पूर्व शर्त यह है कि पति अपने पत्नियों के साथ पूर्ण न्याय कर सकता है या नहीं।

       निकाह की संविदावत् प्रकृति इसका विधिक पक्ष (Aspect) है। सामाजिक पक्ष में विवाह के उपरान्त स्त्री की सामाजिक हैसियत का उत्थान तथा सीमित बहुपत्नी विवाह आते हैं। जहाँ तक निकाह के धार्मिक पक्ष का प्रश्न है, कहते हैं कि मुहम्मद साहब ने कहा था कि "विवाह (निकाह) मेरा सुत्रा (आचरण द्वारा स्थापित उपदेश) है तथा जो लोग जीवन के इस ढंग को नहीं अपनाते, वे मेरे अनुयायी नहीं हैं" तथा "इस्लाम में भिक्षुधर्म (Monkery) नहीं है।" इस प्रकार विवाह एक धार्मिक कर्तव्य सा हो जाता है तथा अब्दुर्रहीम ने लिखा है कि 'विवाह (निकाह) की प्रकृति धार्मिक (Ibada) तथा सांसारिक (Muamala Worldly) दोनों ही प्रकार की है तथा अनीस बेगम बनाम मोहम्मद इस्तफा (1933) के वाद में न्यायमूर्ति सुलेमान ने निकाह को धार्मिक संस्कार (Religious Sacrament) भी कहा है। किंतु वस्तुतः मुस्लिम विवाह संस्कार नहीं है, क्योंकि इस्लाम में संस्कार नहीं होते। आधुनिक मुस्लिम समाज में कोई भी विवाह निकाह बिना किसी अनुष्ठान के नहीं होता। जब कभी न्यायालय में मामला आता है और यह पता चलता है कि विवाह के पक्षकारों में विवाहार्थी केवल प्रस्ताव (एजब) और स्वीकृति (कबूल) ही हुई थी, कोई अनुष्ठान नहीं किया गया था, तो न्यायालय उस विवाह को संदेह की दृष्टि से देखता है।

       मोहम्मद साहब द्वारा मुस्लिम के लिए विवाह करने की संस्तुति को इस्लामी समाज की नैतिकता या अधिक से अधिक धार्मिक कर्तव्य कहा जा सकता है, धार्मिक संस्कार नहीं। यह सत्य है कि मुस्लिम विधि विवाह को एक संविदा मानती है लेकिन मुस्लिम विवाह, विवाह का केवल न्यायिक अथवा कानूनी पक्ष ही नहीं है। एक लिखित संविदा के अतिरिक्त इस्लाम में विवाह का सामाजिक तथा धार्मिक महत्व भी है। इसलिए अन्य पहलुओं पर भी विचार करना आवश्यक होता है।

        मान्य विवाह की आवश्यकतायें

  प्रत्येक कानून में कुछ ऐसे आवश्यक प्रावधान हैं जो विवाह मान्यता के लिये आवश्यक हैं। मुस्लिम कानून में भी विवाह-सम्बंध के लिए आवश्यक कुछ बातें हैं जिनके न करने से विवाह या तो निष्वभावी हो जाते हैं या अनियमित हो जाते हैं।

        मुस्लिम कानून के मान्य विवाह के लिए आवश्यक बातें निम्नलिखित हैं-

(1) प्रस्ताव (Proposal) और स्वीकृति (Accptance)

(2) सहमति (Consent)

(3) साक्षी (Witnesses) अर्थात् गवाह,

(4) विवाह करने की क्षमता (Capacity to marry) तथा

(5) विवाह में कोई रुकावट न हो (No Impediments to marriage)

       (1) प्रस्ताव (Ijab) एवं स्वीकृति (Kabul)- अन्य संविदाओं के समान विवाह भी प्रस्ताव (इजब) एवं स्वीकृति (कबूल) से पूर्ण होता है। यह आवश्यक है कि विवाह का एक पक्षकार दूसरे पक्षकार से विवाह करने का प्रस्ताव करे। जब दूसरा पक्षकार प्रस्ताव की स्वीकृति दे देता है। तभी विवाह पूर्ण होता है। इस प्रकार यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि "व्यावहारिक संस्था के रूप में विवाह की वही स्थिति है जो किसी अन्य संविदा की।"

