धारा 151 (सीपीसी) न्यायालय के अंतर्निहित शक्ति-

धारा 151 (सीपीसी) न्यायालय के अंतर्निहित शक्ति-


धारा 151 के अनुसार, इस संहिता की किसी भी बात के बारे में यह नहीं समझा जायेगा कि वह ऐसे आदेशों के देने की न्यायालय की अन्तर्निहित शक्ति को परिसीमित या अन्यथा प्रभावित करती है, जो न्याय के उद्देश्यों के लिये या न्यायालय की आदेशिका के दुरुपयोग का निवारण करने के लिये आवश्यक है।

कोई भी विधि अपने-आप में पूर्ण नहीं होती। उसमें सभी विषयों को सम्मिलित किया जाना सम्भव नहीं होता है, क्योंकि विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न मामले उत्पन्न होते रहते हैं एवं सभी के लिये विधि में व्यवस्था हो, यह एक असम्भव बात है। सामान्यतः विधानमण्डल भी सभी विषयों पर कानून का निर्माण नहीं कर सकता, वह स्वाभाविक एवं सामान्य प्रसंगों का अनुमान करते हुए विधियों का निर्माण करता है। यह ठीक भी है क्योंकि भविष्य की घटनाओं की वर्तमान में कल्पना भी नहीं की जा सकती। अतः ऐसे प्रश्नों का निराकरण करने के लिये साधारणतया न्यायालयों को ही कुछ शक्तियां दे दी जाती हैं, जिन्हें हम न्यायालय की "अन्तर्निहित शक्तियां" कहते हैं। ये शक्तियां न्यायालय को साम्य, न्याय एवं शुद्ध अन्तःकरण के आधार पर वादों का अवधारण करने के लिये सशक्त करती है। लेकिन यह भी ज्ञातव्य है कि न्यायालय अपनी इन अन्तर्निहित शक्तियों का प्रयोग तभी कर सकेगा जब कि संहिता में उसके सम्बन्ध में कोई व्यवस्था नहीं की गई हो। फिर न्यायालय अपनी इन अन्तर्निहित शक्तियों का प्रयोग करते हुए न तो विधि के व्यक्त उपबन्धों को नगण्य ही कर सकता है और न ही वह ऐसी बात कर सकता है जो विधि द्वारा प्रतिषिद्ध हो।

सिविल प्रक्रिया संहिता सर्वांगपूर्ण नहीं है, और धारा 151 कोई नई शक्ति प्रदान नहीं करती है, बल्कि केवल कुछ चीजों को करने की, जैसी कि न्याय की मांग होती है, न्यायालय की अन्तर्निहित शक्ति को कानूनी मान्यता देती है। अनावश्यक खर्च तथा पक्षकारों की असुविधा को दूर करना न्याय का लक्ष्य है, प्रयोजन है। इसलिए न्यायालय, केवल इसी कारण अनुतोष को इंकार नहीं करेगा, कि उसके लिये जो आवेदन किया गया है, वह गलत धारा के अनुसार किया गया है, या इसलिए कि उसमें कोई तकनीकी कमी है।

यहां यह भी जान लेना समीचीन होगा कि अन्तर्निहित शक्ति धारा 151 किसी भी न्यायालय को प्रदान नहीं करती। उच्चतम न्यायालय ने मनोहर लाल बनाम सेठ हीरा लाल, 1962 सु. को. के वाद में कहा कि अन्तर्निहित अधिकार न्यायालय को प्रदत्त नहीं किया गया है, यह एक ऐसा अधिकार है, जो न्यायालय में अन्तर्निहित है इसलिए कि उसका कार्य जो पक्षकार उसके समक्ष है उनके बीच न्याय करना है।

धारा 151 अन्तर्निहित अधिकार परिदत्त नहीं करती है वरन् यह इंगित करती है। न्यायालय में ऐसा अधिकार है और उसका उपयोग न्याय की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिये (या न्याय करने के लिये) या न्याय की प्रक्रिया का दुरुपयोग रोकने के लिये किया जाना चाहिए।

