हिन्दू विधि में विवाह की अवधारणा


 हिन्दू विधि में विवाह की अवधारणा की समीक्षा

"हिन्दू विवाह एक संस्कार है संविदा नहीं।" हिन्दू विधि के अन्तर्गत उपर्युक्त कथन को मान्यता दी जाती है, अब यह कहां तक सही है और कहाँ तक गलत है इस संबंध में हिन्दू धर्म में ऐसी मान्यता है कि प्रत्येक हिन्दू का यह पुनीत कर्त्तव्य है कि वह विवाह के संस्कार को संपन्न करे। हिन्दू विधि में भी इसकी मान्यता है कि विवाह एक संस्कार है और प्रत्येक हिन्दू के लिए अनिवार्य भी। हिन्दू विधिशास्त्र में ऐसा वर्णित है कि प्रत्येक स्त्री की रचना मां बनने के लिए की गयी है और प्रत्येक पुरुष की रचना पिता बनने के लिए, पत्नी अर्द्धांगिनी है पुरुष अपूर्ण तथा विवाह संस्कार के द्वारा ही वह पूर्णता को प्राप्त करता है। (मनुस्मृति)

मनु कहते हैं कि "पति-पत्नी का आपसी विश्वास परम धर्म है।" वेदों में कहा गया है कि "धर्म का आचरण पुरुष अपनी पत्नी के साथ करे। स्त्री को अर्द्धांगिनी कहा जाता है जिसका अर्थ होता है कि पुरुष का आधा भाग स्त्री है अर्थात् विवाह के बिना पुरुष का व्यक्तित्व अधूरा है। विवाह के पश्चात् उसका व्यक्तित्व पूर्ण माना जाता है।"

हिन्दू विवाह को संस्कार इस आधार पर भी कहा जा सकता है कि वर-कन्या के मध्य कोई दान, संविदा का स्वरूप नहीं बनता है। यह तो वास्तव में कन्या के पिता द्वारा वर को दिया गया दान है जो कि अत्यन्त पवित्र एवं महत्वपूर्ण दान माना जाता है। जिसके अनुसार यह ऐसा बन्धन है जो न केवल एक जन्म बल्कि सात जन्मों तक एक दूसरे का साथ निभाने के लिए होता है।

गोपाल कृष्ण बनाम बैंकटसर (1914) 37 मद्रास 273 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि विवाह का महत्व इस तथ्य से स्पष्ट होता है कि हिन्दू विधि में विवाह को उन दस संस्कारों में से प्रधान संस्कार माना गया है जो शरीर को उसके वंशानुगत दोषों से शुद्ध करता है। इस प्रकार हिन्दू विधि में विवाह को न तो वासना का साधन माना गया है और न संविदात्मक स्वरूप बल्कि इसे तो एक धार्मिक अनुष्ठान की संज्ञा दी गई है।

         हिन्दू विवाह का संविदात्मक स्वरूप

जब हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 को लागू किया गया तब हिन्दू विधि से विवाह सम्बन्धी उक्त धारणा के स्वरूप में परिवर्तन होने लगा। अब विवाह संस्कार नहीं, बल्कि एक संविदा का रूप धारण करने लगा है। हालांकि अभी भी विवाह के धार्मिक मूल्यों में तो परिवर्तन नहीं हुए हैं लेकिन इस अधिनियम के आने के बाद इसके संस्कारात्मक स्वरूप में परिवर्तन हुए हैं और इसने संविदात्मक स्वरूप को धारण कर लिया है। यदि हम उदाहरण के तौर पर देखना चाहें तो विवाह को सात जन्मों का अटूट सम्बन्ध माना जाता था-इस अधिनियम ने उसे पहले जन्म में जीवित होते हुए भी तोड़ने की अनुमति प्रदान कर दी है।हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 के तमाम ऐसे उपबंध हैं जिन्हें यदि संस्कारात्मक स्वरूप की कसौटी पर कसा जाय तो वह खरे नहीं उतर सकते बल्कि वह बिल्कुल संविदा जैसे कार्य कर रहे हैं।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि हिन्दू विवाह विशुद्ध रूप से न तो संस्कार ही रहा और न ही संविदा बल्कि इसमें दोनों के होने का आभास किया जा सकता है।

