न्यायालय की अधिकारिता (jurisdiction)-

 न्यायालय की अधिकारिता (jurisdiction)-


अधिकारिता से अभिप्राय न्यायालय की उस शक्ति से है जिसके अन्तर्गत वह किसी वाद, अपील या आवेदन को ग्रहण कर सकता है और सुनवाई के बाद उस पर निर्णय दे सकता है।

श्रीमती उज्जैन बाई बनाम स्टेट आफ यू. पी.1962 सु. को.  के वाद में कहा गया कि अधिकारिता से तात्पर्य निर्णय करने की शक्ति या अधिकार से है।

क्षेत्राधिकार के प्रकार

वाद कई प्रकार के होते हैं। इन सभी वादों को एक ही न्यायालय नहीं सुन सकता है। इसलिए सुविधा की दृष्टि से न्यायालयों का विधि द्वारा क्षेत्राधिकार निर्धारित कर दिया गया है, जिससे एक ही न्यायालय में वादों की अधिकता नहीं हो। सामान्यतया न्यायालय के क्षेत्राधिकार को निम्न 4 वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-

(1) विषय-वस्तु सम्बन्धी क्षेत्राधिकार

(2) स्थानीय या प्रादेशिक या क्षेत्रीय क्षेत्राधिकार

(3) आर्थिक क्षेत्राधिकार या धन संबंधी क्षेत्राधिकार

(4) आरम्भिक एवं अपीलीय क्षेत्राधिकार।

(1) विषय वस्तु सम्बन्धी क्षेत्राधिकार (Subject Matter Jurisdiction)- किसी भी न्यायालय की सक्षमता निश्चित करने के लिये न केवल स्थानीय एवं धन सम्बन्धी अधिकारिता (क्षेत्राधिकार) का होना आवश्यक है अपितु उसको विषय-वस्तु सम्बन्धी अधिकारिता (क्षेत्राधिकार) भी प्राप्त होना चाहिए। हर न्यायालय को सभी विषय-वस्तु सम्बन्धी मामलों की सुनवाई का अधिकार नहीं होता।

उदाहरणस्वरूप-किसी लघुवाद न्यायालय को अचल सम्पत्ति के विभाजन सम्बन्धी वाद, संविदा के विनिर्दिष्ट पालन सम्बन्धी वाद, बन्धक मोचन या पुरोबन्ध सम्बन्धी वाद, भागीदारी के विघटन सम्बन्धी वाद या भागीदारी के लेखा संबंधी वाद इत्यादि के विचारण का अधिकार नहीं होता। इसी प्रकार प्रोबेट, संरक्षकता, वसीयत सम्बन्धी, विवाह विषयक मामलों की सुनवाई का अधिकार, जिला जज से भिन्न किसी अन्य को नहीं होता।

(2 स्थानीय या प्रादेशिक या क्षेत्रीय क्षेत्राधिकार (Local Jurisdiction)-एक न्यायालय की स्थानीय अधिकारिता (क्षेत्राधिकार) की सीमा सरकार द्वारा निश्चित होती हैं तथा उस स्थानीय सीमा से बाहर न्यायालय को क्षेत्राधिकार प्राप्त नहीं होता। सामान्यतः एक जिला न्यायालय को जिले की सीमा के अन्तर्गत ही क्षेत्राधिकार होता है। जिले से बाहर वह अपने अधिकार का प्रयोग नहीं कर सकता। मुन्सिफ का भी क्षेत्राधिकार केवल एक विशेष क्षेत्र तक ही सीमित होता है, इस सीमा से बाहर वह अपने अधिकार का प्रयोग नहीं कर सकता। इसी प्रकार उच्च न्यायालय को सामान्यतः राज्य विशेष की सीमाओं के अन्तर्गत ही क्षेत्राधिकार होता है तथा उस क्षेत्र के बाहर वह अधिकार का प्रयोग नहीं कर सकता।

(3) आर्थिक क्षेत्राधिकार या धन संबंधी अधिकारिता (Pecuniary or monetary Jurisdiction) - प्रत्येक न्यायालय की सरकार द्वारा न केवल स्थानीय अधिकारिता निश्चित कर दी जाती है अपितु इस न्यायालय की धन संबंधी अधिकारिता भी निश्चित कर दी जाती है। न्यायालय उसी धन सम्बन्धी सीमा के अन्तर्गत किसी वाद या अपील को ग्रहण करने के लिए अधिकृत होते हैं। इस धन सम्बन्धी अधिकारिता की सीमा विभिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न हो सकती है।

उत्तर प्रदेश में मुन्सिफ की धन संबंधी अधिकारिता ऐसे मुकदमों तक सीमित है जिसकी विषय- वस्तु का मूल्यांकन 25,000 रुपये तक है। इसके ऊपर के मूल्यांकन के वाद (Suit) के विचारण का अधिकार सिविल जज सीनियर डिवीजन को होता है।

(4) आरम्भिक एवं अपीलीय क्षेत्राधिकार (Original and appellate Jurisdiction) - प्रारम्भिक सिविल अधिकारिता (Original Civil Jurisdiction) से अभिप्राय न्यायालय की उस शक्ति से है जिसके अन्तर्गत वे किसी भी 'वाद' या प्रार्थना पत्र या अन्य विधिक कार्यवाही को प्रथमतः ग्रहण करते हैं एवं निपटाते हैं। अपीलीय सिविल अधिकारिता से अभिप्राय न्यायालय की उस शक्ति से है जिसके अन्तर्गत वह किसी अधीनस्थ न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध की गई अपील या आपत्ति को ग्रहण करता है एवं निपटाता है। कुछ न्यायालयों को केवल प्रारम्भिक सिविल अधिकारिता ही प्राप्त है, जैसे लघुवाद न्यायालय और उत्तर प्रदेश में मुन्सिफ का न्यायालय तथा मध्य प्रदेश में लघुवाद न्यायालय और सिविल जज द्वितीय श्रेणी। कुछ न्यायालयों को दोनों प्रकार की अधिकारिता प्राप्त हैं। सिविल जज, जिला जज एवं उच्च न्यायालयों को दोनों प्रकार की अधिकारितायें प्राप्त हैं।

प्रश्न- न्यायालय की अधिकारिता (Jurisdiction) से आप क्या समझते हैं? विवेचना कीजिए।

प्रश्न- न्यायालय की आर्थिक क्षेत्राधिकार से आप क्या समझते हैं? यदि वाद के पक्षकारों ने अपनी सहमति दे दी है, तब क्या न्यायालय अपनी सीमा के बाहर के वादों को सुनने के लिए सक्षम होगा? 






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