अन्तर्निहित शक्ति न्यायालय की उन शक्तियों के अतिरिक्त है, जो न्यायालय को संहिता के अधीन प्रदान की गयी है। ऐसी अन्तर्निहित शक्ति न्यायालय को संहिता द्वारा प्रदत्त शक्तियों की पूरक हैं और न्यायालय उसका उपयोग करने के लिये स्वतन्त्र हैं, किन्तु ऐसी शक्ति का उपयोग न्याय की प्रक्रिया का दुरुपयोग रोकने के लिये किया जायेगा। यह न्यायालय को ऐसा आदेश पारित करने का अधिकार देती है, जो वह ठीक समझें। जहां विशिष्ट प्रावधान है, वहां धारा 151 का अवलम्ब नहीं लिया जा सकता। कर्नाटक उच्च न्यायालय ने ऐसा निर्णय पालधर रोंलिग मिल्स प्रा. लि. बनाम विश्वेश्वरैया आई और एस लि. 1985 कर्नाटक स्टेट आफ यू.पी. बनाम रोशन सिंह,  2008 सु. को. नामक वाद में दिया है। ऐसा ही विचार उच्चतम न्यायालय का भी है। शिपिंग कारपोरेशन ऑफ इण्डिया लि. बनाम मछादो ब्रदर्स  2004 सु. को. में  निर्णय के अनुसार, यदि कोई विशिष्ट प्रावधान नहीं है, जो धारा 151 के अन्तर्गत मांगे गये अनुतोष को प्रदान करने का प्रतिषेध करता है तो न्यायालयों को वह सब अनिवार्य शक्ति प्राप्त है कि वे धारा 151 के अन्तर्गत समुचित आदेश, न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये, पारित कर सके।

दुर्गेश शर्मा बनाम जयश्री, 2009 सु. को. के वाद में कहा गया कि अन्तर्निहित अधिकार का प्रयोग न्यायानुसार उन मामलों में किया जा सकता है, जहां संहिता में अभिव्यक्त प्रावधान नहीं है।

एन. वी. रानी सिन्हा बनाम मथुरा प्रसाद, 2012 पटना  के वाद में कहा गया कि धारा 151 के अन्तर्गत न्यायालय की शक्ति उस अनुतोष तक सीमित है, जिसका सिविल प्रक्रिया संहिता या किसी अन्य संविधि के अन्तर्गत प्रतिषेध नहीं है।

नेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ एम. एच. एण्ड एन. एस. बनाम सी. परमेश्वर,  2005 सु. को. के वाद में कहा गया कि कोई भी न्यायालय अन्तर्निहित शक्ति के अन्तर्गत वह कार्य नहीं कर सकता, जिसका संहिता में प्रतिषेध किया गया है। इस अन्तर्निहित अधिकार का प्रयोग संहिता के प्रावधानों को निष्प्रभावित करने के लिये नहीं किया जा सकता।

कुछ उदाहरण जिनमें न्यायालयों ने अन्तर्निहित शक्ति का प्रयोग किया है-

(1) वाद के संयुक्त विचारण का आदेश 

(2) वाद की सुनवाई स्थगित करना

(3) प्रतीप वाद (cross suits) का स्थगन

(4) यह निश्चित करना कि उचित पक्षकार (proper parties) न्यायालय के समक्ष है कि नहीं

(5) विभिन्न वादों और अपीलों का समेकन करना और उनका विचारण करना 

(6) इस बात की जांच करना कि क्या वादी वयस्क की हैसियत से वाद संस्थित करने योग्य है।

(7) एक तीसरे व्यक्ति के आवेदन को ग्रहण करना ताकि उसे पक्षकार बनाया जा सके

(8) ऐसे मामलों में प्राङ्गन्याय के सिद्धान्त को लागू करना, जो संहिता की धारा 11 के अधीन नहीं आते,

