अभिवचन(pleading)
अभिवचन (pleading)-
न्यायिक प्रक्रिया में अभिवचन का एक महत्वपूर्ण स्थान है। सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 6 नियम 1 में अभिवचन के संबंध में प्रावधान किया गया है।
अभिवचन से तात्पर्य वादपत्र एवं लिखित कथन से है। इसमें न्यायालय की अनुमति से वादी द्वारा अतिरिक्त वादपत्र एवं प्रतिवादी द्वारा अतिरिक्त लिखित कथन भी सम्मिलित है।
श्री पी. सी. मोद्या ने अभिवचन को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है-
"अभिवचन लिखित कथन होते हैं, जो किसी मामले में प्रत्येक पक्षकार तैयार करता है और दाखिल करता है। इसमें पक्षकारों के प्रतिविरोध का विवाद जो मामले के विचारण के समय उठाये जायेंगे और ऐसे विवरण दिये जायेंगे, जिसकी विरोधी पक्षकार को आवश्यकता है ताकि वह उनके उत्तर में अपने मामले को तैयार कर सके।"
अभिवचन का उद्देश्य -
'अभिवचन' का सम्पूर्ण उद्देश्य पक्षकारों को निश्चित विवाद्यकों तक सीमित रखना, खर्च और विलम्ब को कम करना है, विशेषतया सुनवाई के समय प्रत्येक पक्ष से होने वाले परिसाक्ष्य में।
वच्छज नाहर बनाम नीलिमा मण्डल 2009 के वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने अभिवचन के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए अभिव्यक्त किया कि अभिवचन का (उद्देश्य) परीक्षण में प्रस्तुत पक्षकार वाद के विवाद्यकों को ठीक रूप से जाने तथा एक दूसरे से अपनी प्रतिरक्षा कर सके। इसका उद्देश्य यह भी है कि प्रत्येक पक्ष हमेशा तत्पर रहे। उन प्रश्नों का उत्तर देने के लिये, जो परीक्षण के दौरान पूछे जा सकते हैं एवं उनके सम्बन्ध में साक्ष्य प्रस्तुत कर सके।
अभिवचन की अन्तर्वस्तुएं एवं अभिवचन के नियम-
अभिवचन की रचना एक कला है, जिसमें अत्यन्त सावधानी एवं कुशलता की आवश्यकता होती है। अभिवचन का एक-एक शब्द अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। अतः आवश्यक है कि उसे बहुत सोच समझकर तैयार किया जाये एवं इसका ध्यान रखा जाये कि उसमें अनावश्यक बातों का समावेश न होने पाये। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए अभिवचन के कुछ नियमों का उपबन्ध किया गया है। सामान्यतः ये तीन प्रकार के हैं-
(i) अभिवचन के मूलभूत नियम
(ii) अभिवचन के सामान्य नियम
(iii) अभिवचन के विशिष्ट नियम
(1) अभिवचन के मूलभूत नियम-
संहिता के आदेश 6 नियम 2 के अन्तर्गत अभिवचन के मूलभूत नियम दिये गये हैं। नियम 2 में निम्न प्रावधान हैं-
अभिवचन में तात्विक तथ्यों का, न कि साक्ष्य का कथन होगा- (1) हर अभिवचन में उन तात्विक तथ्यों का, जिन पर अभिवचन करने वाला पक्षकार यथास्थिति, अपने दावे या अपनी प्रतिरक्षा के लिए निर्भर करता है और केवल उन तथ्यों का, न कि उन साक्ष्यों का जिसके द्वारा वे साबित किए जाने हैं, संक्षिप्त कथन उल्लिखित होगा।
अभिवचन के निम्न चार मूलभूत नियम हैं-
(1) तथ्यों का अभिवचन करें विधि का नहीं-
