सबूत का भार
सबूत का भार
अधिनियम के भाग 3, अध्याय 7 की धारा 101 से 114 "क" सबूत के भार के बारे में उपबंध करती है इसके अनुसार,
जो कोई न्यायालय से यह चाहता है कि वह ऐसे किसी विधिक अधिकार या दायित्व के बारे में निर्णय दे, जो उन तथ्यों के अस्तित्व पर निर्भर है, जिन्हें वह प्राख्यात करता है, उसे साबित करना होगा कि उन ततथ्यों का अस्तित्व है।
जब कोई व्यक्ति किसी तथ्य का अस्तित्व साबित करने के लिए आबद्ध है, तब यह कहा जाता है कि उस व्यक्ति पर सबूत का भार है।
इस संदर्भ में धारा 101 में दिए गए दोनों दृष्टांतों का उल्लेख किया जा सकता है-
(ख) "क" न्यायालय से चाहता है कि न्यायालय उन तथ्यों के कारण जिनके सत्य होने का वह प्राख्यान करता है, यह निर्णय दे कि वह "ख" के कब्जे में की अमुक भूमि का हकदार है। "क" को उन तथ्यों का अस्तित्व साबित करना होगा।
जहां तक सबूत के भार का प्रश्न है, यह कार्रवाई के प्रारंभ में ही प्रकरण के तथ्यों के संबंध में ही निश्चित कर लिया जाता है और यह भार सदैव उसी पक्षकार पर होता है जिस पर कि कार्रवाई के प्रारंभ में ऐसा भार सुनिश्चित कर दिया गया है और यह कार्रवाई के दौरान कभी भी एक पक्षकार से दूसरे पक्षकार पर नहीं जाता।
सबूत के भार के प्रश्न की महत्ता को स्पष्ट करते हुए लॉर्ड डूनेडिन ने रॉबिंसन बनाम नेशनल ट्रस्ट कंपनी में कहा कि सबूत का भार उस व्यक्ति पर होता है जो ऐसे तथ्यों के अस्तित्व में होने का दावा करता है और स्वयं सबूत या स्पष्ट नहीं है, कुछ परिस्थितियों में सबूत का भार अपना स्थान बदला लेता है।
धारा 102 तथा 103 में सबूत के भार के संबंध में जो नियम दिए गए हैं उनका संबंध सबूत के भार के दूसरे अर्थ से है, अर्थात कौन पहले साक्ष्य पेश करेगा। धारा 102 में यह प्रावधान किया गया है कि किसी वाद या कार्यवाही में सबूत का भार उस व्यक्ति पर होता है जो असफल हो जाएगा, यदि दोनों में से किसी भी ओर से कोई साक्ष्य ना दिया जाए।
जैसे- यदि "अ" एक प्रोनोट पर लिए गए रुपए के लिए "ब" पर वाद लाता है और "ब" प्रोनोट का निष्पादन स्वीकार करते हुए कहता है कि उसके साथ कपट किया गया था और उसे "अ" से रुपया नहीं मिला था, तो यदि किसी ओर से कोई साक्ष्य न आए तो "अ" अपने वाद में सफल हो जाएगा। क्योंकि "ब" ने प्रोनोट का लिखना स्वीकार किया है और कपट साबित नहीं हुआ, सबूत का भार "ब" पर होगा।
धारा 103 में यह कहा गया है कि किसी विशिष्ट तथ्य के सबूत का भार उस व्यक्ति पर होता है जो न्यायालय से यह चाहता है कि वह उसके अस्तित्व में विश्वास करे, जब तक कि किसी विधि द्वारा यह उपबंधित हो। कि उस तथ्य के सबूत का भार किसी विशिष्ट व्यक्ति पर होगा।
जैसे - यदि "ख" को "क" चोरी के लिए अभियोजित करता है और न्यायालय से यह चाहता है कि न्यायालय यह स्वीकार करें कि "ख" ने चोरी की स्वीकृति "ग" से की थी, तो यह स्वीकृति "क" को साबित करनी होगी और यदि "ख" यह तर्क लेता है की चोरी के समय वह कहीं अन्यत्र था, तो इसे "ख" को साबित करना होगा। साक्ष्य देना प्रारंभ करने के अर्थ में सबूत का भार बदलता रहता है। दावे को साबित करने का भार प्रथमत: वादी पर होता है, परंतु जैसे-जैसे कार्यवाही आगे बढ़ती है सबूत पेश करने का भार द्वितीय अर्थ में, प्रथम पक्ष से, ऐसे तथ्यों को साबित करने के कारण जिससे उसके पक्ष में उपधारणा की जा सकती है, दूसरे पक्ष पर चला जाता है।