(१) न्यायालय की अवमानना के लिये सरसरी तौर पर कारावास से दण्डित करना,

(10) अपनी गलतियों को ठीक करना,

(11) जो डिक्री का आदेश धारा 152 के अधीन नहीं आते उनमें संशोधन करना,

(12) न्याय के लिये भरण-पोषण को अनुज्ञात करना या दुरुपयोग को रोकना

(13) चैम्बर में दिये गये अन्तवर्ती आदेश पर पुनर्विचार करना

(14) पक्षकारों को यह निर्देश देता कि कमिश्नर के लिये अतिरिक्त फीस (शुल्क) जमा करें,

(15) न्यायालय के साथ धोखा करके कराये गये विक्रय को निरस्त करना, आदि

(16) जहां वाद व्यतिक्रम के लिये खारिज कर दिया गया है, वाद को प्रत्यावर्तित करने के लिये आवेदन किया गया है, वादी अन्तरिम आदेश की मांग करता है, जिसके माध्यम से प्रतिवादी को ऐसे आवेदन पर निर्णय होने तक सम्पति के अन्तर से रोक दिया जाये, वहाँ यह अभिनिर्धारित किया गया कि धारा 151 के अन्तर्गत (अन्तर्निहित अधिकार के अधीन) ऐसा अन्तरिम आदेश न्याय के हित में जारी किया जा सकता है। (टी. परनीर सेलवम् बनाम ए, 1986 मद्रास)

(17) जहां निर्णय से पूर्व कुकीं का आदेश अवैधानिक और शून्य है, वहां न्यायालय का यह कर्तव्य है कि यह संहिता की धारा 151 के अन्तर्गत अपनी अधिकारिता का प्रयोग करे और ऐसे निर्णय का पुनरीक्षण करें। ऐसा निर्णय कर्नाटक उच्च न्यायालय ने पालघर रोलिंग मिल्स प्रा. लि. बनाम विश्वश्वरैया आई. और एस. लि. नामक वाद में दिया।

(18) जहां धार्मिक, धर्मादान्यास के कुव्यवस्था, दुरुपयोग और कुप्रशासन का प्रश्न है, वहां ऐसी चीजों को ठीक करने का अन्तर्निहित अधिकार न्यायालय को है, भले ही उसके लिये कोई वैकल्पिक उपचार उपलब्ध हों।

(19) जहां विवादित परिसर का कब्जा, बलपूर्वक अनधिकृत और न्यायालय की पूर्व अनुमति के बिना प्राप्त कर लिया गया है। वहाँ धारा 144 के अन्तर्गत प्रतिस्थापन का आदेश तो नहीं दिया जा सकता, परन्तु न्याय के हित में इस धारा 151 के अन्तर्गत कब्जा पुनः वापस दिलाया जा सकता है। (बेनी चेनचाइया बनाम शेक अली साहेब, ए, 1993 आं. प्र. )

(20) किसी व्यक्ति को, किसी दूसरे न्यायालय में वाद की कार्यवाही करने से, व्यादेश द्वारा रोकने के लिये,

(21) न्यायालय के साथ कपट करने या न्यायालय की आदेशिका का दुरुपयोग करके प्राप्त किये गये आदेश को खत्म करने के लिये। 

(22) किसी ऐसे आदेश को रद्द करने के लिये जो उससे प्रभावित होने वाले पक्षकारों को बिना सूचना दिये और एकतरफा पारित किया गया है, यदि एक उचित मामले की सम्पुष्टि की जाती है।

(23) कोई भी वाद, जो किसी दस्तावेज पर आधारित है। जिसकी मांग यदि प्रतिवादी करता है तो न्यायालय इस धारा के अन्तर्गत ऐसे दस्तावेज को वादी के लिये संस्थित करने के लिये आदेश दे सकेगा। (मे. श्रीनिवास बनाम विनीत कुमार, 2007 गुवाहाटी)