अभिवचन का सबसे महत्वपूर्ण नियम यह है कि उसमें तथ्यों और घटनाओं का वर्णन किया जाना चाहिए, विधि का नहीं। किन तथ्यों और घटनाओं पर कौन सी विधि लागू होगी, यह निश्चित करना या यह तय करना न्यायालय का काम है। पक्षकारों का कर्तव्य है कि केवल उन तथ्यों का वर्णन करें, जिन पर उनका दावा या प्रतिरक्षा आधारित है। ऐसे सारवान तथ्यों का उल्लेख करना चाहिए जिससे कि मिथ्या दावे के आधार समाप्त हो जायें।
(2) केवल सारभूत तथ्यों का अभिवचन करें -
अभिवचन का दूसरा महत्वपूर्ण सिद्धान्त यह है कि अभिवचन में केवल सारवान तथ्यों का कथन होना चाहिए। सारवान तथ्यों से तात्पर्य उन तथ्यों से है, जिस पर वादी का वाद हेतुक और प्रतिवादी का बचाव निर्भर करता है या सारभूत तथ्यों से तात्पर्य ऐसे तथ्यों से है जिसे वादी को अपना वाद का अधिकार जताने के लिए अभिकथित करना चाहिए और प्रतिवादी को अपना बचाव दर्शाने के लिये अभिकथित करना चाहिए।
(3)तथ्यों का अभिवचन करें साक्ष्य का नहीं-
अभिवचन का तीसरा महत्वपूर्ण सिद्धान्त यह है कि उसमें केवल उन्हीं तथ्यों का कथन रहेगा, जिस पर अभिवचन करने वाला पक्षकार अपने दावे या बचाव के लिये निर्भर करता है। उसमें साक्ष्य सम्बन्धी तथ्य का कथन नहीं, जिसके द्वारा न्यायालय में साबित करना है, उन तथ्यों का नहीं, जिनके माध्यम से तथ्य साबित किये जाने हैं। किसी भी मामले में दो प्रकार के तथ्य होते हैं-
(i) वे तथ्य जिनको साबित किया जाना है, और
(ii) साक्ष्य सम्बन्धी तथ्य जिनके द्वारा उपरोक्त को साबित किया जाता है।
जिन सारभूत तथ्यों पर पक्षकार अपने दावे या बचाव के लिये निर्भर करता है, उन्हें साबित किया जाने वाला तथ्य, कहा जाता है और ऐसे तथ्यों का कथन अभिवचन में अवश्य किया जाना चाहिए।
इसके विपरीत उन तथ्यों को जिनके माध्यम से साबित किये जाने वाले तथ्यों को साबित किया जाता है, उन्हें साक्ष्य सम्बन्धी तथ्य कहा जाता है। अभिवचन में ऐसे तथ्यों का कथन नहीं किया जाना चाहिए।
उदाहरण- जहां 'अ' के जीवन पर एक बीमा पालिसी से सम्बन्धित वाद बीमा कम्पनी के विरुद्ध संस्थित किया गया है। बीमा पालिसी की एक शर्त यह है कि यदि बीमादार ने आत्महत्या की, तो बीमा कम्पनी को यह अभिवचन करना चाहिए कि बीमादार की मृत्यु स्वयं अपने हाथ से हुई है। उसने पिस्टल खरीदा और उसी से अपने को दाग लिया, गलत है। यह सब साक्ष्य हैं अर्थात् वे तथ्य हैं, जिनके माध्यम से साबित किया जाने वाला तथ्य अर्थात् 'आत्महत्या' साबित की जायेगी।
(4) संक्षिप्त कथन-
अभिवचन का चौथा और अन्तिम सिद्धान्त है कि अभिवचन संक्षेप में और शुद्धता के साथ तैयार किया जाना चाहिए। सारभूत तथ्यों का कथन शुद्धतापूर्ण और संगत (Coherent) होना चाहिए। हर अभिकथन, सुविधानुसार पृथक पैरा में किया जायेगा।
अभिवचन में तारीखें, राशियां और संख्यायें (Sums and numbers) अंकों और शब्दों में भी अभिव्यक्त की जायेंगी।
(2) अभिवचन के सामान्य नियम-
संहिता के आदेश 6 में अभिवचन साधारणतः आदेश 7 में वादपत्र एवं आदेश 8 लिखित कथन से सम्बन्धित है। आदेश 6 के अन्तर्गत अभिवचन के सामान्य नियमों को संक्षिप्त में निम्नलिखित रूप से उल्लखित किया जा सकता है-
