डिक्री(Decree)
डिक्री(Decree)-
डिक्री शब्द को धारा 2 की उपधारा 2 में परिभाषित किया गया का है। जो निम्नलिखित है।
"डिक्री, का अभिप्राय न्यायालय के द्वारा किसी न्याय निर्णयन की प्रारुपिक अभिव्यक्ति से होता है, जिसके अन्तर्गत पक्षकारों के किसी वाद में विवादग्रस्त विषय के सभी अधिकारों या किन्ही आधिकारों का निश्चयात्मक रूप से निर्धारण किया जाता है।"
ऐसी डिक्री या तो प्राराम्भिक या अन्तिम हो सकती है। डिक्री की परिभाषा का विश्लेषण करने पर इसके लिये निम्नलिखित आवश्यक शर्ते प्रतीत होती हैं।
1) . न्यायालय के द्वारा एक न्याय निर्णयन किया गया हो।
2). ऐसा न्याय निर्णयन न्यायालय के द्वारा औपचारिक रूप से अभिव्यक्त की गयी हो।
3). ऐसा न्याय निर्णयन एक वाद के अन्तर्गत किया गया हो।
4). ऐसे न्याय निर्णयन के अन्तर्गत पक्षकारों के या तो
सभी अथवा किन्ही अधिकारों को न्यायालय के द्वारा निर्णीत कर दिया गया हो।
5). यह निर्णीत किया जाना निश्चयात्मक प्रकृति का हो।
डिक्री के प्रकार, (Kinds of Decree)-
सामान्यतयः डिक्री निम्नलिखित दो प्रकार की हो सकती है।
1). प्राराम्भिक डिक्री। 2). अन्तिम डिक्री ।
प्राराम्भिक डिक्री (preliminary decree)-
यदि एक न्याय निर्णयन में बाद में विवादग्रस्त पक्षकारों के कुछ अधिकार निर्णीत कर दिये गये हैं, परन्तु वाद को आन्तम रूप से निर्णीत नही किया गया है, तो इसे प्राराम्भक डिक्री के नाम से जाना जायेगा।
इस प्रकार की डिक्री पारित करते समय न्यायालय निर्णयन के माध्यम से कुछ अधिकारों को आन्तम रूप से निर्णीत कर देता है। तथा कुछ अन्य अधिकारों को तथ्य और परिस्थितियों पर विचारित करने हेतु रोक लेता है।
आदेश-20 के नियम, 12, 13, 14, 15, 16 तथा 18 के अन्तर्गत प्राराम्भक डिक्री को देखा जा सकता है। उच्च न्यायालय ने फूल चन्द बनाम गोपाल लाल के मामले मे यह निर्णीत किया कि एक वाद के अन्तर्गत एक से अधिक प्राराम्भिक डिक्रियां पारित की जा सकती हैं, यदि ऐसी आवश्यकता हो जाती है। प्राराम्भक डिक्री अपीलीय डिक्री होती है।
आन्तिम डिक्री (Final Decree)-
अन्तिम डिक्री का अभिप्राय उस डिक्री से होता हैं, जिसमें न्यायालय किसी वाद को पूर्णतयः तथा अन्तिम निर्णीत कर देता है एवं पक्षकारों के वे सभी अधिकार जो उस वाद में विवादग्रस्त हो, अन्तिम रूप से निर्धारित कर दिये जाते हैं। यह डिक्री भी अपीलीय होती है।
भागतः प्राराम्भक तथा भागतः आन्तम डिक्री-
भागतः प्रारम्मिक तथा भागतः अन्तिम डिक्री वह डिक्री होती है जो न ही पूर्ण रूप से अन्तिम होती है तथा न ही पूर्ण रूप से प्रारम्भिक डिक्री होती है यह डिक्री अंशतः दोनों प्रारम्भिक तथा अन्तिम डिक्री की प्रकृति धारण करती है।
यदि अचल सम्पत्ति के दावे तथा अन्तःकालीन लाभ के दावे को प्राप्त करने हेतु वाद सांस्थित किया गया है तो भागतः प्रारम्भिक तथा भागतः अंतिम डिक्री पारित करने की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। यदि सम्पत्ति का कब्जा अंतःकालीन लाभ सहित स्वीकार कर लिया गया है, परन्तु अंतःकालीन लाभ की राशि की जांच की जानी है तो इसे भागतः प्रारम्भिक तथा भागतः अंतिम डिक्री कहा जा सकता है।
प्रतीकात्मक डिक्री (Deemed Decree)-
प्रतीकात्मक डिक्री से अभिप्राय उस डिक्री से होता है, जो डिक्री CPC की धारा २(२) के अन्तर्गत दी गयी डिक्री की परिभाषा में वस्तुतः नहीं आती है, परन्तु विधि द्वारा इसे डिक्री के रूप में स्वीकार किया जाता है। यह भी न्यायालय का एक न्याय निर्णयन होता है जो डिक्री के रूप में डिक्री की परिभाषा के अन्तर्गत आच्छादित नहीं होता, परन्तु सांविधिक कल्पितार्थ के द्वारा इसे डिक्री मान लिया जाता है। अतः प्रतीकात्मक डिक्री सांविधिक काल्पितार्थ का सृजन होती है।
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