अन्तः कालीन लाभ-

 

अन्तः कालीन लाभ-


'अन्तःकालीन लाभ' शब्द CPC की धारा 2(12) के अन्तर्गत परिभाषित किया गया है, जिसका अभिप्राय ऐसे लाभ से होता है, जो किसी व्यक्ति द्वारा सम्पत्ति के सदोषपूर्ण कब्जे के दौरान प्राप्त किया जाता है। अथवा साधारण श्रम द्वारा प्राप्त किया जा सकता था। इस लाभ के अन्तर्गत वह ब्याज भी सम्मिलित है जो ऐसी सम्पत्ति पर उत्पन्न हो सकता था। परन्तु यह स्मरणीय बिन्दु है कि इस लाभ के अन्तर्गत प्राप्त किया गया ऐसा लाभ साम्मलित नहीं होगा जो सदोषपूर्ण कब्जाधारी के द्वारा सम्पत्ति पर सुधार करने के कारण प्राप्त किया गया है। 

अन्तःकालीन लाभ के निर्धारण के लिये न्यायालय उन लाभों को विचारण में ले सकता है जो सदोषपूर्ण कब्जाधारी के द्वारा वस्तुतः प्राप्त किये गये हैं। अथवा युक्तियुक्त रूप से प्राप्त किये जा सकते थे। अन्तःकालीन लाभ की अवधारणा स्थापित करने के पीछे आधार यह है कि व्यथित व्यक्ति को उसी स्थान पर खड़ा करना है जहाँ पर वह पहले खड़ा था। ब्याज दर सुनिश्चित करने हेतु न्यायालय को स्वेच्छा प्रदान कर दी गयी हैं, परन्तु यह दर 6% वार्षिक से अधिक नही होनी चाहिये।

यह अवधारणा उच्चतम न्यायालय के द्वारा महन्त नारायण दास जी बनाम तिरुपति देव स्थानम के मामले में मान्य ठहरा दी गयी ।



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