(1) अभिवचन में वाद को सम्पूर्ण रूप में अभिव्यक्त किया जाता है अर्थात् अभिवचन में ऐसे सारपूर्ण तथ्यों का उल्लेख किया जाता है, जिन पर वादी का दावा एवं प्रतिवादी का बचाव आधारित है (नियम-2)
(2) इसमें केवल तथ्यों का उल्लेख होता है, विधि का नहीं। यदि विरोधी पक्षकार के अभिवचन में विधि का उल्लेख किया गया है, तो इसका जवाब देने की आवश्यकता नहीं होती। (नियम 2)
(3) केवल ऐसे सारपूर्ण तथ्यों को उल्लेख करने की आवश्यकता होती है, जिन पर अभिवचन आधारित होता है न कि ऐसे साक्ष्य की जिनसे ऐसे तथ्यों को सिद्ध किया जाता है। (नियम 10, 11,12)
(4) केवल सारपूर्ण तथ्यों का उल्लेख तथा अनावश्यक एवं फिजूल तथ्यों का उल्लेख नहीं किया जाना चाहिए। (नियम 2)
(5) तथ्यों का उल्लेख संक्षिप्त रूप में किया जाना चाहिए।
(6) पूर्ववर्ती शर्त की पूर्ति कर ली गई है। अभिवचन में उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं है कि पूर्ववर्ती शर्त की पूर्ति की विधि अवधारणा कर लेती है। (नियम 6)
(7) किसी दस्तावेज का पूर्ण या आंशिक ब्यौरा देने की आवश्यकता नहीं है (नियम 9) किसी ऐसे तथ्य का उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं है, जिसके सम्बन्ध में विधि आपके पक्ष में अवधारणा कर लेती है, जिसको अन्यथा सिद्ध करने का भार विरोधी पक्षकार पर रहता है। (नियम 13)
(3) अभिवचन के विशिष्ट नियम-
आदेश 6 के नियम 4 से 16 में जो नियम दिये गये हैं, उन्हीं में विशिष्ट एवं सामान्य नियम सम्मिलित हैं। इन नियमों को संक्षिप्त रूप से निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-
(1) नियम 4-जहां आवश्यक हो वहां विशिष्टियों का दिया जाना।
(2) नियम 6 - पुरोभाव्य शर्त)
(3) नियम 7 - फेरबदल
(4) नियम 8- संविदा का प्रत्याख्यान
(5) नियम 9 - दस्तावेज के प्रभाव का कथन किया जाना
(6) नियम 10- विद्वेष, ज्ञान आदि
(7) नियम 11- सूचना
(8) नियम 12-विवक्षित संविदा या सम्बन्ध
(9) नियम 13-विधि की उपधारणाएं
(10) नियम 14- अभिवचन का हस्ताक्षरित किया जाना
(11) नियम 14 'क'- सूचना की तामील के लिये पता
(12) नियम 15-अभिवचनों का सत्यापन
(13) नियम 15 'क'- वाणिज्यिक विवाद में अभिवचनों का सत्यापन (संशोधन 2015)
(14) नियम 16 - अभिवचन का काट दिया जाना
अभिवचन में संशोधन -
सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 6, नियम 17 अभिवचन के संशोधन का उपबंध करता है।
अभिवचन में वादी एवं प्रतिवादी अपने दावे अथवा प्रतिरक्षा सम्बन्धी सभी तथ्यों का उल्लेख करते हैं। अभिवचन में उल्लखित तथ्यों से पक्षकार बाधित होते हैं तथा इन तथ्यों को न्यायालय के समक्ष सिद्ध करना होता है। न्यायिक प्रक्रिया में जो देरी होती है अथवा न्यायालय के समक्ष जो वादों का ढेर लगा रहता है, उसका प्रमुख कारण पक्षकारों को अपने अभिवचन में संशोधन की अनुमति देना होता है। दीवानी प्रक्रिया संहिता में निम्न पांच प्रकार को के संशोधनों का उल्लेख किया गया है-
(1) धारा 152 के अन्तर्गत निर्णयों, डिक्रियों यो आदेशों में न्यायालय द्वारा या किसी पक्षकार के आवेदन पर कोई प्रथम दृष्टया भूल या लिपिकीय भूल का संशोधन करना।
