धारा 109 (सीपीसी) उच्चतम न्यायालय में अपीलें कब होंगी-
धारा 109 (सीपीसी) उच्चतम न्यायालय में अपीलें कब होंगी-
सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 109 और आदेश 45 उच्चतम न्यायालय में अपील का उपबन्ध करती है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 132, 133 और 134 (क) में भी सिविल मामले में सर्वोच्च न्यायालय में अपील का प्रावधान है।
धारा 109 - संविधान के भाग 5 के अध्याय 4 के उपबन्धों के और ऐसे नियमों के जो भारत के न्यायालयों से अपीलों के सम्बन्ध में उच्चतम न्यायालय द्वारा समय-समय पर बनाये जायें और इसमें इसके पश्चात् अन्तर्विष्ट उपबन्धों के अधीन रहते हुये किसी उच्च न्यायालय की सिविल कार्यवाही के किसी निर्णय, डिक्री या अन्तिम आदेश की अपील उच्चतम न्यायालय में होगी, यदि उच्च न्यायालय यह प्रमाणित कर देता है कि-
(i) मामले में व्यापक महत्व का कोई सारवान् विधिक प्रश्न अन्तर्वलित है, तथा
(ii) उच्च न्यायालय की राय में उस प्रश्न का उच्चतम न्यायालय द्वारा विनिश्चय आवश्यक है।
सर्वोच्च न्यायालय में अपील की आवश्यक शर्तें-
संहिता की धारा 109 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय में तभी अपील की जा सकती है, जब निम्नलिखित शर्तें पूरी की जायें-
(1) कोई निर्णय, डिक्री या अन्तिम आदेश उच्च न्यायालय द्वारा पारित किया गया है,
(2) मामले में व्यापक महत्व का कोई सारवान् विधिक प्रश्न अन्तर्वलित है, और
(3) उच्च न्यायालय की राय में इस प्रश्न का उच्चतम न्यायालय द्वारा विनिश्चय आवश्यक है।
व्यापक महत्व का सारवान् विधिक प्रश्न-
उच्च न्यायालय धारा 109 के अधीन जब ऐसा प्रमाणित करे कि मामले में व्यापक महत्व का सारवान् विधिक प्रश्न अन्तर्वलित है, तभी उच्चतम न्यायालय में अपील की जा सकती है। 'विधि का सारवान प्रश्न' संहिता में कहीं भी परिभाषित नहीं है। किन्तु धारा की शब्दावली से यह स्पष्ट है कि उच्च न्यायालय अपील के लिये प्रमाण-पत्र तभी दे सकेगा जबकि मामले में विधि का ऐसा सारवान प्रश्न होना चाहिए कि जिसके उच्चतम न्यायालय के द्वारा अवधारण में पक्षकारों के अतिरिक्त सर्वसाधारण को भी हितबद्ध होना चाहिए। प्रश्न ऐसा होना चाहिए कि एक बहुत बड़ी संख्या में लोगों को प्रभावित करेगा या तमाम कार्यवाहियों को जिनमें वही प्रश्न अन्तर्वलित हैं, प्रभावित करेगा। (महिन्द्रा एण्ड महिन्द्रा बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया,1979 सु. को.)
परन्तु कलकत्ता उच्च न्यायालय की एक पूर्णपीठ ने रतन लाल बंशीलाल बनाम किशोरी लाल गोयंका, 1993 नामक वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि विधि के एक प्रश्न को विधि का सारवान् प्रश्न होने के लिये व्यापक महत्व या सामान्य महत्व का होना आवश्यक नहीं है।
संतोष हजारी बनाम पुरुषोत्तम तिवारी, 2001 सु. को. काश्मीर सिंह बनाम हरनाम सिंह, 2008 सु. को. के वाद में उच्चतम न्यायालय ने "विधि का सारवान प्रश्न क्या है" की व्याख्या करते हुये कहा कि विधि का एक बिन्दु जिस पर दो मत नहीं हो सकते। विधि का एक प्रतिपादन तो हो सकता है किन्तु "विधि का सारवान प्रश्न" नहीं हो सकता। विधि का सारवान् प्रश्न होने के लिये यह आवश्यक है कि वह विवाद योग्य हो, राष्ट्र की विधि द्वारा या बाध्यकर पूर्व निर्णय द्वारा पहले से ही निश्चित या सुस्थापित न हो और जिसका मामले में निर्णय के लिये महत्वपूर्ण एवं आवश्यक सम्बन्ध हो, चाहे जिस तरफ उसका उत्तर दिया जाये, जहाँ तक न्यायालय के समक्ष पक्षकारों के अधिकारों का सम्बन्ध है। अतः यह प्रत्येक वाद के तथ्यों एवं परिस्थितियों पर निर्भर करेगा कि किसी मामले में विधि का कोई प्रश्न विधि का सारवान् प्रश्न है कि नहीं। सर्वोपरि समस्त विचार सभी प्रक्रमों में न्याय करने की अनिवार्य बाध्यता और किसी मुकदमे के जीवन को बढ़ाते रहने से बचने की प्रेरक आवश्यकता के बीच एक न्यायसम्मत संतुलन बनाये रखना होना चाहिए।
उच्चतम न्यायालय में की जाने वाली अपील की प्रक्रिया-संहिता के आदेश 45 में उच्चतम न्यायालय में की जाने वाली अपीलों की प्रक्रिया के बारे में विवरण दिया गया है-
अपील की अनुमति के लिये आवेदन-
