निर्णय और डिक्री-

 निर्णय और डिक्री-


 सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 33 एवं आदेश 20 में निर्णय और डिक्री के संबंध में आवश्यक उपबंध किया गया है।

न्यायालय मामले की सुनवाई कर लेने के पश्चात् निर्णय सुनाएगा और ऐसे निर्णय के अनुसरण में डिक्री होगी।

वाद की अन्तिम सुनवाई होने के उपरांत न्यायालय वाद का निर्णय देगा और उसके अनुरूप डिक्री संरचित होगी। किसी वाद में निर्णय एवं डिक्री का महत्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि पीड़ित पक्षकार ने जो न्यायालय में वाद दाखिल किया उसका उपचार न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय में आता है। संहिता की धारा 33 सामान्य नियम निर्धारित करते हुए उल्लिखित करती है कि न्यायालय मामले की सुनवाई हो चुकने के पश्चात् निर्णय सुनायेगा और ऐसे निर्णय के अनुसरण में डिक्री होगी। आदेश 20 में यह प्रावधान किया गया हैं कि न्यायालय निर्णय किस प्रकार से सुनायेगा, उसमें क्या अन्तर्विष्ट होगा तथा उसके अनुरूप किस प्रकार से डिक्री संरचित की जायेगी। न्यायालय द्वारा दिये जाने वाले निर्णय के संबंध में आदेश 20 के नियम 1 से 5 तक में निम्न प्रावधान किये गये हैं-

नियम-1-निर्णय कब सुनाया जाएगा 

(1) न्यायालय मामले की सुनवाई कर लेने के पश्चात निर्णय खुले न्यायालय में या तो तुरन्त या तत्पश्चात यथासाध्य शीघ्र सुनाएगा और जब निर्णय किसी भविष्यवर्ती दिन को सुनाया जाना है तब न्यायालय उस प्रयोजन के लिये कोई दिन नियत करेगा, जिसकी सम्यक् सूचना पक्षकारों या उसके प्लाडरों को दी जायेगी।

परन्तु

जहां निर्णय तुरंत नहीं सुनाया गया है, वहां न्यायालय निर्णय, उस तारीख से, जिस तारीख को सुनवाई समाप्त हुई थी, 30 दिन के भीतर सुनाने का पूरा प्रयास करेगा, किन्तु जहां ऐसा करना, प्रकरण की विशेष एवं अपवादिक परिस्थितियों में, साध्य नहीं है, वहां न्यायालय निर्णय के सुनाने के लिए कोई भविष्यवर्ती दिन नियत करेगा और ऐसा दिन साधारणतः उस तारीख, जिसके मामले की सुनवाई समाप्त हुई थी, 60 दिन के बाद का नहीं होगा और इस प्रकार नियत किये गये दिन की सम्यक् सूचना पक्षकारों या उसके प्लीडरों को दी जायेगी। परन्तु मुम्बई उच्च न्यायालय ने प्रदीप के. आर, बनाम स्टेट ऑफ गोआ  2007  के वाद में यह निर्णीत किया कि जिला उपभोक्ता मंच द्वारा अपने निर्णय के सुनाने में पन्द्रह दिन की देरी उपभोक्ता के अधिकार को नकारात्मक करता है, इसीलिये यह देरी उचित नहीं है। अतः इस सन्दर्भ में कुछ नियम बनाना आवश्यक है।

(2) जहां लिखित निर्णय सुनाया जाना है वहां यदि प्रत्येक विवाद्यक पर न्यायालय के निष्कर्षों को और मामले में पारित अंतिम आदेश को पढ़ दिया जाता है तो वह पर्याप्त होगा और न्यायालय के लिए यह आवश्यक नहीं होगा कि वह सम्पूर्ण निर्णय को पढ़कर सुनाये।

(3) निर्णय खुले न्यायालय में आशुलिपिक को बोलकर लिखाते हुए केवल तभी सुनाया जा सकेगा, जब न्यायाधीश उच्च न्यायालय द्वारा इस निमित्त विशेष रूप से सशक्त किया गया है।