(2) धारा 153 में न्यायालय की अभिवचन में संशोधन करने की सामान्य शक्ति का उल्लेख किया गया है। इस धारा के अनुसार, न्यायालय किसी भी समय और खर्च सम्बन्धी ऐसी शर्तों पर या अन्यथा जैसा वह ठीक समझे, वाद की किसी भी कार्यवाही में की किसी भी त्रुटि या गलती को संशोधित कर सकेगा और ऐसी कार्यवाही द्वारा उठाये गये या उस पर अवलम्बित वास्तविक प्रश्न या विवाद्यक के अवधारण के प्रयोजन के लिये आवश्यक संशोधन किये जायेंगे।
(3) आदेश 1 नियम 10 के अन्तर्गत पक्षकारों को प्रतिस्थापित करने तथा पक्षकार जोड़ने अथवा किसी पक्षकार को हटाने का अधिकार न्यायालय को है, जिसके परिणामस्वरूप अभिवचन में संशोधन किया जायेगा।
(4) आवश्यक संशोधन (आदेश 6 नियम 16) के अन्तर्गत न्यायालय कार्यवाहियों के किसी भी प्रक्रम में आदेश दे सकेगा कि किसी भी अभिवचन में की गई कोई भी ऐसी बात काट दी जाये या संशोधित कर दी जाये-
(क) जो अनावश्यक, कलंकात्मक यो तंग करने वाली हो, या
(ख) जो वाद के शुद्ध विचारण पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाली या उसमें उलझन डालने या विलम्ब करने वाली है, अथवा
(ग) जो अन्यथा न्यायालय की प्रक्रिया का दुरुपयोग करने वाली है।
उपरोक्त नियम-16 के प्रावधानों से स्पष्ट है कि इस नियम का उद्देश्य किसी पक्षकार को विरोधी पक्षकार के अभिवचन में संशोधन करवाने का अधिकार प्रदान करना है। यद्यपि विधि में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि अभिवचन में संशोधन उसकी इच्छा के विरुद्ध किया जाये।
(5) स्वैच्छिक संशोधन (आदेश 6 नियम 17)- इसके अन्तर्गत निम्नलिखित प्रावधान है-
न्यायालय दोनों में से किसी भी पक्षकार को कार्यवाहियों के किसी प्रक्रम में अनुज्ञा दे सकेगा कि वह अपने अभिवचनों को ऐसी रीति से और ऐसे निबन्धनों पर, जो न्यायसंगत हो, परिवर्तित करे या संशोधित करे और सभी ऐसे संशोधन किये जायेंगे, जो पक्षकारों के बीच में विवादग्रस्त वास्तविक प्रश्न के अवधारण के प्रयोजन के लिये आवश्यक हो।
परन्तु यह है कि संशोधन के लिए कोई आवेदन विचारण प्रारंभ होने के पश्चात् अनुज्ञात नहीं किया जायेगा जब तक कि न्यायालय इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचता है कि सम्यक तत्परता के पश्चात् भी पक्षकार मामले को विचारण से पूर्व नहीं उठा सकता था।
आदेश 6 नियम 17 अभिवचन के संशोधन का उपबंध करता है। ऐसा संशोधन न्यायालय की अनुमति से ही किया जा सकता है। परन्तु ऐसा न्यायालय जिसे वाद ग्रहण करने की अधिकारिता नहीं प्राप्त है, वह वाद पत्र में संशोधन की अनुमति नहीं दे सकता।
संशोधन का उद्देश्य