पहले अर्थ में सबूत का भार अर्थात वाद स्थापित करने का भार सदैव उसे व्यक्ति पर होता है जो न्यायालय से किसी अधिकार या दायित्व के बारे में निर्णय चाहता है और पूरी कार्यवाही के दौरान यह भार उसी पर बना रहता है, कभी दूसरे पर नहीं जाता, परंतु जहां तक साक्ष्य पेश करने का भार है वह बदलता रहता है। वादी से प्रतिवादी और प्रतिवादी से वादी पर आता रहता है। तब सबूत का भार एक पक्ष से दूसरे पक्ष में चला जाएगा, यह प्रत्येक वाद की प्रकृति और तथ्य पर निर्भर है।
तीन स्थितियों में सबूत का भार एक पक्ष से दूसरे पक्ष पर चला जाता है- विभिन्न न्यायिक निर्णय के परिणाम स्वरुप यह पूर्ण रूप से स्थापित हो चुका है कि एक आपराधिक मामले में केस को साबित करने का भार अभियोजन पर होता है जबकि दीवानी मामले में केस को साबित करने के भार सामान्यत: वादी पर होता है। सबूत के भार के इस सामान्य नियम को साक्ष्य अधिनियम की धारा 101 से 104 में स्पष्ट किया गया है।
परंतु सबूत के भार के उपरोक्त नियम के कुछ अपवाद है, जब सबूत का भार उपरोक्त कथित पक्षकार पर से दूसरे पक्षकार पर चला जाता है। ये अपवाद निम्नलिखित है-
(1) धारा- 105 में दिए गए नियम के अनुसार
(2)धारा-106 में दिए गए नियम के अनुसार
(3)उपधारणा के नियम के अनुसार
(1) धारा 105- साक्ष्य अधिनियम की धारा 105 यह स्पष्ट करती है कि जब कोई अभियुक्त यह बचाव लेता है कि उसका कार्य भारतीय दंड संहिता या किसी अन्य किसी आपराधिक विधि के किसी अपराध के अपवाद के अंतर्गत आता है तो सबूत का भार उस अभियुक्त पर चला जाता है जो ऐसा बचाव लेता है।
उदाहरण- "क" पर "ख" की हत्या का आरोप है "क" मुकदमे में यह बचाव लेता है कि उसने "ख" की हत्या पागलपन के दौरान की थी। यह साबित करने का भार की "क" पागल था, "क" पर होगा न कि अभियोजन पर।
(2) धारा 106- यह प्रावधान करता है कि जब कोई तथ्य विशेष रूप से किसी व्यक्ति की जानकारी में हो, तब उस तथ्य को साबित करने के भार उस व्यक्ति पर होगा जिसके जानकारी में वह तथ्य है।
उदाहरण- "अ" पर यह आरोप है कि वह रेल से बिना टिकट यात्रा कर रहा था। यह साबित करने का भार कि "अ" के पास टिकट था, "अ" पर होगा, क्योंकि यह ऐसा तथ्य है जिसकी जानकारी विशेष रूप से "अ" को ही हो सकती है।
उपयुक्त वाद में यद्यपि "अ" अभियुक्त है, परंतु अपनी निर्दोषिता उसे साबित करनी होगी।
धर्मपाल बनाम स्टेट आफ हरियाणा 2017 के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि जो तथ्य अनन्य ने रूप से अभियुक्त के ज्ञान में है, उन्हें साबित करने के भार अभियुक्त पर ही होता है।
उपधारणा का नियम-
साक्ष्य विधि में धारा 107 से 114 तक उपधारणा के बहुत से नियम दिए गए हैं। इसी प्रकार अन्य विधियों में भी जैसे- भ्रष्टाचार निरोध अधिनियम इत्यादि में भी उपधारणा के नियम दिए गए हैं।
यह उपधारणा भी सबूत के भार को प्रभावित करती है। जब ये उपधारणाऐं किसी व्यक्ति के विरुद्ध की जाती हैं एवं ऐसी उपधारणा खंडनीय है तो ऐसी उपधारणा को साक्ष्य देकर खंडित करने का भार उस पक्षकार पर चला जाता है, जिसके विरुद्ध उपधारणा की गई है।
