क्रम-बंधन के सिद्धांत ( TPA- 1882)
क्रम-बंधन के सिद्धांत
संपत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 81 में प्रतिभूतियों के क्रमबंधन के संबंध में प्रावधान किया गया है। " यदि दो या अधिक सम्पत्तियों का स्वामी उन्हें एक व्यक्ति के पास बंधक रखता है और फिर उन सम्पत्तियों में से एक या अधिक को किसी अन्य व्यक्ति के पास बंधक रखता है, तो तत्प्रतिकूल संविदा के अभाव में पाचिक बंधकदार इस बात का हकदार है कि वह पूर्विक बंधक ऋण को, उसे बंधक न की गई सम्पत्ति या सम्पत्तियों में से वहां तक तुष्ट करवाए जहां तक उससे या उनसे उनकी तुष्टि हो सकती है, किन्तु ऐसे नहीं कि पूर्विक बंधकदार के या किसी ऐसे अन्य व्यक्ति के जिसने उन सम्पत्तियों में से किसी भी सम्पत्ति में कोई हित प्रतिफलेन अर्जित किया है, अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े।"
यह धारा प्रतिभूतियों के क्रमबंधन की विवेचना करती है। क्रमबंधन के सिद्धांत को अंग्रेजी वाद वाल्डविन बनाम वेलचर 3 डी. आर. एण्ड में स्पष्ट किया गया था, जिसका अनुगमन अल्ड्चि बनाम कूपर, (1803) 8 केस में किया गया।
इसके अनुसार जहां दो ऋणदाता हैं जिन्होंने अपने-अपने त्रऋण के लिये प्रतिभूतियां ली हैं, एक की प्रतिभूति दोनों तक परिसीमित हैं और दूसरे की उन दोनों में से एक कोष तक सीमित है वहां न्यायालय आस्तियों या कोष को इस प्रकार व्यवस्थित या क्रमबद्ध करेंगे ताकि वह व्यक्ति जिसे अपने दावे के लिये केवल एक कोष उपलब्ध है, का हित प्रभावित न हो।
इसका उद्देश्य पश्चात्तवर्ती बंधकदार को इस जोखिम से संरक्षण प्रदान करता है जिसके तहत सम्पत्ति पूर्ववर्ती बंधकदार, जिसके पास दूसरी सम्पत्ति की अतिरिक्त प्रतिभूति भी हैं, के देयकों की वसूली में इस प्रकार बेची जायेगी कि दूसरी अन्य के लिये बची रहे। यह एक ऋणदाता की इच्छा पर निर्भर नहीं करेगा कि वह दूसरे को असंतुष्ट करे।
क्रमबंधन का सिद्धांत साम्या के सामान्य नियम पर आधारित है, जिसके अनुसार एक व्यक्ति जिसके पास अपनी मांगों (दावों) की तुष्टि के लिये दो कोष उपलब्ध हैं, वह कोषों के अपने चयन से ऐसा नहीं करेगा कि उस व्यक्ति के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव पहुंचे जिसके पास ऐसा केवल एक कोष उपलब्ध है।
साम्या का यह सिद्धांत स्वयं में उस नीति-शास्त्रीय सूत्र पर आधारित है जो कहता है कि अपने अधिकार का प्रयोग इस प्रकार करो कि उससे दूसरे के हित पर अनावश्यक रूप से प्रतिकूल प्रभाव न पड़े।
क्रम-बंधन का अर्थ
क्रम-बंधन का अर्थ है कि उपलब्ध प्रतिभूति का इस तरह वितरण या प्रबंध किया जाय ताकि ऐसे दोनों या सभी महाजनों के दावों को यथाक्रम संतुष्ट किया जा सके। क्रम-बंधन का सिद्धांत यह मान कर चलता है कि दो संपत्तियां हैं, एक संपत्ति दो व्यक्तियों के हाथ बंधक रखी गई है और दूसरी केवल दूसरे व्यक्ति के हाथ बंधक है। पहले व्यक्ति को दोनों संपत्तियों पर अधिकार (प्रतिभूति) है और दूसरे को केवल दूसरी संपत्ति पर अधिकार है। क्रम-बंधन पहले बंधकदार को उस सम्पत्ति को बेच कर बंधक-ऋण वसूल करने के लिए निर्देश देता है जो दूसरे व्यक्ति के पास बंधक नहीं है।
