विधिक प्रतिनिधि (Legal representative)सीपीसी

 (ब) विधिक प्रतिनिधि (Legal representative) -


 सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 2 (11) एवं धारा-50 में विधिक प्रतिनिधि के बारे में आवश्यक प्रावधान किया गया है।

धारा 2 (11) के अनुसार, विधिक प्रतिनिधि से तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से है, जो मृत व्यक्ति की सम्पदा का विधिक प्रतिनिधित्व करता है और इसके अन्तर्गत ऐसा व्यक्ति आता है जो मृतक की सम्पदा में दखलंदाजी करता है और जहां कोई पक्षकार प्रतिनिधि रूप में वाद लाता है अथवा जहां किसी पक्षकार पर प्रतिनिधि रूप में वाद लाया जाता है, वहां वह व्यक्ति इसके अंतर्गत आता है जिसे वह सम्पदा उस पक्षकार के मरने पर अवतरित होती है, जो इस प्रकार का वाद लाया है या जिस पर इस प्रकार का वाद लाया गया है।

उदाहरण-'अ' अपने जीवनकाल में 'ब' को वसीयत द्वारा अपनी सम्पत्ति का प्रशासक नियुक्त करता है। ऐसी सम्पत्ति के सम्बन्ध में न्यायालय में वाद विचाराधीन है। इसी दौरान यदि 'अ' की मृत्यु अपनी पत्नी, पुत्र एवं वसीयत द्वारा नियुक्त प्रशासक 'ब' को छोड़कर हो जाती है तो ऐसी स्थिति में मृतक के वारिस उसकी पत्नी एवं पुत्र होंगे लेकिन धारा 2 (11) की परिभाषा के अन्तर्गत 'ब' उसका विधिक प्रतिनिधि होगा।

केरल उच्च न्यायालय ने पी. एन. मूनी बनाम बेबी जोहन 2000 के वाद में निर्णीत किया कि दुर्घटना के परिणामस्वरूप मृत्यु होने पर मृतक के भाई-बहिन, मृतक के माता-पिता जीवित होने पर उसके विधिक प्रतिनिधि की संज्ञा में नहीं आते चाहे वे मृतक पर आश्रित ही क्यों न हो। 

परन्तु दुर्गाराम बनाम यादवराम 2011 छत्तीसगढ़  के वाद में छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने निर्णीत किया कि मृतक विधवा जो अपने पैतृक घर में निवास करती थी, उसके भाई-बहिन जो उसकी जीवित अवस्था में उस पर निर्भर थे, वे इस मृतक विधवा के विधिक प्रतिनिधि की संज्ञा में आते हैं। पिता की मृत्यु की दशा में उसकी विवाहिता पुत्री विधिक प्रतिनिधि में आती है।

धारा-50 के अनुसार, (1) जहां डिक्री के तुष्ट किये जाने से पहले निर्णीत ऋणी की मृत्यु हो जाती है। वहां डिक्री का धारक डिक्री पारित करने वाले न्यायालय से आवेदन प्राप्त कर सकेगा कि वह उसका निष्पादन मृतक के विधिक प्रतिनिधि के विरुद्ध करें।

(2) जहां डिक्री ऐसे विधिक प्रतिनिधि के विरुद्ध निष्पादित की जाती है। वहां वह मृतक की सम्पत्ति के उस परिणाम तक ही दायी होगा, जितने परिणाम तक वह सम्पत्ति उसके हाथ में आई है और सम्यक रूप से व्ययनित नहीं कर दी गई है और डिक्री निष्पादित करने वाला न्यायालय ऐसा दायित्व अभिनिश्चित करने के प्रयोजन के लिए स्वप्रेरणा से या डिक्रीदार के आवेदन पर ऐसे लेखाओं को, जो वह न्यायालय ठीक समझे, पेश करने के लिए ऐसे विधिक प्रतिनिधि को विवश कर सकेगा।

धारा 50 सपठित आदेश 21 नियम 20 का यह प्रभाव है कि विधिक प्रतिनिधि के विरुद्ध समस्त निष्पादित आवेदन पत्र के लिए दो आवश्यकताएं होती हैं। प्रथम तो यह कि आवेदन पत्र उस न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जाए जिसने डिक्री पारित की है और द्वितीय यह कि निष्पादन की सूचना विधिक प्रतिनिधि को अवश्य दी जाय। धारा 39 के अन्तर्गत अन्तरण का आवेदन पत्र इस धारा का पर्याप्त अनुपालन नहीं है।

निष्पादन कार्यवाही में विधिक प्रतिनिधि का दायित्व वहीं तक होगा जिस सीमा तक उसके हाथ में निर्णीत ऋणी की संपत्ति आयी है।


कोई टिप्पणी नहीं

Blogger द्वारा संचालित.