       मु. जैनबा बनाम अब्दुल रहमान, ए. आई. आर. 1945 पेशावर के बाद में निणीत किया गया था कि प्रस्ताव करने और स्वीकृति देने का कोई रूप नहीं होता है। प्रस्ताव एवं स्वीकृति संविदा के पक्षकारों या उनके अभिकर्ताओं द्वारा एक दूसरे की उपस्थिति और सुनने (hearing) में किये जा सकते हैं और एक ही बैठक में इस व्यवहार का पूरा हो जाना जरूरी है। प्रस्ताव और स्वीकृति में अस्पष्टता नहीं होनी चाहिए। विवाह करने के आशय को व्यक्त करना या भविष्य में किसी समय विवाह करने का वचन देना कोई मतलब नहीं रखता। यह आवश्यक है कि प्रस्ताव और स्वीकृति के शब्द इस प्रकार होने चाहिए कि जिनसे यह प्रदर्शित हो कि पक्षकारों का आशय स्वीकृति के क्षण से दाम्पत्य सम्बन्ध स्थापित करने का है।

      (2) सहमति (Consent) - मुस्लिम विवाह के विधिमान्य होने के लिए पक्षकारों या उनके अभिभावकों की सहमति आवश्यक है। पक्षकार यदि वयस्क तथा स्वस्थ मस्तिष्क वाले हैं तो उनकी स्वस्थ सहमति ही अपेक्षित है। इसमें स्वतंत्र सहमति की आवश्यकता होती. है। किसी प्रकार का डर दबाव या धोखा नहीं होना चाहिए। यदि विवाह बिना स्वतन्त्र सहमति के है तो वह बाद में रद्द किया जा सकता है। अवयस्क लड़की लड़को के विवाह अभिभावक की सहमति के बिना अमान्य होते हैं।

(क) सहमति स्पष्ट या उपलक्षित हो सकती है। मुस्कराना, हँसना या शान्त रहना उपलक्षित (Implied) सहमति कही जाती है।

(ख) बिना सहमति निकाह अमान्य होगा। यहाँ तक कि विवाह-भोग भी स्त्री की इच्छा के प्रतिकूल विवाह को मान्यता नहीं दे सकता है।

(ग) दबाव से ली गई सहमति विवाह को अमान्य कर देती है। किन्तु हनफी शाखा का मत है कि निकाह दबाव के द्वारा भी मान्य है।

उदाहरण-एक मुसलमान एक औरत के साथ जो रोगिणी है, विवाह करता है। रोग के कारण सम्भोग में रुकावट पड़ती है और औरत रोग के कारण मर जाती है। विवाह मान्य होगा।

(घ) स्त्री द्वारा विवाह के समय गर्भ को छिपाना विवाह को अमान्य नहीं करता।

(ङ) सहमति किसी शर्त या भविष्य की घटना पर आधारित नहीं होनी चाहिए।

(3) साक्षी (Witnesses) - सुनी कानून के अन्तर्गत विवाह प्रस्ताव व स्वीकृति के समक्ष दो पुरुष या एक पुरुष एवं दो स्त्री साक्षियों की उपस्थिति अनिवार्य है। इन साक्षियों को सचेत बालिग और मुसलमान होना चाहिए।

किन्तु शिया कानून में विवाह के समय साक्षियों की आवश्यकता नहीं है। उसकी आवश्यकता विवाह-विच्छेद के समय रहती है।

मुसम्मात रहीम खातून बनाम मुसम्पात सबूरजान्त्रिसा, ए. आई. आर. 1996 के वाद में मुस्लिम विवाह के लिए आवश्यक तत्वों की विवेचना करते हुए उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि किसी भी प्रकार का दस्तावेज या कोई धार्मिक समारोह विवाह की वैधता हेतु आवश्यक नहीं है। पक्षकारों के मध्य विवाह का करार होने के समय मुल्ला या काजी का होना भी आवश्यक नहीं होता है और इसे भी अनदेखा किया जा सकता है।

(4) विवाह करने की सक्षमता- प्रत्येक मुसलमान, चाहे वह बालिग हो अथवा नाबालिग, विवाह करने योग्य समझा जाता है। वह पति-पत्नी होने के योग्य समझा जाता है। जो व्यक्ति बालिग एवं स्वस्थचित्त है, वह स्वतः विवाह कर सकता है और जो नाबालिग या पागल हैं. वे अपने अभिभावक की मध्यस्थता द्वारा विवाह कर सकते हैं।