         वे अधिकार जिसके कारण विवाह को समाप्त या शून्य घोषित किया जा सकता है-

 विवाह विधियां (संशोधन) अधिनियम, 1976 के द्वारा संशोधित हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5) उन 3 आधारों को बताती हैं, जिनकी उपस्थिति होने पर विवाह शून्य घोषित किया जा सकता है. वे आधार निम्न हैं-

(1) विवाह के समय किसी पक्ष का पति या पत्नी का जीवित होना-

यदि विवाह के समय वर एवं कन्या दोनों पक्षों में से किसी भी पक्ष का जीवित पत्नी या पति होगा तो विवाह शून्य होगा।

(2) जब विवाह प्रतिषिद्ध सम्बन्ध में हुआ हो-

ऐसा कोई भी विवाह जो प्रतिषिद्ध सम्बन्धों के भीतर सम्पन्न हुआ है जब तक कि कोई प्रथा या चलन उसे ऐसा करने की मान्यता नहीं देती तो ऐसा विवाह शून्य माना जायेगा।

(3) जब विवाह सपिण्ड सम्बन्ध में हुआ हो-

ऐसा कोई भी विवाह जो सपिण्ड सम्बन्धों में हुआ है शून्य होगा। जब तक कोई भी प्रथा या चलन जो पक्षकारों को शासित करती हो, उनके पक्ष में हो और यदि कोई भी विवाह प्रतिषिद्ध नातेदारी  या सपिण्ड सम्बन्धों के बीच सम्पन्न होता है तो धारा 18 (ब) के तहत पक्षकारों को एक माह तक सादा कारावास या एक हजार रुपये जुर्माना दोनों से दण्डित किया जा सकता है।

"महिलाओं का उनके पिताओं, भाइयों, पतियों और जेठ, देवरों के द्वारा जो अपने कल्याण की इच्छा रखते हैं, सम्मान और अलंकरण किया जाना चाहिए। जहाँ महिलाओं का सम्मान होता है वहाँ ईश्वर प्रसन्न रहते हैं, लेकिन जहाँ उनको सम्मान नहीं मिलता, वहाँ किसी पवित्र संस्कार का फल नहीं मिलता। पति अपनी पत्नी को ईश्वर से प्राप्त करता है, उसे हमेशा पत्नी को जब तक पति के प्रति वफादार है, आश्रय देना चाहिए।"

मनु के उपरोक्त कथन को हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 द्वारा कई तरीकों से मान्यता दी गई है जैसे-केवल एक विवाह अर्थात् धारा 5 के अन्तर्गत विवाह के लिये आवश्यक शर्तें, धारा 7 के अन्तर्गत संस्कार, धारा 9 के अन्तर्गत दाम्पत्य अधिकारों का प्रत्यास्थापन, धारा 10 न्यायिक पृथक्करण, धारा 13 तलाक, धारा 17 द्विविवाह के लिए दण्ड।

धारा 24 के अन्तर्गत पत्नी को वादकालीन भरण-पोषण और कार्यवाहियों के व्यय की व्यवस्था तथा धारा 25 के अन्तर्गत स्थायी निर्वाह-व्यय और भरण-पोषण इत्यादि उपबन्ध।

हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5 (1) के अनुसार-हिन्दू विवाह के लिये यह आवश्यक शर्त है कि दोनों पक्षकारों में से किसी का पति या पत्नी विवाह के समय जीवित नहीं हैं।

यह शर्त यह दर्शाती है कि यदि विवाह के समय पति की कोई पत्नी जीवित है या पत्नी का कोई पति जीवित है तो दूसरा विवाह नहीं किया जा सकता अन्यथा धारा 17 के अन्तर्गत ऐसा विवाह शुन्य होगा और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494 और 495 के अन्तर्गत विवाह के दोषी पक्षकार दण्डनीय होंगे। इस शर्त में पति पर भी यह दायित्व डाला गया है कि वह केवल एक ही विवाह कर सकता है। चूंकि पत्नी के प्रति आदर और सम्मान करना पति का कर्तव्य है इसलिए यह आवश्यक है कि वह केवल एक पत्नी के साथ ही अपनी-अपनी पत्नी का असम्मान और शोषण करना होगा इसी बात को ध्यान में रखकर घारा 5 (1) में एक विवाह को ही मान्यता दी गयी है।

