ब्याज (धारा-34) CPC
ब्याज-
सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 34 में 'ब्याज' के संबंध में प्रावधान किया गया है।
जहां और जहां तक कि डिक्री धन के संदाय के लिए है, न्यायालय डिक्री में यह आदेश दे सकेगा कि न्यायनिणींत मूल राशि पर किसी ऐसे ब्याज के अतिरिक्त जो ऐसी मूल राशि पर वाद संस्थित किए जाने के पूर्व की किसी अवधि के लिए न्याय-निणींत हुआ है, वाद की तारीख से डिक्री की तारीख तक ब्याज, ऐसी दर से जो न्यायालय युक्तियुक्त समझे, ऐसी मूल राशि पर डिक्री की तारीख से संदाय की तारीख तक या ऐसी पूर्वतर तारीख तक जो न्यायालय ठीक समझे, छह प्रतिशत प्रतिवर्ष से अनधिक होगी दर से जो न्यायालय युक्तियुक्त समझे, आगे के ब्याज सहित दिया जाए।
परन्तु,
जहां इस प्रकार न्यायनिर्णीत राशि के संबंध में दायित्व किसी वाणिज्यिक संव्यवहार से उदृभूत हुआ था। वहां ऐसे आगे के ब्याज की दर छह प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से अधिक हो सकती है, किन्तु ऐसी दर ब्याज की संविदात्मक दर से या जहां कोई संविदात्मक दर नहीं है वहां उस दर से अधिक नहीं होगी जिस पर वाणिज्यिक संव्यवहार के संबंध में राष्ट्रीयकृत बैंक धन उधार या अग्रिम देते हैं।
स्पष्टीकरण-1-इस उपधारा में 'राष्ट्रीयकृत बैंक' से बैंककारी कंपनी (उपक्रमों का अर्जन और अन्तरण) अधिनियम, 1970 (1970 का 5) में यथा परिभाषित तस्थानी नया बैंक अभिप्रेत है।
स्पष्टीकरण-2-इस धारा के प्रयोजनों के लिए, कोई संव्यवहार वाणिज्यिक संव्यवहार है, यदि वह दायित्व उपगत करने वाले पक्षकार के उद्योग, व्यापार या कारोबार से सम्बन्धित है।
(2) जहां ऐसी मूल राशि पर डिक्री की तारीख से संदाय की तारीख तक या अन्य पूर्वतर तारीख तक आगे के ब्याज के संदाय के संबंध में ऐसी डिक्री मौन है। वहां यह समझा जाएगा कि न्यायालय ने ऐसा ब्याज दिलाने से इन्कार कर दिया है, और उसके लिए पृथक वाद नहीं होगा।
ब्याज के तीन भाग-
समयानुसार ब्याज तीन भागों में बांटा जा सकता है-
(1) वाद संस्थित करने की तारीख तक मूल राशि जो न्यायालय द्वारा अभिनिर्धारित की गई (न कि मूल राशि जिसके लिये दावा किया गया है) पर ब्याज,
(2) न्यायालय द्वारा अभिनिर्धारित मूल राशि पर, वाद संस्थित करने की तारीख से डिक्री पारित करने तक अतिरिक्त ब्याज, उस पर से जो न्यायालय इस मामले में उचित मानता है, एवं
(3) न्यायालय द्वारा अभिनिर्धारित मूल राशि पर डिक्री पारित करने की तारीख से धन की अदायगी की तारीख तक या और पहले की तारीख तक जो न्यायालय उचित समझता है, ब्याज ऐसे दर पर जो छः प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से अधिक न हों।
धारा 34 के उपबंध वहीं लागू होते हैं जहां डिक्री धन के संदाय के लिये है। धन के 'संदाय के लिये डिक्री' के अन्तर्गत वे दावे भी आते हैं जिन्हें हम अपरिनिर्धारित नुकसानी कहते हैं। धारा 34 उस ब्याज पर लागू नहीं होती, जो वाद संस्थित किये, जाने से पहले का है, ऐसा प्रश्न सारवान विधि का प्रश्न है। इस धारा का सम्बंध वाद के दौरान डिक्री के पश्चात के ब्याज से है जो न्यायालय के विशेषाधिकार के अन्तर्गत है।
विजया बैंक बनाम ट्रेड कॉरपोरेशन 1972 कलकत्ता के वाद में निर्धारित किया गया कि निर्णय पर ब्याज की दर साधारणता 6% से अधिक नहीं होनी चाहिए लेकिन वाणिज्यिक संव्यहारों में ब्याज की यह दर राष्ट्रीयकृत बैंकों द्वारा निर्धारित दर हो सकती है।
में. गायत्री फर्टिलाइजर्स एंड केमिकल, टाडेपाल बनाम मद्रास फर्टिलाइजर्स लिमिटेड, मद्रास 2019 के मामले में हैदराबाद उच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित किया गया कि ब्याज कि दर या तो लिखित करार पर आधारित होनी चाहिए या फिर वाणिज्यिक संव्यवहारों में व्यापारिक प्रथा पर आधारित होनी चाहिए। 22% की दर से ब्याज निर्धारित किया जाना उचित नहीं है।
प्रश्न- धन के संदाय के लिए जयपत्र में ब्याज दिलवाने में संहिता की धारा 34 की प्रकृति, विस्तार एवं प्रयोज्यता का विवेचन कीजिए।
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