वादों के अन्तरण धारा 22 से 25

 वादों के अन्तरण-


सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 की धारा 22 से 25 के अन्तर्गत वादों के अन्तरण के संबंध में प्रावधान किया गया है।

धारा 22 प्रतिवादी को वाद के अन्तरण का अधिकार प्रदान करती है, जहां वादी को विभिन्न न्यायालयों में वाद दाखिल करने का विकल्प होता है। धारा 23, धारा 22 की पूरक है, जिसमें यह स्पष्ट किया गया है कि वाद के अन्तरण का आवेदन प्रतिवादी द्वारा किस न्यायालय में किया जाना चाहिए। धारा 24 जिला न्यायालयों व उच्च न्यायालय को एवं धारा 25 उच्चतम न्यायालय को स्वतः ही अथवा दोनों पक्षकारों में से किसी एक पक्षकार के आवेदन पर किसी ठोस व सारपूर्ण कारण पर अन्तरण करने का अधिकार प्रदान करती है।


दुर्गेश शर्मा बनाम जयश्री 2009 सु. को. के वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि वादों के अन्तरण के सम्बन्ध में धारा 22 से 25 में उल्लिखित प्रावधान अपने आप में परिपूर्ण हैं। कोई न्यायालय इन धाराओं में उल्लिखित आधारों के अलावा किसी अन्य आधार पर संहिता की धारा 151 के अन्तर्गत किसी वाद का एक न्यायालय से दूसरे न्यायालय को अन्तरण नहीं कर सकता।

प्रतिवादी के आवेदन पर वाद के अन्तरण की शक्ति (धारा 22-23)

धारा 22 जो वाद एक से अधिक न्यायालयों में संस्थित किए जा सकते हैं उनको अन्तरित करने की शक्ति-

जहां कोई वाद दो या अधिक न्यायालयों में से किसी एक में संस्थित किया जा सकता है और ऐसे न्यायालयों में से किसी एक में संस्थित किया गया है। वहां कोई भी प्रतिवादी अन्य पक्षकारों को सूचना देने के पश्चात् यथासम्भव अवसर पर और उन सब मामलों में, जिनमें विवाद्यक स्थिर किये जाते हैं, ऐसे स्थिरीकरण के समय या उसके पहले किसी अन्य न्यायालय को वाद अंतरित किये जाने के लिए आवेदन कर सकेगा और वह न्यायालय जिसमें ऐसा आवेदन किया गया है, अन्य पक्षकारों के (यदि कोई हो), आक्षेपों पर विचार करने के पश्चात् यह अवधारित करेगा कि अधिकारिता रखने वाले कई न्यायालयों में से किस न्यायालय में वाद चलेगा।

उपरोक्त प्रावधान से स्पष्ट है कि यह धारा प्रतिवादी को वाद के अन्तरण का अधिकार प्रदान करती है। इसमें स्पष्ट किया गया है कि जहां वादी को संहिता की धारा 16 से 20 के अन्तर्गत अपना वाद विभिन्न न्यायालयों में संस्थित करने का अधिकार होता है और इस अधिकार का प्रयोग करते हुए वादी ने इन विभिन्न न्यायालयों में से किसी एक न्यायालय में अपना वाद संस्थित कर दिया है तो प्रतिवादी इन शेष न्यायालयों में से किसी एक न्यायालय में वाद के अन्तरण करने का आवेदन धारा 23 में उल्लेखित न्यायालय में कर सकेगा बशर्ते कि ऐसे आवेदन की सूचना वादी एवं अन्य पक्षकारों को दे दी हो तथा प्रतिवादी द्वारा ऐसा आवेदन यथासम्भव प्रथम अवसर पर अर्थात् विवाद्यकों के स्थिरीकरण से पूर्व या स्थिरीकरण के समय कर देना चाहिए। सम्बन्धित न्यायालय विरोधी पक्षकारों द्वारा की गई आपत्तियों को सुन कर यह निर्धारित करेगा कि क्षेत्राधिकार रखने वाले कई न्यायालयों में से किस न्यायालय में इसका अन्तरण किया जाये।