"अ" पर यह आरोप है कि उसने अपनी पत्नी "ब" की दहेज मृत्यु कारित की है अभियोजन दहेज मृत्यु (भारतीय दंड संहिता 304 'ख') के सभी तत्वों को साबित कर देता है। न्यायालय उपधारणा करेगा कि "अ" ने दहेज़ मृत्यु कारित की है (धारा 113 'ख' साक्ष्य अधिनियम) यह साबित करने का भार कि 'अ' ने दहेज मृत्यु का अपराध नहीं किया है, "अ" (अभियुक्त) पर होगा न कि अभियोजन पर।
उपरोक्त विवेचना के आधार पर कहा जा सकता है कि ऐसी भी कुछ परिस्थितियों होती है, जब किसी मामले में सबूत के भार का सामान्य नियम लागू नहीं होता है एवं सबूत का भार दूसरे पक्षकार पर चला जाता है, न कि उस पक्षकार पर होता है जिस पर सबूत के भार के नियम (धारा 101 से 104) के अनुसार होना चाहिए।
सिविल एवं आपराधिक मामलों में सबूत का भार-
सिविल मामलों -
सिविल मामलों में संभाव्य की प्रबलता के आधार पर निर्णय दिया जाता है सबूत का मानक या स्तर समस्त दीवानी मामले में लागू होता है यदि कोई पक्षकार किसी तथ्य को प्राख्यात करता है तो उसे उस तथ्य को साबित करना आवश्यक है। किसी तथ्य के बारे में उस दशा में कहा जा सकता है कि वह साबित हो गया है। जबकि वह अधिसम्भावताओं की प्रबलता द्वारा साबित हो जाए।
मोहम्मद अयूब इस्माइल बनाम श्रीमती फोजिया मोइनुद्दीन 2017 हैदराबाद के एक मामले में कहा गया कि प्रतिवादी के मामले की कमजोरियों पर आश्रित रहे बिना अपने मामले को साबित करने का भार वादी पर होता है।
आपराधिक मामलों-
अपराधिक न्यायशास्त्र का मूलभूत सिद्धांत है कि किसी व्यक्ति को तब तक निर्दोष माना जाए जब तक उसकी दोषिता को पूर्ण रूप से सिद्ध नहीं कर दिया जाता है जब तक अभियुक्त पर लगाया गया आरोप साबित न हो जाए। अभियुक्त की निर्दोषिता का उपधारित रहती है। और आरोप में सभी तथ्यों को साबित करने के भार अभियोजन पक्ष पर रहता है।
विजय सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 1990 के वाद में अभिनिधारित किया गया कि यदि अभियुक्त के विरुद्ध उपधारणा उसके द्वारा परिस्थितियों के अनस्तित्व या अविद्यमानता के लिए अभिवाक् के पक्ष में हट जाती है और यदि विषय की परीक्षा से युक्तियुक्त सन्देह उत्पन्न हो जाए तो इसका लाभ अभियुक्त को मिलेगा। अभियुक्त भार को धारा 105 के अधीन भी अभी अपने अभिवाक् के पक्ष में अधिसंभावना की प्रबलता द्वारा उन्मोचित कर सकता है।
विशिष्ट मामलों (धारा 103)-
जब कोई पक्षकार किसी विशिष्ट तथ्य के अस्तित्व के बारे में यह चाहता है कि न्यायालय उस पर विश्वास करें, तो ऐसे तथ्य को साबित करने का भार उसी पर है।
दृष्टांत- "क" न्यायालय से चाहता है कि वह विश्वास करे कि प्रश्नगत समय पर वह अन्यत्र था उसे यह बात साबित करनी होगी।
प्रश्न- (1)सबूत के भार से क्या तात्पर्य है, सिविल एवं आपराधिक मामले में सबूत का क्या स्तरमान है।
(2) सबूत का भार किन परिस्थितियों में दूसरे पक्ष पर परिवर्तित हो जाता है।
(3) दीवानी और आपराधिक मामले में तथ्यों के प्रमाण के नियम मूलत भिन्न-भिन्न है। इस कथन को पूर्णतया भारतीय साक्ष्य अधिनियम तथा न्यायालयों की इस विषय में प्रक्रियाओं का हवाला देती है वह समझाइए।
(4) सबूत के भार पर उपधारणाओं का क्या प्रभाव पड़ता है।https://urlwwwvidiksangyan.blogspot.com/2023/11/blog-post_20.html
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