विवाह करने की क्षमता के लिए तीन बातें आवश्यक हैं-

(क) स्वस्थ मस्तिष्क (Sound mind) एवं उचित समझ (Understanding)

(ख) स्वतन्त्र सहमति (Free Consent) तथा

(ग) वयस्कता (Majority)

          मुस्लिम विधि में विवाह, मेहर तथा विवाह-विच्छेद से सम्बन्धित मामलों के लिए व्यस्कता की उम्र अठारह वर्ष न होकर यौवनावस्था की उम्र मानी जाती है। यौवनावस्था की उम्र वह उम्र है जिसमें कोई व्यक्ति सम्भोग की क्षमता पा जाता है। नाबालिग का अर्थ है अवयस्कता। हनफी कानून के अन्तर्गत स्त्री या पुरुष को 15 वर्ष की उम्र के बाद (बालिग) मानते हैं। शिया कानून के अन्तर्गत स्त्री की वयस्कता उसके रजस्वला होने के समय से मानते हैं। रजस्वला होने का साक्ष्य न मिलने पर उसे 15 वर्ष की उम्र से वयस्क मान लेते हैं।

        अवयस्कों के विवाह और विवाह में अभिभावकता अभिभावक की अनुमति के बिना किसी अवयस्क का विवाह अमान्य होता है, जब तक कि वयस्कता प्राप्त कर लेने पर उसका अनुसमर्थन न किया जाय (अब्दुल कासिम बनाम मुसम्मात जमीला खातून (1940) कलकत्ता)

      किसी लड़के या लड़की को, जिसने वयस्कता प्राप्त कर ली हो. जिससे वह चाहे विवाह कर लेने की स्वतन्त्रता होती है। यदि जोड़ी समान हो तो अभिभावक को हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है।

      विवाह में अभिभावकता (जबर)- किसी अवयस्क के विवाह की संविदा करने का अधिकार क्रमशः निम्नलिखित व्यक्तियों को प्राप्त होता है-

(1) पिता,

(2) पितामह, चाहे जितनी पीढ़ी ऊपर हो,

(3) सगा भाई,

(4) सहोदर भाई,

(5) सगे भाई का पुत्र,

(6) सहोदर भाई का पुत्र,

(7) सगा चाचा,

(8) सहोदर चाचा,

(9) सगे चाचा का पुत्र,

(10) सहोदर चाचा का पुत्र।

इन पुरुष संरक्षकों के पश्चात् निम्न स्त्री और बन्धु नातेदार संरक्षक में आते हैं-

(1) माता

(2) दादी,

(3) नानी,

(4) सगी बहिन,

(5) सहोदर बहिन,

(6) एकोदर रक्त की बहिन,

(7) एकोदर रक्त का भाई,

(8) एकोदर रक्त के भाई के वंशज

(9) एकोदर रक्त की बहिन के वंशज

(10) बुआ,

(11) मामा,

(12) मौसी और

(13) चाचा की पुत्री और उसके वंशज

(5) विवाह में कोई रुकाट या बाधा न हो- वयस्कता, विवेक और स्वतन्त्र सहमति के अतिरिक्त विवाह करने की योग्यता की एक शर्त यह है कि संयोग में कोई विधिक अनर्हता और बाधा न हो। विधिक अनर्हता से तात्पर्य यह है कि पक्षकार निषिद्ध आसत्तियों के भीतर या परस्पर इस प्रकार सम्बन्धित न हों, जो विवाह को अवैध बना दे। ये निषेध चार प्रकार के होते हैं, जो नीचे दिये गये हैं-

(1) निरपेक्ष असमर्थता या पूर्ण असमर्थता

(2) सापेक्ष असमर्थता

(3) निषेधात्मक असमर्थता, और

(4) निदेशात्मक असमर्थता

(1) पूर्ण असमर्थता (Absolute incapacity) - विवाह करने की पूर्ण असमर्थता का उद्भव (क) रक्त सम्बन्ध (ख) विवाह सम्बन्ध और (ग) धात्रेय सम्बन्ध (दूध के संबंध) से होता है।