पुष्पा देवी सर्राफ बनाम जय नारायण परसरायपुरिया 1992 सु. को  के वाद में जहां एक वाद के अन्तरण के लिए एक याचिका पीठासीन अधिकारी के विरुद्ध अभियोग लगाते हुए दाखिल की गई है। वहां अगर पीठासीन अधिकारी से कोई रिपोर्ट मांगी जाती है तो ऐसी रिपोर्ट सामान्यतया पीठासीन अधिकारी के विरुद्ध लगाये गये अभियोग और उसको निष्पक्षता तक सीमित होना चाहिए न कि उसके द्वारा दिये गये निर्णय के सही होने या न होने से सम्बन्धित।

धारा-23 किस न्यायालय में आवेदन किया जाये-

(1) जहां अधिकारिता रखने वाले कई न्यायालय एक ही अपील न्यायालय के अधीनस्थ है। वहां धारा 22 के अधीन आवेदन अपील न्यायालय में किया जायेगा।

(2) जहां ऐसे न्यायालय विभिन्न अपील न्यायालयों के अधीन होते हुए भी एक ही उच्च न्यायालय के अधीनस्थ हैं। वहां वह आवेदन उक्त उच्च न्यायालय में किया जायेगा।


(3) जहां ऐसे न्यायालय विभिन्न उच्च न्यायालयों के अधीनस्थ हैं, वहां उस उच्च न्यायालय में किया जायेगा जिसकी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर वह न्यायालय स्थित है, जिसमें वाद लाया गया है।

उपरोक्त धारा 23 के पृथक प्रावधान नहीं हैं अपितु धारा 22 के परन्तुक हैं।

शकुन्तला मोदी बनाम ओम प्रकाश भारुचा,  1991 एस. सी. के वाद में बच्चे की अभिरक्षा के संबंध में विवाह विच्छेदित पति एवं पत्नी के मध्य विवाद था। पति एवं पत्नी द्वारा अलग-अलग न्यायालय में बच्चे की अभिरक्षा के लिए वाद संस्थित किया गया जबकि दोनों वाद एक ही न्यायालय द्वारा विचारणीय हो सकते थे। पति द्वारा दाखिल वाद को पत्नी द्वारा संस्थित वाद के न्यायालय में पत्नी के आवेदन पर अन्तरित कर दिया गया।

उच्च न्यायालय एवं जिला न्यायालय की अन्तरण और प्रत्याहरण की साधारण शक्ति-

धारा-24 अन्तरण और प्रत्याहरण की साधारण शक्ति-

(1) किसी भी पक्षकार के आवेदन पर और पक्षकारों को सूचना देने के पश्चात् और उनमें से जो सुनवाई के इच्छुक हों, उनको सुनने के पश्चात् या ऐसी सूचना दिए बिना स्वप्रेरणा से उच्च न्यायालय या जिला न्यायालय किसी भी प्रक्रम में-

(क) ऐसे किसी वाद, अपील या अन्य कार्यवाही को, जो उसके सामने विचारण या निपटारे के लिए लम्बित है, अपने अधीनस्थ ऐसे किसी न्यायालय को अन्तरित कर सकेगा जो उसका विचारण करने या उसे निपटाने के लिए सक्षम है, अथवा

(ख) अपने अधीनस्थ किसी न्यायालय में लम्बित किसी वाद, अपील या अन्य कार्यवाही का प्रत्याहरण कर सकेगा, तथा-

(1) उसका विचारण या निपटारा कर सकेगा, अथवा

(ii) अपने अधीनस्थ ऐसे किसी न्यायालय को उसका विचारण या निपटारा करने के लिए अन्तरित कर सकेगा, जो उसका विचारण करने या निपटाने के लिए सक्षम है, अथवा