-आदेश 6 नियम 17 में उपबन्धित प्रावधान का उद्देश्य यह है कि न्यायालय को मामले के गुणागुण, जो उसके समक्ष लाये जाते हैं, को जानना चाहिए और उसका विचारण करना चाहिए और तत्पश्चात् सभी संशोधन को मंजूर करना चाहिए जो पक्षकार के बीच विवादग्रस्त वास्तविक प्रश्नों के अवधारण के लिए आवश्यक है। लेकिन शर्त यह है कि ऐसे संशोधन से दूसरे पक्षकार के प्रति कोई अन्याय नहीं होना चाहिए। संशोधन सम्बन्धी उपबन्धों का उद्देश्य न्याय के हित के लिए या न्याय की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए है न कि उसे असफल करने के लिए। जहां वाद पत्र में संशोधन खर्चे की कीमत पर दिया गया है और प्रतिवादी ने खर्चा स्वीकार कर लिया है, वहां उसे ऐसे संशोधन को चुनौती देने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।
संशोधन से इंकार -
निम्नलिखित परिस्थितियों में सामान्यतया न्यायालय अभिवचन में संशोधन इन्कार कर देगा-
(1) जहां ऐसा संशोधन पक्षकारों के बीच विवादग्रस्त वास्तविक प्रश्नों के अवधारण के लिये आवश्यक नहीं है। यह अभिवचन में संशोधन के लिये सबसे मूलभूत आवश्यकता है और यदि इसकी ही पूर्ति नहीं होती तो संशोधन अस्वीकार कर दिया जायेगा। जहां संशोधन से पक्षकारों के बीच वास्तविक विवादित प्रश्न के अवधारणा में सहायता नहीं मिलेगी, संशोधन अस्वीकार कर दिया जायेगा। जैसे अगर संशोधन मात्र तकनीकी है, निरथर्क है या उसमें कोई सार नहीं है।
(2) जहां प्रस्तावित संशोधन से वादी का वाद पूर्णरूप से विस्थापित हो जायेगा।
(3) जहां ऐसे संशोधन का परिणाम दूसरे पक्षकार से उसके विधिक अधिकार को छीन लेना, जो उसमें समय के बीत जाने के कारण प्रोद्भूत हो गया है, अस्वीकार कर दिया जायेगा।
(4) जहां संशोधन का आवेदन सद्भावपूर्वक नहीं दिया गया है। यदि पक्षकार दुर्भावनावश संशोधन का आवेदन दे रहा है, तो संशोधन की अनुमति नहीं दी जायेगी। जहां आवेदन देने में पर्याप्त विलम्ब किया गया हो, वहां ऐसे दुर्भावना की बात सोची जा सकती है।
(5) जहां संशोधन पर्याप्त विलम्ब से चाहा गया हो और प्रमाद का कोई संतोषजनक कारण न बताया गया हो, वहां संशोधन की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।
(6) जहां संशोधन से लिखित कथन में की गयी स्वीकृति वापस मान ली जायेगी, वहां संशोधन की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।
(7) जहां संशोधन विलम्ब से चाहा गया है और बचाव की प्रकृति को बदल देता है।
(8) जब संशोधन के माध्यम से एक ऐसा दावा प्रस्तुत किया जाय जो कालवर्जित हो गया है।
(9) जहां संशोधन वाद की प्रकृति और चरित्र को सारभूत रूप से परिवर्तित कर देता है।
नारायण स्वामी बनाम पजानियप्पा' 2018 के मामले में मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि स्वत्व की घोषणा एवं स्थायी व्यादेश के वाद में कब्जा प्राप्त करने बाबत अनुतोष के लिए वांछित संशोधन की अनुज्ञा दी जा सकती है क्योंकि न तो इससे वाद-कारण में परिवर्तन होता है और न ही यह परिसीमा द्वारा बाधित है।
प्रश्न -
(1) अभिवचन के क्या नियम हैं? किन परिस्थितियों के न्यायालय अभिवचनों में संशोधन की अनुमति देते हैं? कब संशोधन की अनुमति नहीं देते हैं?
(2)अभिवचन को परिभाषित कीजिए? अभिवचन का क्या उद्देश्य है? अभिवचन की अन्तर्वस्तुएं क्या है? विवेचना कीजिए।
(3)अभिवचन किसे कहते हैं? यह कितने प्रकार का होता है?
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