() रक्त सम्बन्ध या कराबत (Consanguinity)- कुछ सम्बन्ध ऐसे होते हैं जिनसे परस्पर सम्बन्धित स्त्री-पुरुषों में एक दूसरे से विवाह नहीं किया जा सकता, जैसे कोई मनुष्य निम्नलिखित महिलाओं से विवाह नहीं कर सकता-

(1) अपनी माता या दादी, चाहे जितनी पीढ़ी ऊपर हो,

(2) अपनी पुत्री या पौत्री, चाहे जितनी पीड़ी नीचे हो,

(3) अपनी बहिन, चाहे सगी हो या सहोदरा (Consanguine) हो या एकोदरा (Uterine) हो,

(4) भाई की पुत्री या पौत्री, चाहे कितनी पीढ़ी नीचे हो,

(5) अपनी या अपने पिता या माता की बहन (मौसी या मामी) तथा दादा-दादी की बहनें, चाहे जितनी पीढ़ी ऊपर हों।

रक्त सम्बन्ध के कारण निषिद्ध स्त्री से विवाह शून्य होता है।

(ख) विवाह सम्बन्ध या मुशारत (Affinity)- इस शीर्षक के अन्तर्गत नीचे लिखे लोग आते हैं-

(1) पत्नी की माता या दादी, चाहे जितनी पीढ़ी ऊपर हो,

(2) पत्नी की पुत्री या पौत्री, चाहे जितनी पीढ़ी नीचे हो,

(3) पिता या पितामह की पत्नी, चाहे जितनी पीढ़ी ऊपर हो,

(4) पुत्र, पौत्र या दौहित्र (नाती) की पत्नी, चाहे जितनी पीढ़ी नीचे हो।

बिवाह-सम्बन्ध के कारण निषिद्ध स्त्री से विवाह शून्य होता है। अवस्था (2) में पत्नी की पुत्री या पौत्री से विवाह केवल तभी निषिद्ध है जब उस पत्नी से विवाह समागम (Consummation) तक पहुंच गया हो।

(ग) धात्रेय-सम्बन्ध या रिजा (Fosterage) - जबकि दो वर्ष से कम आयु के किसी शिशु ने अपनी माँ के अतिरिक्त किसी अन्य स्त्री का दूध पिया है, तो उस शिशु और स्त्री के बीच धात्रेय-सम्बन्ध उत्पन्न हो जाता है और वह स्त्री उस शिशु की धाय माँ मानी जाती है। धात्रेय सम्बन्धी वे होते हैं जिन्होंने एक ही स्त्री का दूध पिया हो। यद्यपि धात्रेय सम्बन्धियों का जन्म एक ही माता-पिता से नहीं होता है, फिर भी वे विवाह के प्रयोजन के लिये रक्त सम्बन्धी समझे जाते हैं। रक्त सम्बंध और विवाह सम्बन्ध के कारण निषिद्ध लोग धात्रेय सम्बन्ध के कारण भी निषिद्ध होते हैं, जैसे कोई व्यक्ति केवल अपनी सगी बहिन से ही नहीं बल्कि, घात्रेय बहिन से भी विवाह नहीं कर सकता है।

           अपवाद-इस निषेध से सम्बन्धित सामान्य नियम के कुछ अपवाद भी हैं, जिनके अन्तर्ग किया गया विवाह मान्य होता है-

            (1) बहिन की धात्री माता, (2) धात्री बहिन की माता, (3) धात्री पुत्र की बहिन, (4) घावेद भाई की बहिन।

         शिया विधि-शिया विधि के अन्तर्गत धात्रेय सम्बन्धियों के साथ विवाह पूर्णतः निषिद्ध है। सुत्री विधि के द्वारा मान्य अपवाद इस संबंध में शिया विधि में मान्य नहीं है। (इरूरैया बनाय रुदसिया बेगम )

            रक्त सम्बन्धी, विवाह सम्बन्ध और 'धात्रेय सम्बन्ध' के आधार पर उपर्युक्त निषेध निरपेक्ष। और इनके विरुद्ध किये गये विवाह शून्य होते हैं।