(iii) विचारण या निपटारा करने के लिए उसी न्यायालय को उसका प्रत्यन्तरण कर सकेगा, जिसके  द्वारा उसका प्रत्याहरण किया गया था। 

(2) जहाँ किसी वाद या कार्यवाही का अन्तरण या प्रत्याहरण उपधारा (1) के अधीन किया गया है वहां वह न्यायालय, जिसे ऐसे वाद या कार्यवाही का तत्पश्चात् विचारण करना है या उसे निपटाना है, अन्तरण आदेश में दिये गये विशेष निदेशों के अधीन रहते हुये या तो उसका पुन विचारण कर सकेगा या उस प्रक्रम से आगे कार्यवाही करेगा जहां से उसका अन्तरण या प्रत्याहरण किया गया था।

(3) इस धारा के प्रयोजन के लिए-

(क) अपर और सहायक न्यायाधीश के न्यायालय, जिला न्यायालय के अधीनस्थ समझे जायेंगे।

 (ख) 'कार्यवाही' के अन्तर्गत किसी डिक्री या आदेश के निष्पादन के लिये कार्यवाही भी है।

(4) किसी लघुवाद न्यायालय से इस धारा के अधीन अंतरित या प्रत्याहत्त किसी वाद का विचारण करने वाला न्यायालय ऐसे वाद के प्रयोजन के लिए लघुवाद न्यायालय समझा जायेगा।

(5) कोई वाद या कार्यवाही उच्च न्यायालय से इस धारा के अधीन अन्तरित की जा सकेगी जिसे उसका विचारण करने की अधिकारिता नहीं है।

ज्ञान चंद बनाम मांगी राम,  2009  के वाद में वैवाहिक मामलों में न्यायालय इस धारा के अन्तर्गत वादों का अंतरण करने का अधिकार रखता है। इस प्रकार का न्यायालय का अधिकार एक सारपूर्ण एवं सामान्य अधिकार है, जिसे विशिष्ट विधि या विवादित विधि द्वारा पृथक नहीं किया जा सकता।

 गणेशराम बनाम पूजा यादव  2011  के वाद में छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने निर्णीत किया कि पारिवारिक न्यायालय की स्थापना के बाद दीवानी न्यायालय में लम्बित विवाह अथवा बच्चों की औरसता सम्बन्धी विवाद स्वतः ही पारिवारिक न्यायालय में अन्तरित मान लिये जायेंगे।

पुष्पा बनाम नेशनल इन्श्योरेन्स कम्पनी  2011 सु. को. के वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णीत किया कि किसी वाद को एक न्यायालय से मात्र इस आधार पर अन्तरित नहीं किया जा सकता है कि विचाराधीन मामले पर न्यायालय का क्षेत्राधिकार नहीं है। इस संबंध में पक्षकार को इस आधार पर वाद को खारिज करने का आवेदन देना चाहिए।

वादों आदि के अन्तरण करने की उच्चतम न्यायालय की शक्ति धारा 25 उच्चतम न्यायालय में वादों के अन्तरण सम्बन्धी शक्ति का प्रावधान करती है। इसके अनुसार,

(1) किसी पक्षकार के आवेदन पर और पक्षकारों को सूचित करने के पश्चात् और उनमें से जो सुनवाई के इच्छुक हों उनको सुनने के पश्चात् यदि उच्चतम न्यायालय का किसी भी प्रक्रम पर यह समाधान हो जाता है कि न्याय की प्राप्ति के लिए इस धारा के अधीन आदेश देना समीचीन है तो वह यह निदेश दे सकेगा कि किसी राज्य के उच्च न्यायालय या अन्य सिविल न्यायालय से किसी अन्य राज्य के किसी उच्च न्यायालय या अन्य सिविल न्यायालय को कोई वाद अपील या अन्य कार्यवाही अन्तरित कर दी जाए।

(2) इस धारा के अधीन प्रत्येक आवेदन समावेदन के द्वारा किया जाएगा और उसके अनुसमर्थन में एक शपथ-पत्र होगा।

