प्रश्न करने की न्यायालय की शक्ति


प्रश्न करने की न्यायालय की शक्ति (धारा 165)-

न्यायाधीश से सुसंगत तथ्य का पता चलाने के लिए या सबूत अभिप्राप्त करने के लिए, किसी भी रूप में किसी भी समय किसी भी साक्षी या पक्षकारों से सुसंगत या विसंगत किसी भी तथ्य के बारे में कोई भी प्रश्न पूछ सकेगा, तथा किसी भी दस्तावेज या चीज को पेश करने का आदेश दे सकेगा, और न तो पक्षकार न उसके अभिकर्ता हकदार होंगे कि वे ऐसे प्रश्न या आदेश के प्रति कोई भी आक्षेप करें न ऐसे किसी प्रश्न के प्रतिउत्तर में दिए गए किसी भी उत्तर पर किसी भी साक्षी की न्यायालय के इजाजत के बिना प्रतिरक्षा के हकदार होंगे।

     परंतु -

(1)निर्णय केवल उन्हीं तथ्यों पर आधारित किया जाएगा जो इस अधिनियम द्वारा सुसंगत घोषित किए गए और सम्यक रूप से साबित हो चुके हैं।

(2) न्यायालय कोई ऐसे प्रश्न का उत्तर देने को विवश नहीं कर सकेगा जिसका उत्तर यदि वह किसी पक्षकार द्वारा दिया गया होता तो धारा 121 से 131 (विशेषाधिकार संसूचनाओं) तक की धाराओं के अधीन साक्षी साक्ष्य देने से  इंकार का हकदार होता।

(3) न्यायाधीश ऐसा कोई प्रश्न नहीं पूछेगा जो धारा 148 या 149 के अधीन किसी अन्य व्यक्ति द्वारा पूछे जाने पर अनुचित माना जाता।

(4) न्यायाधीश किसी साक्षी को ऐसी दस्तावेज पेश करने के लिए विवश नहीं कर सकेगा जो यदि वह प्रस्ताव पक्षकार द्वारा मांगी गई होती उसको पेश करने से उक्त धाराओं के अधीन इंकार करने का हकदार होता।

(5) न्यायाधीश किसी दस्तावेज़ के प्राथमिक सबूत से अभीमुक्ति दे सकेगा सिवाय उन दशाओं  में जिनमें अधिनियम की अन्य धाराओं द्वारा अभिमुक्ति दी जा सकती है।

      सिविल और दांड़िक कार्यवाही में, विधानमंडलों ने न्यायालयों में इस शक्ति का प्रयोग करने के लिए प्रचुर मात्रा में शक्तियां निहित कर रखी है (सीपीसी आदेश x नियम 2,4 आदेश 16 नियम 14 और दण्ड  प्रक्रिया संहिता की धारा 311)

       रामचंद्र बनाम स्टेट आफ हरियाणा 1981 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि धारा 165 के अंतर्गत न्यायालय की शक्ति की व्याख्या की। आभियोजन पक्ष की ओर से आने वाले गवाहों में से दो ने अपने पूर्व कथनों से भिन्न बातें कहीं। न्यायाधीश ने उन्हें धमकी दी कि यदि वे अपना बयान बदलेंगे तो उन्हें झूठी गवाही में फंसाया जाएगा। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि न्यायाधीश ने अपनी शक्ति से बाहर होकर बात कही थी। 







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