लोक न्यूसेन्स (Public Nuisance)धारा 91सीपीसी

 


लोक न्यूसेन्स (Public Nuisance)धारा 91सीपीसी  - 

सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 91 में लोक न्यूसेन्स के बारे में प्रावधान किया गया है। किन्तु इसे संहिता में कहीं परिभाषित नहीं किया गया है। इसकी परिभाषा साधारण खण्ड अधिनियम की धारा 3 की उपधारा 48 में इस प्रकार किया गया है कि लोक-अपदूषण की वही परिभाषा होगी, जो भारतीय दण्ड संहिता में है। 

भारतीय दण्ड संहिता की धारा 268 लोक-अपदूषण को परिभाषित करती है। इस धारा के अनुसार-

"लोक अपदूषण ऐसा कार्य या अवैध कार्यलोप है, जिससे जनता को या उन लोगों को जो आस-पास रहते हैं या सम्पत्ति के अधिभोगी हैं, सामान्य क्षति, खतरा एवं क्षोभ होता है या जिससे उन व्यक्तियों को जिनको किसी सार्वजनिक अधिकार के उपयोग का अवसर प्राप्त होता है, क्षति पहुंचती है, या बाधा, खतरा एवं क्षोभ होता है।"

धारा 91 के अनुसार , (1) लोक-न्यूसेन्स या अन्य ऐसे दोषपूर्ण कार्य की दशा से जिससे लोक पर प्रभाव पड़ता है या प्रभाव पड़ना सम्भव है, घोषणा और व्यादेश के लिए ऐसे अन्य अनुतोष के लिये जो मामले की परिस्थितियों में समुचित हो वाद- (क) महाधिवक्ता द्वारा, या

(ख) दो या अधिक व्यक्तियों द्वारा ऐसे लोक न्यूसेन्स या अन्य दोषपूर्ण कार्य के कारण ऐसे व्यक्तियों को विशेष नुकसान न होने पर भी (न्यायालय की इजाजत से, संस्थित किया जा सकेगा। 

(2) इस धारा की कोई भी बात वाद के किसी ऐसे अधिकार को परिसीमित करने वाली या उस पर अन्यथा प्रभाव डालने वाली नहीं समझी जायेगी, जिसका अस्तित्व इसके उपबन्धों से स्वतन्त्र है।

धारा 91 के अधीन न केवल लोक-अपदूषण के लिये वाद संस्थित किया जा सकता है अपितु लोक-अपदूषण से भिन्न दोषपूर्ण कार्य के लिये भी वाद संस्थित किया जा सकता है।

जहां आवासीय के साथ वाणिज्यिक क्षेत्र में तेल मिल लगाया गया है, तेल मिल के क्रिया-कलाप को रोकने के लिए वाद इस आधार पर संस्थित किया गया कि यह अपदूषण का निर्माण करेगा, वहां इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सुनील कुमार वर्मा बनाम रघुवीर सिंह, 1991 इलाहाबाद नामक वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि मिल के क्रिया-कलाप को मात्र इस अभिकथन पर कि यह अपदूषण फैलायेगा, अन्तरिम आदेश के माध्यम से नहीं रोका जा सकता। इसके लिए पूर्ण साक्ष्य पर विचार करने की आवश्यकता पड़ेगी।

जहां एक कंपनी के सिगरेट के व्यापार-चिन्ह का प्रयोग दूसरी कंपनी करती है और उससे सिगरेट का विक्रय बढ़ जाता है, वहां सिक्किम उच्च न्यायालय ने आई. टी. सी. बनाम श्रीकृष्ण मोक्तान 1992 सिक्किम 1 के वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि इससे लोक अपदूषण के अन्तर्गत वाद लाने हेतु नहीं उत्पन्न होता।

लोक अपदूषण के उपाय-

लोक अपदूषण के दोषी व्यक्ति के विरुद्ध निम्न प्रकार कीकार्यवाही की जा सकती है-

(अ) आपराधिक विधि के अधीन-

(1) दोषी व्यक्ति के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता के अधीन आपराधिक कार्यवाही की जा सकती है,

(2) दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 133 से 143 द्वारा मजिस्ट्रेट को समरी या संक्षिप्त अधिकार उस लोक-अपदूषण को हटाने के लिये प्राप्त है।

(ब) दीवानी विधि के अधीन-

(1) बिना विशेष क्षति दर्शाये संहिता की धारा 91 के अधीन वाद संस्थित किया जा सकता है।

(2) प्राइवेट व्यक्ति के द्वारा भी जिसे लोक-अपदूषण से विशेष क्षति पहुंची है, वाद संस्थित किया जा सकता है।

वाद का संस्थित किया जाना-

इस धारा के अधीन निम्न द्वारा वाद संस्थित किया जा सकता है-

(अ) राज्य के महाधिवक्ता द्वारा, या

(ब) दो या अधिक व्यक्तियों द्वारा जिन्होंने न्यायालय की अनुमति प्राप्त कर ली है।

न्यायिक निर्णय-

आर. एम. नारायना चेट्टियार बनाम एन. लक्ष्मन चेट्टियार, 1991 सु. को. के वाद में कहा गया कि इस धारा के अधीन घोषणा-वाद या व्यादेश वाद या किसी अन्य अनुतोष के लिये वाद संस्थित किया जा सकता है। इस धारा के अन्तर्गत वाद संस्थित करने के लिये अनुमति देने से पहले सावधानी के एक नियम के रूप में न्यायालय को चाहिए कि वह प्रतिवादियों को सूचना दे, परन्तु वह ऐसा करने के लिये बाध्य नहीं है।

दिलीप कौशल बनाम स्टेट ऑफ एम. पी., 2008 एम. पी.  के वाद में कहा गया कि धारा 91 (1) में उपलब्ध उपाय लोक उपताप या अन्य दोषपूर्ण कार्य के बारे में है, विस्तृत नहीं है। भारतीय कंपनी अधिनियम, 1956 की धारा 307 (5) में उपलब्ध उपाय सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 91 से स्वतन्त्र है और निगम या किसी अन्य व्यक्ति को भी उपलब्ध है।

👉प्रश्न-

संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए -

👉लोक न्यूसेंस और लोक पर प्रभाव डालने वाले अन्य दोषपूर्ण कार्य

👉सिविल प्रक्रिया संहिता में लोक अपदूषण से संबंधित वाद प्रस्तुत करने हेतु कौन- सी विशेष प्रक्रिया है


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