न्यायिक पुनर्विलोकन
न्यायिक पुनर्विलोकन-
संविधान का संरक्षक व अंतिम व्याख्याकर होने के कारण उच्चतम न्यायालय को अनुच्छेद 13 के अंतर्गत न्यायिक पुनर्विलोंकन की शक्ति प्रदान की गई है। यह शक्ति केवल उच्चतम न्यायालय (अनुच्छेद 32) तथा उच्च न्यायालय (अनुच्छेद 226) को ही प्रदान की गई है। अपनी इस शक्ति के अधीन उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय विधान मंडल द्वारा पारित किसी भी अधिनियम को असंवैधानिक घोषित कर सकते हैं जो संविधान के भाग 3 में दिए गए किसी भी उपबंध की असंगति में है।
न्यायिक पुनर्विलोकन का अर्थ
प्रोफेसर कारबिन के अनुसार, न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति न्यायालयों की वह शक्ति है जिसके अंतर्गत वे विधानमंडल द्वारा पारित अधिनियमों की संवैधानिकता की जांच करते हैं। वह ऐसी किसी भी विधि को प्रवर्तित करने से इंकार कर सकते हैं जो संविधान के उपबंधों से असंगत है। यह कार्य न्यायालय की साधारण अधिकारिता के अंतर्गत आता है।
न्यायिक पुनर्विलोकन की धारणा का उदभव सीमित शक्ति वाली सरकार के सिद्धांत से हुआ। इस सिद्धांत के अनुसार विधि दो प्रकार की होती है - (1)साधारण विधि(2) सर्वोच्च विधि।
न्यायिक पुनर्विलोकन के सिद्धांत को सर्वप्रथम अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने प्रतिपादित किया था। यह महत्वपूर्ण सिद्धांत मारबरी बनाम मेडिसिन के प्रमुख मामले में चीफ जस्टिस मार्शल द्वारा प्रतिपादित किया गया था
एल चंद्र कुमार बनाम भारत संघ 1997 sc के वाद में उच्चतम न्यायालय ने इस बात को पुनः दोहराया है कि उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों को अनुच्छेद 32 और 226 के अधीन प्रदत्त न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति संविधान का आधारभूत ढांचा है और इसे अनुच्छेद 368 के अधीन संविधानिक संशोधन द्वारा भी समाप्त नहीं किया जा सकता है।
बिनोय विश्वम बना भारत संघ 2017 के वाद में अभिनिर्धारित किया गया कि उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति के उपयोग में संसद या राज्य विधान मंडल द्वारा पारित विधि को केवल दो आधारों पर अविधिमान्य घोषित कर सकता है- (1)संसद अथवा विधानमंडल जिसने भी विधि पारित किया है वह इसके लिए सक्षम नहीं है। (2) यह संविधान के भाग 3 में अनुबंधित किसी भी मूल अधिकार अथवा किसी अन्य संवैधानिक प्रावधान के प्रतिकूल है।
केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य 1973 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति केवल इस बात का विनिश्चय करने तक सीमित नहीं है कि क्या अपेक्षित विधियां बनाने में विधान मंडलों ने अपनी निश्चित विधायी सूचियां की परिधि के भीतर काम किया है वरन यह भी जरूरी है कि क्या विधियां संविधान के अनुच्छेदों के अनुरूप बनाई गई है और उनसे संविधान के अन्य प्रबंधन का उल्लंघन तो नहीं होता है इस प्रकार न्यायिक पुनर्विलोंकन हमारी संवैधानिक पद्धति का अभिन्न अंग बन गया है।
जनगणना आयुक्त बनाम कृष्णमूर्ति 2014 के वाद में उच्चतम न्यायालय अभिनिर्धारित किया कि नीतिगत मामले में न्यायालय सरकार को कोई निर्देश जारी नहीं कर सकते हैं और जातिगत आधार पर जनगणना करने के लिए दिया गया निर्देश, भले ही सामाजिक न्याय के सिद्धांत पर केंद्रित है, न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति का अतिक्रमण करता है।
इस प्रकार न्यायिक पुनर्विवाह की शक्ति इस शक्ति के अंतर्गत देश का उच्चतम न्यायालय सभी पूर्व संविधान विधियों (pre-constitution laws) और संविधानोत्तर विधियों (post-constitution) को, यदि वे संविधान के भाग तीन के उपबंधों का अतिक्रमण करती है,असंवैधानिक घोषित कर सकता है।
न्यायिक पुनर्विलोकन का अपवर्जन-
संविधान के 42 में संशोधन के पूर्व अनुच्छेद 31 'ग' यह उपबंधित करता था कि अनुच्छेद 39 'ख' और 'ग' में निहित नीति निर्देशक तत्वों के कार्यान्वयन के लिए पारित विधियों को इस आधार पर न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती थी कि वे अनुच्छेद 14, 19 और 31 में प्रदत्त मूल अधिकारों से असंगत हैं या उनको छीनती है या न्यून करती थी। 42 वें संशोधन द्वारा अनुच्छेद 14, 19 अथवा 31 के लिए भाग 4 में अभीकथित सभी या किन्हीं तत्वों को प्रतिस्थापित कर दिया गया। संविधान के 44 वें संशोधन द्वारा अनुच्छेद 14, 19 अथवा अनुच्छेद 31 के लिए अनुच्छेद 14 और 19 प्रतिस्थापित कर दिया गया। क्योंकि इस संशोधन ने अनुच्छेद 31 का निरसन कर दिया था। अत 44 वें संशोधन के बाद स्थिति यह है कि अनुच्छेद 31 'ग' के अनुसार कोई भी विधि जो भाग 4 में अभिकथित राज्य के किसी भी निदेशक तत्व को सुनिश्चित करने की नीति को प्रभावी करने वाली है इस आधार पर शून्य नहीं समझी जाएगी कि वह अनुच्छेद 14 या 19 द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से किसी से असंगत है या उसे छीनती है या न्यून करती है और कोई विधि जिसमें यह घोषणा है कि वह ऐसी नीति को प्रभावित करने के लिए किसी न्यायालय में इस आधार पर प्रश्नपत्र नहीं की जाएगी कि वह ऐसी नीति को प्रभावी नहीं करती है।
नीतिगत मामलों न्यायिक पुनर्विलोंकन नहीं-
नीतिगत मामलों में न्यायिक पुनर्विलोंकन केवल तब न्यायोचित है जब नीति मनमानी, अनुचित अथवा मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण करने वाली है। राज्य की नीति का मूल्यांकन करने में न्यायालयों को अनिच्रछुक अवश्य होना चाहिए जिसे फलीभूत होने के लिए युक्तियुक्त समय अवश्य दिया जाना चाहिए । यदि नीति अविवेकपूर्ण, दमनात्मक या मस्तिष्कहीन साबित होती है तो निर्वाचक मंडल शीघ्र ही सरकार को उसकी गलती की जानकारी करा देता है।
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