स्वीकृति (साक्ष्य अधिनियम)
स्वीकृति के संबंध में भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 17 18 19 20 21 22 23 31 58 में (स्वीकृत तत्वों को साबित किया जाना आवश्यक नहीं है) के संबंध में उपबंध किया गया है। जबकि स्वीकृति की परिभाषा अधिनियम की धारा 17 में की गई है जो निम्नवत है-
"स्वीकृति को हम मौखिक या दस्तावेजी या इलेक्ट्रॉनिक रूप में लेखबद्ध कथन है जो किसी भी विवाद्यक या सुसंगत तथ्य के बारे में कोई अनुमान सुझाता है"।
धारा 17 स्वीकृत की परिभाषा पूरे तौर पर नहीं दे पाती है, ऐसे मौखिक और दस्तावेज कथन किन व्यक्तियों द्वारा किन परिस्थितियों में स्वीकृत की कोटि में आने के लिए किया गया हो, इस बारे में धारा 17 केवल (धारा 18 से 20 की तरफ) संकेत करती है जिनमें उन विशिष्ट व्यक्तियों और विशिष्ट परिस्थितियों का उल्लेख है, जिनके द्वारा और जब उपयुक्त कथन स्वीकृति का रूप ले सकेंगी ।
स्वीकृति तथ्य का ऐसा कथन है जिसमें विपक्षी द्वारा कही गई बातों को स्वीकार कर लिया जाता है और तब उसको साबित करने के लिए साक्ष्य पेश करने की आवश्यकता समाप्त हो जाती है स्वीकृतियों को ग्रहण इसलिए किया जाता है, क्योंकि विवाद विषय से संबंध किसी कार्रवाई में एक पक्ष का आचरण (चाहे बातों, कार्यों या लेख से) उसके द्वारा दिए गए तर्कों की सत्यता से वास्तव में अधिनियम की धारा में 17 18 19 20 स्वीकृति को परिभाषित करती है यदि अधिक मेल नहीं खाता तो विवाद से सुसंगत तथ्य है।
वास्तव में अधिनियम की धारा 17 18 19 20 स्वीकृति को परिभाषित कर पाती है, न कि केवल स्वीकृतियाॅ एक कमजोर साक्ष्य होती है यदि न्यायालय अन्य परिस्थितियों के कारण उसकी असत्यता से संतुष्ट हो जाए , तो उन्हें अस्वीकार कर सकता है। स्वीकृतियां ग्राहय है, क्योंकि साक्ष्य विधि के अंतर्गत वह सुसंगत है।
साक्ष्यिक मूल्य-
स्वीकृतियों के शैक्षिक मूल्य के विषय में साक्ष्य अधिनियम बिल्कुल मौन है, स्वीकृतियां यदि सही एवं स्पष्ट हो तो वह स्वीकृत तथ्यों का सबसे अच्छा सबूत अर्थात ठोस सबूत है।भारत सिंह बनाम भागीरथ के वाद में कहा गया यदि स्वीकृतियों को उन्हें करने वाले व्यक्तियों के विरुद्ध इस्तेमाल किया जाता है तो उन्हें स्पष्ट एवं स्वतंत्र होने चाहिए ।
साक्ष्य अधिनियम की धारा 21 यह निर्धारित करती है, कि स्वीकृतियां सुसंगत है, और उसके तथा उसके हितबद्ध प्रतिनिधि के विरुद्ध प्रमाणित की जा सकती है, जो उन्हें करता है। और यदि वह समुचित रूप से प्रमाणित हो जाती है, तो भले निर्णायक रूप से नहीं, फिर भी वह उन तथ्यों का पर्याप्त प्रमाण होती हैं, जिनको स्वीकारा गया है
स्वीकृति के शैक्षिक मूल्य के विषय में अधिनियम की (धारा 31 और 58 थोड़ा) निर्देश करती है स्वीकृति को क्रमशः न्यायिक स्वीकृति और न्यायिकेतर स्वीकृति में विभाजित करते हैं।
न्यायिक स्वीकृति - धारा 58 यह निर्देश करती है कि जब तथ्य की स्वीकृति कर ली जाए तो उसे साबित किया जाना आवश्यक नहीं है। यदि स्पष्ट और स्वतंत्र स्वीकृति नहीं है तो न्यायालय अतिरिक्त साक्ष्य ले सकेगा।
न्यायिकेतर स्वीकृति-
धारा 31 साक्ष्यिक मूल्य के संबंध में केवल इतना कहते हैं कि स्वीकृति स्वीकृत तथ्यों का निश्चयिक सबूत तो नहीं है लेकिन विबंधित अवश्य कर सकती है।
धारा 115 - जब किसी व्यक्ति ने एक व्यक्ति के आचरण से अपनी स्थिति में परिवर्तन कर लिया है ,तो उसे उसकी स्वीकृति से विबंधित कर दिया जाएगा।
राम जी दया वाला बनाम इन्वेस्ट इंपोर्ट-
इस वाद में कहा गया कि स्वीकृति का जब तक स्पष्टीकरण न दे दिया जाए सर्वोत्तम साक्ष्य होती है।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि सिद्धांत यह है कि जब किसी तथ्य को कोई पक्षकार स्वयं सत्य होना अभिवाचित करता है तो उसके बारे में यह उपधारणा की जा सकती है कि वह सत्य है जब तक कि इस उपधारणा का खंडन नहीं किया जाता है साथ ही भ्रांति मूलक स्वीकृति से वह व्यक्ति बाध्य नहीं है जिसने उसे किया है।
चिक्मकेश्रवरा बनाम सुब्बारावराव के वाद में अभिनिर्धारित किया गया कि किसी व्यक्ति का कोई अधिकार उसी के द्वारा की गई स्वीकृति के आधार पर छीनने के लिए यह आवश्यक है कि उसके द्वारा की गई स्वीकृति स्वतंत्र, विश्वसनीय एवं अंतिम हो। उसमें कोई शक या अनिश्चितता की बात नहीं होनी चाहिए।https://urlwwwvidiksangyan.blogspot.com/2023/11/blog-post_3.htm
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