धारा 7 के अन्तर्गत रुढ़िगत आचारों और संस्कारों को मान्यता दी गई हैं। इसके तहत (1) होम (2) कन्यादान और (3) सप्तपदी भी आते हैं।

कन्यादान प्रथा में पिता द्वारा अपनी पुत्री को वर के हाथों में सौंप दिया जाता है। यह एक प्रकार से पिता द्वारा अपनी पुत्री के प्रति उच्चतम सम्मान ही होता है।

(धारा 9) में दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की व्यवस्था यह दर्शाती है कि न्यायालय पति और पत्नी के सम्बन्ध को बनाये रखने का अवसर प्रदान करेगा। यदि किसी कारणवश पत्नी को पति द्वारा त्याग दिया जाता है तो त्याग दिये जाने के लिये आवेदन किया जाता है तो न्यायालय एक बार पुनर्स्थापन का प्रयास करेगा। यह एक तरह से न्यायिक सम्मान है। यह बात पति और पत्नी दोनों पर लागू होती है। धारा 10 में न्यायिक पृथक्करण की व्यवस्था यह दर्शाती है कि यदि महिला का अनादर इत्यादि किया जाता है तो वह न्यायिक पृथक्करण की डिक्री प्राप्त कर सकती है। यह बात भी पति और पत्नी दोनों पर ही लागू होती है।

धारा 13 विवाह-विच्छेद (तलाक)- विवाह-विच्छेद अवैध मैथुन, क्रूरता, दो वर्ष तक अभित्यजन, धर्म परिवर्तन, यौन रोग, 7 वर्ष तक लापता इत्यादि के आधार पर किया जा सकता है। यह उपबंध भी पति और पत्नी दोनों पर लागू होते हैं परन्तु पत्नी को कुछ अतिरिक्त आधार भी दिये गये हैं।

पति यदि पत्नी के साथ अमानवीय व्यवहार, क्रूरता इत्यादि करता है तो यह उसके सम्मान और मर्यादा के खिलाफ है। अतः धारा 23 के अन्तर्गत विवाह-विच्छेद एवं अन्य कार्यवाहियों जो जारकर्म, क्रूरता या अधित्यजन के आधार पर की गयी हैं, में अनुतोष की भी व्यवस्था निदर्दोष पक्षकार के लिये की गयी है।

धारा 24 में वादकालीन-भरण पोषण तथा धारा-25 में स्थायी निर्वाह और भरण-पोषण की व्यवस्था की गयी है।

पत्नी इसके आधार पर विवाह-विच्छेद की डिक्री न्यायालय से प्राप्त कर सकती है। यह उपबन्ध भी दर्शाता है कि पति अपनी पत्नी का सम्मान करने के लिये नैतिक ही नहीं वरन विधिक रूप से भी बाध्य है।

धारा 23 के अन्तर्गत विवाह-विच्छेद या अन्य कार्यवाहियों जो जार-कर्म क्रूरता या अन्य आधार पर की गयी है, में अनुतोष की भी व्यवस्था की गयी है।

धारा 24 वादकालीन भरण-पोषण तथा धारा 25 में स्थायी निर्वाह और भरण-पोषण व्यवस्था की गयी है।

अतः यह उपबन्ध भी दर्शाता है कि पत्नी को भरण-पोषण प्रदान करना पति का नैतिक और विधिक दायित्व है। पत्नी अपने पति पर आश्रित होती है इसलिए उसका भरण-पोषण करना, आश्रय प्रदान करना पति का कर्तव्य है यदि पत्नी की उपेक्षा पति करता है तो पति को भरण पोषण देने के लिये न्यायालय बाध्य कर सकेगा परन्तु पत्नी का भी यह नैतिक कर्त्तव्य है कि पति के साथ वह सतीत्वपूर्ण जीवन बिताये अन्यथा वह भरण-पोषण की अधिकारी नहीं होगी साथ ही विवाह-विच्छेद की भी डिक्री नहीं प्राप्त कर सकती है।

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