(3) वह न्यायालय जिसको ऐसा वाद, अपील या अन्य कार्यवाही अन्तरित की गई है, अन्तरण आदेश में दिए गए विशेष निदेशों के अधीन रहते हुए, या तो उसका पुनः विचारण करेगा या उस प्रक्रम से आगे कार्यवाही करेगा जिस पर वह उसे अन्तरित किया गया था।

(4) इस धारा के अधीन आवेदन को खारिज करते हुए यदि उच्चतम न्यायालय की यह राय है कि आवेदन तुच्छ था या तंग करने वाला था तो वह आवेदक को यह आदेश दे सकेगा कि वह उस व्यक्ति को जिसने आवेदन का विरोध किया है, प्रतिकर के रूप में दो हजार रुपये से अनधिक ऐसी राशि संदत्त करे, जो न्यायालय मामले की परिस्थितियों में उचित समझे।

(5) इस धारा के अधीन अन्तरित वाद, अपील या अन्य कार्यवाही को लागू होने वाली विधि यह विधि होगी जो वह न्यायालय जिसमें वह वाद, अपील या अन्य कार्यवाही मूलतः संस्थित की गई थी, ऐसे वाद, अपील या अन्य कार्यवाही को लागू करता।

अन्तरिती न्यायालय (Transferee court) द्वारा लागू की जाने वाली विधि-

इस धारा के अधीन अन्तरित वाद, अपील या अन्य कार्यवाही पर लागू होने वाली विधि वह होगी जो वह न्यायालय जिसमें वाद, अपील या अन्य कार्यवाही मूलतः संस्थित की गयी थी, ऐसे वाद, अपील या अन्य कार्यवाही पर लागू करता है।

वाद आदि के अन्तरण से सम्बन्धित उच्चतम न्यायालय का, गुड विजय लक्ष्मी बनाम गड़ा रामचन्द्र शेषर शास्त्री 1981 के वाद में एक पत्नी ने 'न्यायिक पृथक्करण' (judicial separation) हेतु एक याचिका (petition) हिन्दू विवाह अधिनियम' की धारा 10 के अधीन प्रस्तुत किया। पति ने 'हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 9 के अधीन एक याचिका दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन हेतु प्रस्तुत किया। दोनों, याचिकायें दो विभिन्न राज्यों में प्रस्तुत की गयी, यह अभिनिर्धारित किया गया कि दोनों याचिकाओं की सुनवाई या विचारण एक ही न्यायालय द्वारा किया जाना हर हालत में समीचीन होगा। क्योंकि ऐसा करने से दो न्यायालयों के परस्पर विरोधी निर्णय से बचा जा सकेगा। ऐसी स्थिति में संहिता की धारा 23 से धारा 25 के अधीन उपबन्धित अधिकारों का प्रयोग किया जाना चाहिये, और संयुक्त सुनवाई या विचारण के लिये याचिकाओं के अन्तरण का आदेश दिया जाना चाहिये। 

उच्चतम न्यायालय  ने गुजरात इलेक्ट्रीसिटी बोर्ड बनाम आत्माराम 1989 के वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि वाद के किसी पक्षकार को यह कहने का हक नहीं है कि ऐसे मामले को उच्चतम न्यायालय की एक पीठ से दूसरे पीठ को अन्तरित कर दिया जाये जब तक कि वह पीठ जो मामले की सुनवाई कर रही है पक्षपात (पूर्वाग्रह) से ग्रसित न हो या उसके लिये कोई युक्तियुक्त आधार न हो। मात्र इस आधार पर कि न्यायाधीशों ने मामले की सुनवाई समाप्त हो जाने के पश्चात् मामले के गुणावगुण पर अपने विचार व्यक्त किये, किसी को यह हक नहीं प्राप्त हो जाता कि वह मामले को एक पीठ से दूसरी पीठ को अन्तरित कराये ।




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