Cpc धारा 89 न्यायालय के बाहर विवादों का निपटारा

 सीपीसी धारा 89- 

न्यायालय के बाहर विवादों का निपटारा


यह प्रावधान वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र स्थापित करके न्यायालय के भार को कम करता है भारतीय विधि आयोग की 129वीं रिपोर्ट और मलिमथ समिति की सिफारिश पर आधारित है धारा 89 सीपीसी संशोधन 1999 की धारा 7 के माध्यम से अंत: स्थापित किया गया और इसके द्वारा वैकल्पिक समाधान का उपबंध किया गया । इसके प्रावधान वहां भी लागू है जहां पक्षकारों के बीच विवाद को विवाचन से निपटाने के लिए कोई विभाजन करार नहीं है।

       धारा 89- 

(1) जहां न्यायालय को प्रतीत होता है कि निपटारे के तत्व विद्यमान है, जो पक्षकारों को स्वीकार हो, वहां न्यायालय, निपटारे के निबंधनों को भी विनिर्मित करेगा और उन्हें पक्षकारों को उनके सम्परीक्षण के लिए देगा और पक्षकारों के निबंधनों को पुनः विनिर्मित करेगा और (क) मध्यस्थम (ख)सुलह (ग) न्यायिक निपटारे, जिसमें लोक अदालत के माध्यम से निपटारा शामिल है,  या (घ) मध्यस्थता के लिए निर्दिष्ट करेगा। 

(2)जहां कोई विवाद - (क) माध्यस्थम या सुलह के लिए है वहां माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम 1996 लागू होंगे।

(ख)लोक अदालत- विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम 1987 (धारा 20(1) 

(ग) न्यायिक निपटारे- वहां न्यायालय उसे उपयुक्त संस्था या व्यक्ति को निर्दिष्ट करेगा और ऐसी संस्था या व्यक्ति को लोक अदालत माना जाएगा।

 (घ)मध्यस्थता- वहां न्यायालय पक्षकारों के बीच  समझौता कराएगा और ऐसी प्रक्रिया का अनुसरण करेगा, जैसी विहित  की जाए।

वाद में समझौता - वह प्रावधान जो सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 89 के भाग नहीं है- 

आदेश-23 नियम-3 जहाँ न्यायालय को समाधानप्रद रूप में यह साबित कर दिया जाता है कि वाद पक्षकारों द्वारा लिखित और हस्ताक्षरित किसी विधिपूर्ण करार या समझौते के द्वारा पूर्णतः या भागतः समायोजित किया जा चुका है या जहाँ प्रतिवादी वाद की पूरी विषय-वस्तु के या उसके किसी भाग के संबंध में वादी की तुष्टि कर देता है वहाँ न्यायालय ऐसे, करार समझौते या तुष्टि के अभिलिखित किए जाने का आदेश करेगा और जहाँ तक कि वह वाद के पक्षकारों से संबंधित है, चाहे करार, समझौते या तुष्टि की विषय वस्तु हो या न हो जो कि वाद की विषय वस्तु है, वहां तक तदनुसार डिक्री पारित करेगा।

माध्यस्थम की कार्यवाही के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय ने प्रकाश चन्द्र बनाम हरनाम सिंह,  1973 सु. को. नामक वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि न्यायालय द्वारा माध्यस्थम पंचाट के आधार पर दी गई डिक्री समझौते या सहमति डिक्री नहीं मानी जा सकती, भले ही पंचाट को न्यायालय का एक नियम के रूप में मानने की सहमति पक्षकारों में हुई हो।

  मो. सिद्दकी (मृत) द्वारा वि.वि. बनाम  महंत सुरेश दास मार्च 2019 के वाद में अभिनिर्धारित  किया गया कि सीपीसी के धारा  89 के अंतर्गत न्यायालय किसी विवाद को मध्यस्थता के लिए भेजने के लिए सशक्त है आदेश 1 नियम 8 या आदेश 23 नियम 3 'ख' के प्रावधान अपील में उत्पन्न विवाद को भी मध्यस्थता के लिए भेजने हैतु कोई   विधिक बाधा सृजित नहीं करते हैं इसलिए इस मामले में निर्णय के पूर्व इसे न्यायालय द्वारा मध्यस्थता के लिए भेजा जा रहा है मध्यस्था कार्यवाई बंद कमरे में हो और कार्यवाही की हर बातें गोपनीय रखी जाए तथा 8 सप्ताह के भीतर रिपोर्ट पेश की जाए। 

आदेश 10 के नियम 1 'क', 1 'ख', 1 'ग' सुलह के संबंध में प्रावधान करते हैं।

      एफकाॅन इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड बनाम चेरियन वरकी कन्स्ट्रक्शन कंपनी 2007 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने वैकल्पिक विवाद निस्तारण प्रक्रियाओं तथा सीपीसी की धारा 89 से संबंधित विधि घोषित की गई है।

विश्व लोचन मदन बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया 2014 सु. को. के वाद में कहा गया कि फतवा एक विचार है, जिसकी एक विशेषज्ञ से आशा की जाती है। यह एक डिक्री नहीं है, जो न्यायालय, या राज्य या व्यक्ति पर बाध्यकर हो। उसे हमारी संवैधानिक व्यवस्था में कोई अनुमति नहीं है। उसका तात्पर्य यह नहीं कि फतवा स्वयं में अवैध है। यह एक अनौपचारिक विधि व्यवस्था है। जिसका तात्पर्य हैं पक्षकारों के बीच विवाद का शांतिपूर्ण समाधान। यह व्यक्ति पर निर्भर है। वह इसकी अवज्ञा कर दे, स्वीकार करे या खारिज कर दे। व्यक्ति मुस्लिम के अधिकारों, स्थित या प्रस्थिति या दायित्वों पर फतवा अनुज्ञेय नहीं है। यह मूल मानव अधिकारों का उल्लंघन होगा। इसका प्रयोग निर्दोष को दण्डित करने के लिये नहीं किया जा सकता।






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