परन्तु,

जहां निर्णय खुले न्यायालय में बोलकर लिखाते हुए सुनाया जाता है, वहां इस प्रकार सुनाए गए निर्णय की प्रतिलिपि उसमें ऐसी शुद्धियां करने के पश्चात जो आवश्यक हो, न्यायाधीश द्वारा हस्ताक्षरित की जाएगी, उस पर वह तारीख लिखी जायेगी, जिसको निर्णय सुनाया गया था और वह अभिलेख का भाग होगी।

नियम-2-न्यायाधीश के पूर्ववर्ती द्वारा लिखे गये निर्णय को सुनाने की शक्ति- 

न्यायाधीश ऐसे निर्णय को सुनायेगा जो उसके पूर्ववर्ती ने लिखा तो है किन्तु सुनाया नहीं है।

नियम-3 निर्णय हस्ताक्षरित किया जायेगा-

निर्णय सुनाये जाने के समय न्यायाधीश उस पर खुले न्यायालय में तारीख डालेगा और हस्ताक्षर करेगा और जब उस पर एक बार हस्ताक्षर कर दिया गया है तब धारा 152 द्वारा उपबन्धित के सिवाय या पुनर्विलोकन के सिवाय उसके पश्चात् उसमें न तो कोई परिवर्तन किया जायेगा और न कोई परिवर्धन किया जायेगा।

नियम-4 लघुवाद न्यायालयों के निर्णय -

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(1) लघुवाद न्यायालयों के निर्णयों में अवधार्य प्रश्नों और उनके विनिश्चय से अधिक और कुछ अन्तर्विष्ट होना आवश्यक नहीं है।

(2) अन्य न्यायालयों के निर्णय के मामले का संक्षिप्त कथन, अवधार्य प्रश्न, उनका विनिश्चय और ऐसे विनिश्चय के कारण अन्तर्विष्ट होंगे।

ओमप्रकाश बनाम कैवर खां  2014  के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णीत किया कि न्यायालय को अपने निर्णय में ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध जो वाद का पक्षकार नहीं है, अनुपयुक्त कथन नहीं करना चाहिए।

नियम-5-न्यायालय हर एक विवाद्यक पर अपने विनिश्चय का कथन करेगा-

उन वादों में, जिनमें विवाद्यक की विरचना की गयी है, जब तक कि विवाद्यकों में से किसी एक या अधिक का निष्कर्ष वाद के विनिश्चय के लिये पर्याप्त न हो, न्यायालय हर एक पृथक् विवाद्यक पर अपना निष्कर्ष या विनिश्चय उस निमित्त कारणों के सहित देगा।

                   डिक्री-

न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय के अनुसरण में एक डिक्री संरचित की जायेगी। इस सन्दर्भ में आदेश 20 नियम 6 से 8 में डिक्री तैयार करने की विधि तथा नियम 9 से 20 तक में विशिष्ट मामलों में डिक्री संरचित करने के नियम उल्लिखित किये गये हैं।

नियम-6 डिक्री की अन्तर्वस्तु -

(1) डिक्री निर्णय के अनुरूप होगी, उसमें वाद का संख्यांक, पक्षकारों के नाम और वर्णन, उनके रजिस्ट्रीकृत पते और दावे की विशिष्टियां होगी और अनुदत्त अनुतोष या वाद का अन्य अवधारण उसमें स्पष्टतया विनिर्दिष्ट होगा।

(2) वाद में उपगत खर्चों की रकम भी और यह बात भी कि ऐसे खर्चे किसके द्वारा या किस सम्पत्ति में से और किस अनुपात में संदत्त किये जाने हैं, डिक्री में कथित होगी।

(3) न्यायालय निदेश दे सकेगा कि एक पक्षकार को दूसरे पक्षकार द्वारा देय खर्च किसी ऐसी राशि के विरुद्ध मुजरा किये जाएं जिसके बारे में यह स्वीकार किया गया है या पाया गया है कि यह एक दूसरे को शोध्य है।