         (2) सापेक्ष असमर्थता (Relative Incapacity) - सापेक्ष असमर्थता का उ‌द्भव ऐसे कारणों से होता है जो विवाह को केवल उसी समय तक अमान्य बनाते हैं जब तक कि अवरोध उत्पन्न करने वाले कारणों का अस्तित्व रहे। कारण के दूर होते ही असमर्थता समाप्त हो जाती है। इस प्रकार यह असमर्थता निरपेक्ष असमर्थता से भिन्न होती है, जैसे- एक समय में चार से अधिक पत्नियों से विवाह निषिद्ध है। इसलिए जब तक उनमें से एक को तलाक न दिया जाय तब तक पांचवी स्त्री से विवाह अमान्य होगा। सापेक्ष असमर्थता के दृष्टान्त निम्नवत् हैं- (1) अवैध संयोग (2) बहु विवाह अर्थात् पांचवी स्त्री से विवाह, (3) उचित साक्षियों की अनुपस्थिति, (4) धर्म में भित्रता और (5) इद्दत की अवधि बिताती हुई स्त्री।

         (1) अवैध संयोग (Unlawful Conjunction) - इसका अर्थ है- एक ही समय में इस प्रकार परस्पर सम्बन्धित दो स्त्रियों से विवाह करना कि यदि उनमें से एक पुरुष होता तो उनके बीच विवाह अवैध होता, जैसे-दो बहिनों से एक साथ विवाह।

          (2) बहु विवाह- मुसलमान पुरुष एक समय में चार पत्नियों रख सकता है। पांचवा निषेध है।

इस्लाम से पहले एक व्यक्ति कितनी भी स्त्रियों के साथ विवाह कर सकता था लेकिन पैगम्बर साहब ने विवाह की इस रीति को चार पत्नियों तक सीमित कर दिया। और एक पत्नी विवाह को आदर्श विवाह बताया।

          (3) उचित साक्षियों की अनुपस्थिति - सुत्री विधि के अनुसार यह आवश्यक है कि कम से कम दो साक्षी विवाह के समय यह साबित करने के लिये अवश्य उपस्थित रहे कि पक्षकारों के बीच विवाह की संविदा उचित रूप से सम्पत्र हुई थी। साक्षियों की अनुपस्थिति में किया गया विवाह अनियमित (Irregular) होता है शून्य नहीं। क्योंकि अभिसाक्ष्य की शर्त इतनी जरूरी नहीं है कि उनका त्याग न किया जा सके (बसीरून्निसा बनाम बुनियाद अली 50 आई. सी.) साक्षियों को स्वस्थचित्त वयस्क और मुसलमान होना जरूरी है।

        विवाह के समय कम से कम दो पुरुष साक्षी अथवा एक पुरुष साक्षी और दो स्त्री साक्षियों की उपस्थिति आवश्यक होती है। (परन्तु यदि पुरुष साक्षी एक भी नहीं है तो विवाह अनियमित ही होगा, भले ही विवाह के समय चार या चार से अधिक महिला साक्षी उपस्थित रहें।

       शिया विधि में पति पत्नी द्वारा स्वयं उनके संरक्षकों द्वारा अकेले में किये गये विवाह मान्य समझो जाते हैं। साक्षियों की उपस्थिति जरूरी नहीं होती (नोफुन्निसा बनाम मुमताज हुसैन 55 आई. सी.)

        (4) धर्म में भिन्नता- किसी सुत्री पुरुष को मुस्लिम या किताबिया महिला से विवाह करने का पूर्ण अधिकार है लेकिन गैर-मुस्लिम महिला से विवाह करने पर सापेक्ष निषेध है। शिया विधि में किसी भी गैर-मुस्लिम महिला, चाहे वह किताबिया ही क्यों न हो, से विवाह (शून्य) है।

        (5) 'इद्दत' की अवधि बिताती हुई स्त्री- विवाह-विच्छेद के पश्चात् विधवा या तलाकशुदा महिला की 'इद्दत' की अवधि पूर्ण करनी पड़ती है। मृत्यु या विवाह-विच्छेद के बाद विवाह-सम्बन्ध पूर्णतया नहीं टूट जाता है और कुछ समय तक चालू रहता है। यह अवधि इद्दत कहलाती है। जब तक इद्दत की अवधि समाप्त न हो जाय, इद्दत बिताती हुई स्त्री दूसरा विवाह नहीं कर सकती है।

          (3) निषेधात्मक असमर्थता (Prohibitive incapacity) - इसका उ‌द्भव निम्नलिखित स्थितियों में होता है-

          (क) दूसरे की पत्नी से विवाह या विवाहित स्त्री द्वारा दूसरे पुरुष से विवाह (Polyandry), और

