प्रलक्षित प्राङ्गन्याय का सिद्धान्त (Constructive Res-Judicata) धारा -11स्पष्टीकरण- 4

 प्रलक्षित प्राङ्गन्याय का सिद्धान्त (Constructive Res-Judicata) धारा -11स्पष्टीकरण- 4-


प्रलक्षित प्राङ्ग‌न्याय वह प्राङ्गन्याय होता है, जो प्रत्यक्ष रूप से प्राङ्गन्याय नहीं होता है। यह एक कृत्रिम प्राङ्गन्याय का सिद्धान्त होता है, जिसे वादों को रोकने के लिये प्रयोग किया जाता है। 

प्रलक्षित प्राङ्गन्याय के सिद्धान्त की अवधारणा धारा-11 के चौथे स्पष्टीकरण के अन्तर्गत समाहित किया गया है। इस स्पष्टीकरण के अनुसार प्राङ्गन्याय का सिद्वान्त उन विषयों के बारे में भी लागू होता है, जो पूर्ववर्ती वाद में प्रतिरक्षा या आक्रमण बनाये जा सकते थे और जिन्हे अवश्य ही बनाया जाना चाहिये था और उन्हें प्रतिरक्षा के द्वारा आक्रमण या प्रतिरक्षा का अधिकार बनाया नहीं गया है तो यह मान लिया जायेगा कि ऐसे आधार उस पूर्ववर्ती वाद में प्रत्यक्षतः तथा सारतः विवाद्यक रह चुके हैं।

यदि ऐसा मान लिया जायेगा। तो उन मामलों पर भी प्राङ्गन्याय का सिद्वान्त प्रलक्षित रूप से लागू हो जायेगा, तथा पक्षकारों को इन आधारों पर वाद प्रारम्भ करने तथा की अनुमति नहीं दी जायेगी। 

स्पष्टीकरण-4 से यह स्पष्ट हो जाता है कि यदि कोई आधार पक्षकार के द्वारा उठाया जाना चाहिये। था परन्तु वह नहीं उठाया गया है तो वह प्राङ्गन्याय के सिद्धान्त से आच्छादित माना जायेगा ।

वर्कमेन सी ०पी० ट्रष्ट बनाम बोर्ड ऑफ ट्रस्टीज के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णीत किया कि प्राङ्गन्याय का सिद्वान्त उन मामलों पर भी लागू होता है, जो मामले न्यायालय के निर्णय या आदेश में अन्तर्निहित प्रतीत होते हैं।

 उच्चतम  न्यायालय के द्वारा यह अवधारणा प्रलक्षित प्रकार अन्य कई मामलों जैसे देवी लाल बनाम  एस.टी.ओ., स्टेट ऑफ यूपी. फारवर्ड कंस्ट्रक्सन कम्पनी बनाम नवाब हुसैन, प्रभात मण्डल के मामलों में भी मान्य ठहरायी।

इस अवधारणा को मान्य ठहराते हुये उच्चतम न्यायालय ने ऐसे आधारों को जो उठाये जा सकते थे तथा अवश्य ही उठाये जाने चाहिये थे, वास्तव में उठाये गये अधिकारों के बराबर दर्जा प्रदान कर दिया। इस अवधारणा के पीछे तर्क यह है कि यदि पक्षकार ने किसी आधार को प्रतिरक्षा अथवा आक्रमण के रूप में उठाने में व्यतिक्रम किया है, तो इसका लाभ उस पक्षकार को प्राप्त करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये, तथा वादों की बहुलता को बढ़ाने के लिये उसे स्वतंत्र नहीं छोड़ा जाना चाहिये। यह एक प्रकार से उपधारणात्मक प्राङ्गन्याय का सिद्धान्त है, जिसे धारा-11 के स्पष्टीकरण-4 के द्वारा विधिक मान्यता प्रदान 'कर दी गयी है।




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