उच्चतम न्यायालय में अपील करने के लिये इस आशय के प्रमाण-पत्र की आवश्यकता पड़ती है कि-
(1) मामले में व्यापक महत्व का कोई सारवान् विधिक प्रश्न अन्तर्वलित है, और
(2) ऐसा प्रश्न का विनिश्चय उच्चतम न्यायालय द्वारा किया जाना आवश्यक है।
अतः उच्चतम न्यायालय में अपील की इच्छा रखने वाले पक्षकार को इस आशय का प्रमाण- पत्र प्राप्त करने के लिये उच्च न्यायालय में (जिसकी डिक्री के विरुद्ध अपील किया जाना है) आवेदन करना होगा। (आदेश 45 नियम (2) उपनियम (1)] आवेदन अर्जी के माध्यम से होगा।
इस अर्जी की सुनवाई यथाशीघ्र की जायेगी और आवेदन का निपटारा, उस तारीख से जिसको वह अर्जी न्यायालय में उपस्थित की गयी है, साठ दिन के भीतर समाप्ति करने का प्रयास किया जायेगा। [आदेश 45 नियम (3) उपनियम (2)]
न्यायालय ऐसी अर्जी प्राप्त होने पर निर्देश देगा कि विरोधी पक्षकार को सूचित किया जाये कि वह यह हेतु दर्शित करे कि उक्त प्रमाण-पत्र क्यों न दे दिया जाये। [आदेश 45 नियम 6 उपनियम (2)]
ऐसी सुनवाई के पश्चात् उच्च न्यायालय ऐसा प्रमाण-पत्र जारी कर सकेगा और अगर ऐसे प्रमाण-पत्र का जारी किया जाना अस्वीकृत कर दिया जाता है, तो वहाँ अर्जी खारिज कर दी जायेगी। [आदेश 45 नियम (6)]
जहां ऐसा प्रमाण-पत्र जारी कर दिया जाता है वहां आवेदको परिवादित डिक्री की तारीख से नब्बे दिन या हेतु दर्शित किये जाने पर न्यायालय द्वारा अनुज्ञात की जाने वाली साठ दिन से अधिक नहीं अतिरिक्त अवधि के भीतर या प्रमाण-पत्र जारी किये जाने की तारीख से छह सप्ताह की अवधि के भीतर जो भी तारीख पश्चात्वर्ती हो-
(1) प्रत्यर्थी के खर्चों के लिये प्रतिभूति (नकद या सरकारी प्रतिभूतियों के रूप में) देगा, तथा
(2) वह रकम निक्षिप्त करेगा जो वाद में के पूरे अभिलेख को अनुवाद कराने, अनुलिपि कराने, अनुक्रमणिका तैयार करने और उसकी शुद्ध प्रति उच्चतम न्यायालय को पारेषण के व्ययों की पूर्ति के लिये अपेक्षित हो। (आदेश 45 नियम 7)
जहां उपरोक्त अपेक्षित प्रतिभूति और निक्षेप कर दिया गया है वहाँ न्यायालय अपील के प्रतिग्रहण की घोषणा करेगा, उसकी सूचना प्रत्यर्थी को देगा, और अभिलेख को उच्चतम न्यायालय को भेज देगा। (आदेश 45 नियम 8)
अपील के उच्चतम न्यायालय में लम्बित रहने से डिक्रीदार के अपने डिक्री का निष्पादन कराने के अधिकार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता अगर न्यायालय उसके विपरीत कोई आदेश न दे। (आदेश 45 नियम 13 उपनियम 1)
न्यायालय अपीलार्थी से पर्याप्त प्रतिभूति लेकर डिक्री के निष्पादन की कार्यवाही को रोक सकेगा। [आदेश 45 नियम 13 उपनियम (2) खण्ड (ग)]
या प्रत्यर्थी से पर्याप्त प्रतिभूति लेकर डिक्री के निष्पादन की अनुमति दे सकेगा। [आदेश 45 नियम 13 उपनियम (2) खण्ड (ख)]
अपील की सुनवाई के बाद उच्चतम न्यायालय मामले में अपना निर्णय देगा। जो कोई उच्चतम न्यायालय की किसी डिक्री या आदेश का निष्पादन करना चाहता है, वह उस डिक्री की जो अपील में पारित की गयी थी या उस आदेश की जो अपील में दिया गया था, और जिसका निष्पादन चाहा गया है, प्रमाणित प्रति सहित अर्जी द्वारा उस न्यायालय से आवेदन करेगा, जिसकी अपील उच्चतम न्यायालय में की गयी थी। [आदेश 45 नियम 15 उपनियम (1)]
ऐसा न्यायालय (जिसे आवेदन किया गया है) उच्चतम न्यायालय की डिक्री के आदेश को उस न्यायालय को भेजेगा जिससे वह पहली डिक्री (जिसकी अपील की गयी है) पारित की थी अर्थात् प्रथम बार के न्यायालय या विचारण न्यायालय में भेजेगा या जो उच्चतम न्यायालय ऐसी डिक्री या आदेश में निदिष्ट करे। उच्चतम न्यायालय ऐसी डिक्री या आदेश में निदिष्ट करे। वह न्यायालय जिसे उच्चतम न्यायालय की ऐसी डिक्री या आदेश भेजा जायेगा उसका निष्पादन उस रीति से और उन प्रावधानों के अधीन करेगा, जो उसकी अपनी मूल डिक्री के निष्पादन को लागू होते हैं। [आदेश 45 नियम 15 उपनियम (2)]
उच्चतम न्यायालय की डिक्री या आदेश का निष्पादन जो न्यायालय करता है उस न्यायालय द्वारा ऐसे निष्पादन के सम्बंध में किये गये आदेश के विरुद्ध अपील उसी रीति से और उन्हीं नियमों के अधीन होंगे, जिसके अधीन उस न्यायालय की अपनी डिक्रियों के निष्पादन संबंधी आदेश अपीलीय होते हैं। (आदेश 45 नियम 16)
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