नियम- 6 'क' डिक्री का तैयार किया जाना-

 (1) यह सुनिश्चित करने के लिए हर प्रयास किया जायेगा कि डिक्री जहां तक संभव हो शीघ्रता से और किसी भी दशा में उस तारीख से पन्द्रह दिन के भीतर जिसको निर्णय सुनाया जाता है, तैयार की जाए।

(2) डिक्री की प्रति दाखिल किये बिना डिक्री के विरुद्ध अपील की जा सकेंगी और किसी ऐसी दशा में न्यायालय द्वारा पक्षकार को उपलब्ध कराई गई प्रति आदेश 41 के नियम 1 के प्रयोजनों के लिए डिक्री मानी जाएगी। किन्तु जैसे ही डिक्री तैयार हो जाती है, निर्णय निष्पादन के प्रयोजनों के लिए या किसी अन्य प्रयोजन के लिए डिक्री का प्रभाव नहीं रखेगा।

नियम-6 'ख' निर्णयों की प्रतियां कब उपलब्ध की जायेंगी-

जहां निर्णय सुनाया जाता है, निर्णय सुनाने के तुरंत पश्चात् पक्षकारों को ऐसी प्रति निर्णय के विरुद्ध अपील करने के लिए उतने प्रभार का जो उच्च न्यायालय द्वारा बनाये गये नियमों में विनिर्दिष्ट हो, संदाय किये जाने पर उपलब्ध की जायेगी।

नियम-7-डिक्री की तारीख -

 डिक्री में उस दिन की तारीख होगी, जिस दिन निर्णय सुनाया गया था और न्यायाधीश अपना समाधान कर लेने पर कि डिक्री निर्णय के अनुसार तैयार की गयी है डिक्री पर हस्ताक्षर करेगा।

नियम-8-जहां न्यायाधीश ने डिक्री पर हस्ताक्षर करने से पूर्व अपना पद रिक्त कर दिया है वहां प्रक्रिया-

जहां न्यायाधीश ने निर्णय सुनाने के पश्चात् किन्तु डिक्री पर हस्ताक्षर किये बिना अपना पद रिक्त कर दिया है। वहां ऐसे निर्णय के अनुसार तैयार की गयी डिक्री पर उसका उत्तरवतीं या यदि उस न्यायालय का अस्तित्व ही समाप्त हो गया है तो ऐसे किसी न्यायालय का न्यायाधीश जिसके अधीनस्थ ऐसा न्यायालय था, हस्ताक्षर करेगा।

विशिष्ट मामलों में डिक्री-

(1) नियम- 9 स्थावर सम्पत्ति के प्रत्युद्धरण के लिए डिक्री

(2) नियम-10-जंगम सम्पत्ति के परिदान के लिए डिक्री

(3) नियम-11- डिक्री किस्तों द्वारा संदाय के लिये निदेश दे सकेगी।

(4) नियम-12- कब्जा और अन्तःकालीन लाभों के लिये डिक्री

(5) नियम 12 'क'- स्थावर सम्पत्ति के विक्रय या पट्टे की संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिए डिक्री

(6) नियम-13- प्रशासन-वाद में डिक्री 

(7) नियम-14-शुफा के दावे में डिक्री

(8) नियम-15- भागीदारी के विघटन के लिए बाद में डिक्री

( 9) नियम-16 मालिक और अभिकर्ता के बीच लेखा के लिए लाये गये वाद में डिक्री

(10) नियम-17-लेखाओं के सम्बन्ध में विशेष निदेश

(11) नियम-18-सम्पत्ति के विभाजन के लिये या उनमें के अंश पर पृथक कब्जे के लिए वाद में डिक्री

12) नियम-19-जब मुजरा या प्रतीपदावा अनुज्ञात किया जाय तब डिक्री

(13) नियम-20 निर्णय और डिक्री की प्रमाणित प्रतियों का दिया जाना

प्रश्न- निर्णय और डिक्री से आप क्या समझते हैं? क्या निर्णय पर हस्ताक्षर के पश्चात उसमें कोई परिवर्तन या परिवर्धन किया जायेगा? स्पष्ट कीजिए।

प्रश्न- डिक्री की अन्तर्वस्तु से आप क्या समझते हैं? स्पष्ट कीजिए।



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