क्रम-बंधन के सिद्धांत की विशेषताएं- निम्नलिखित हैं-
(1) दोनों या सभी अन्तरण सप्रतिफल हो।
(2) दूसरी प्रतिभूति यदि दायित्व मुक्त हो-क्रमबंधन नहीं।
(3) प्रतिकूल करार-धारा 81 लागू नहीं होगी।
(4) कर्जदार एक व वही हो।
(5) पड्ढे में कोई क्रम बंधन नहीं।
(6) दो बंधक दो सम्पत्तियां-दो पहिले के पास उन्हीं में से एक दूसरे के पास बंधक।
(7) नोटिस हो या न हो।
(8) केवल बंधकदार को लाभ, बंधककर्ता को नहीं।
क्रमबंधन के नियम की आवश्यक शर्तें-
धारा 81 में वर्णित क्रमबंधन के नियम को लागू करने के लिए निम्न शर्तें आवश्यक है-
(1) किसी व्यक्ति का दो या अधिक सम्पत्तियों का स्वामी होता है।
(2) ऐसा व्यक्ति इन दोनों सम्पत्तियों को किसी एक व्यक्ति के पास बंधक रखता है।
(3) इसके उपरांत उन दोनों सम्पत्तियों में से किसी एक सम्पत्ति को किसी दूसरे व्यक्ति के पास बंधक रखता है।
(4) बाद वाला बंधकग्रहीता, पूर्व बंधकग्रहीता को अपना ऋण उस सम्पत्ति से वसूल करने के लिये विवश कर सकता है, जो सम्पत्ति पश्चातवर्ती बंधकग्रहीता को बंधक नहीं की गई है।
(5) पश्चातवर्ती बंधकग्रहीता अपने उक्त अधिकार का प्रयोग निम्न सीमा के अधीन करेगा-
(क) पूर्व बंधकग्रहीता अथवा अन्य सप्रतिफलार्थ अंतरिती के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़े, एवं
(ख) कोई तत्प्रतिकूल संविदा बंधक विलेख में नहीं की गई हो।
सूचना (Notice) - क्रमबंधन का अधिकार सूचना के सिद्धांत के अधीन नहीं है अर्थात् पश्चातवर्ती बंधकदार क्रमबंधन के अधिकार का हकदार, भले ही उसे पूर्व बंधक की सूचना हो।
धारा 81 तथा धारा 56 में अंतर- निम्नलिखित है-
(1) धारा 56 के अंतर्गत उन मामलों के क्रम-बंधन का विवरण दिया गया है जो दो या कई सम्पत्तियां किसी एक व्यक्ति के पास बंधक की गई हों तथा उनमें से कोई एक किसी अन्य व्यक्ति को बेच दी जाय तो क्रेता बंधकदार से इस बात का आग्रह कर सकता है कि उसे बेची गई सम्पत्ति को बंधकदार किसी अपने ऋण के भुगतान में यथासंभव बचाये।
जबकि
धारा 81 उन मामलों में लागू होगी जिसमें पहले बंधक की गई दो या अनेक सम्पत्तियों में कोई एक-दूसरे व्यक्ति के पास पुनः बंधक रखी जाय। क्रम-बंधन के अन्य आवश्यक तत्व एवं विशेषताएं दोनों के समान ही हैं।
(2) धारा 56 में पहले बंधक फिर एक का विक्रय। क्रेता को क्रमबंधन की सुविधा होगी।
जबकि
धारा 81 में दोनों का बंधक। फिर उन्हीं में से एक का द्वितीय बंधक। विपरीत संविदा न हो तो बाद का बंधकी को क्रमबंधन की सुविधा होगी।
(3) धारा 56 विक्रय के अध्याय में है।
जबकि
धारा 81 स्थावर सम्पत्ति के बंधकों के अध्याय में है।
(4) धारा 56 के अंतर्गत क्रमबंधन का अधिकार तत्प्रतिकूल संविदा के अधीन है।
जबकि
धारा 81 स्थावर सम्पत्ति के बंधकों के अध्याय में है।
(5) धारा 56 एक पश्चातवर्ती क्रेता के अधिकार के बारे में प्रावधान करती है।
जबकि
धारा 81 प्रतिभूतियों के क्रमबंधन के बारे में प्रावधान करती है।
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