           (ख) मुस्लिम विधि द्वारा गैर मुस्लिम से विवाह।

          (क) दूसरे की पत्नी से विवाह या विवाहित स्त्री- यह मुस्लिम पद्धति में निषिद्ध है। जब तक पहला विवाह कायम है तब तक विवाहित स्त्री दोबारा विवाह नहीं कर सकती। (लियाकत अली बनाम करीमुन्निसा (1893) इस नियम के विरुद्ध विवाह करने वाली मुस्लिम स्त्री भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 के अन्तर्गत दण्डनीय होगी और ऐसे विवाह की सन्तान अवैध होगी। (हबीबुर्रहमान बनाम अल्ताफ अली (1921) यदि अवयस्क (या उसके अभिभावक) ने अपनी पत्नी की अवयस्कता के दौरान तलाक दे दिया हो और दूसरे आदमी ने, सब परिस्थितियों को जानते हुए, तलाक दी हुई लड़की से विवाह कर लिया हो, तो तलाक अमान्य दूसरा विवाह शून्य और उससे उत्पन्न सन्तान अवैध है। कोई मुस्लिम पुरुष अन्य पुरुष की पत्नी (यदि विवाह कायम है) के साथ विवाह नहीं कर सकता। इस नियम के विरुद्ध विवाह करने वाला मुस्लिम पुरुष भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 के अन्तर्गत दण्ड का भागी है।

        (ख) मुस्लिम स्त्री द्वारा गैर मुस्लिम पुरुष से विवाह मुस्लिम स्त्री का गैर मुस्लिम पुरुष से विवाह चाहे वह इसाई, यहूदी, मूर्तिपूजक या अग्निपूजक हो, शिया विधि के अन्तर्गत शून्य होता है। मुल्ला के अनुसार, सुत्री विधि के अन्तर्गत ऐसा विवाह अनियमित होता है, परन्तु फैजी के अनुसार शून्य होता है।

          (4) निदेशात्मक असमर्थता (Directory Incapacity) - इसका उद्भव इनसे हो सकता है-

         (क) 'गर्भवती' स्त्री से विवाह

        (ख) तलाक का निषेध

         (ग) तीर्थयात्रा में विवाह, और

         (घ) समानता के नियम, के विरुद्ध किया गया विवाह।

      (क) गर्भवती स्त्री से विवाह- "पूर्व पति से गर्भवती हुई स्त्री से गर्भधारण की स्थिति में विवाह करना अवैध है।" (अमीर अली)

        (ख) तलाक का निषेध (Prohibition of Divorce) - जब तलाक के तीन बार उच्च्चारण से विवाह का विच्छेद हो जाय तो फिर उन्हीं पक्षकारों का पुनर्विवाह निषिद्ध है परन्तु यदि में दूसरे व्यक्ति के साथ विवाह करती है, दूसरा विवाह पूर्णावस्था को प्राप्त हो जाता है, दूसरे पति को मृत्यु हो जाती है या दूसरा पति तलाक दे देता है तो ऐसी स्त्री अपने पूर्व पति के साथ इद्दत का पालन करने के पश्चात् पुनः विवाह कर सकती है।

        (ग) तीर्थयात्रा में विवाह- मक्का की यात्रा में पवित्र क्षेत्र के भीतर तीर्थ यात्रा में किया गया विवाह शिया, शफेई, मलिकी, हनबली विधि में अमान्य है। परन्तु हनफी विधि के अन्तर्गत ऐसा विवाह मान्य है जैसा कि 'फतवा-ए-आलम गिरी' में व्यक्त किया गया है कि 'इहराम' की हालत में 'मुहरिम' और 'मुहरिमा' का अन्तर्विवाह वैध होता है।

          (घ) समानता (कफा) के नियम के विरुद्ध किया गया विवाह - हनफी विधि के अनुसार पति और पत्नी के सामाजिक स्तर में समानता विवाह की आवश्यक शर्त है। यदि कोई वयस्क लड़की अपने से निम्न सामाजिक स्तर के व्यक्ति के साथ विवाह करती है तो ऐसे व्यक्ति जो कि यदि वह अवयस्क होती, तो उसके विवाह के संरक्षक होते, विवाह को निरस्त करने हेतु न्यायालय से प्रार्थना कर सकते हैं, ऐसा विवाह शून्यकरणीय होता है।

            

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