पी. श्रीनिवासा राव बनाम पी. इन्दिरा, ए, 2002 आं. प्र. के वाद जहां हिन्दू दत्तक और भरण-पोषण अधिनियम के अन्तर्गत वाद भरण-पोषण के लिये पति के विरुद्ध संस्थित किया गया है, वहां पारिवारिक न्यायालय सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 151 के अन्तर्गन अर्थात् अपने अन्तर्निहित अधिकार के अन्तर्गत अन्तरिम भरण-पोषण कर सकता है।


कुछ उदाहरण जिनमें अन्तर्निहित शक्ति का उपयोग नहीं किया जा सकता-

(1) कोई भी न्यायालय संहिता की धारा 10 के उपबन्धों की अवहेलना नहीं कर सकता। इसी प्रकार जहां व्यादेश के लिये आदेश 39 (1) की आवश्यकता पूरी न होती हो, वहां इस धारा के अन्तर्गत व्यादेश उचित नहीं होगा। (मेसर्स अल्ट्रा ड्राइटेक इन्जीनियरिंग प्रा. लि. बनाम नीरज पेट्रोकेमिकल्स लि., 1994 आं. प्र. )

(2) कोई भी न्यायालय डिक्री की तिथि से बाद का ब्याज नहीं दे सकता। अगर डिक्री इस प्रश्न पर कोई व्यवस्था नहीं करती ।(34(2)

(3) ऐसा वाद जो फीस न देने के कारण खारिज कर दिया गया है, उसको न्यायालय अन्तर्निहित शक्ति के अन्तर्गत फाइल पर प्रत्यावर्तित नहीं कर सकेगा। (आदेश 7 नियम 11)

 (4) वे आदेश जो अपील योग्य नहीं है, उनसे या उनके विरुद्ध की गयी अपील कोई न्यायालय धारा 151 के अधीन नहीं ग्रहण कर सकता। (धारायें 104-105)

(5) न्यायालय अन्तर्निहित शक्ति के अन्तर्गत एकपक्षीय डिक्री को नहीं निरस्त कर सकते।

(6) पक्षकारों को डाक्टरी जांच के लिये मजबूर नहीं किया जा सकता। (अन्तर्निहित शक्ति के अन्तर्गत)

(7) अन्तर्निहित शक्ति के अन्तर्गत एक आदेश पर पुनर्विचार या पुनर्विलोकन नहीं किया जा सकता। 

(8) न्यायालय अन्तर्निहित शक्ति के अन्तर्गत निर्णय पर हस्ताक्षर करने के उपरान्त विधिक प्रतिनिधि को प्रतिस्थापित नहीं कर सकता।

(9) इस शक्ति के अन्तर्गत किसी पक्षकार के बचाव को विखण्डित नहीं कर सकता।

(10) धारा 151 का अवलम्ब (सहारा) विशिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 41 (ख) के प्रावधानों को अकृत करने के लिये नहीं लिया जा सकता। ऐसा निर्णय सर्वोच्च न्यायालय ने काटन कारपोरेशन ऑफ इण्डिया बनाम यूनाइटेड इण्डस्ट्रियल बैंक, 1983 सु. को. के वाद में दिया।

(11) अन्तर्निहित शक्ति या अवलम्ब वादपत्र में ऐसे संशोधन के लिये नहीं लिया जा सकता, जिससे एक बिल्कुल ही नये वाद हेतुक का प्रवेश हो जाये या वाद की प्रकृति में ही परिवर्तन हो जाये।

(12) अन्तर्निहित अधिकार का अवलम्ब वादों आदि के अन्तरण के लिये नहीं लिया जा सकता।

(13) अन्तर्निहित अधिकार का प्रयोग वहां भी नहीं किया जा सकता जहां कार्यवाहियों की बहुलता या सांविधिक प्रावधानों के परिवंचना के लिये।

न्यायालय की अन्तर्निहित शक्तियों पर प्रतिबंध - 

अन्तर्निहित शक्तियों के प्रतिबन्धों को उल्लखित किया जा सकता है। पहले तो न्यायालय ऐसी चीज करने की अन्तर्निहित शक्ति नहीं रखता है, जो संहिता द्वारा स्पष्ट रूप से मना की गई है, ताकि देश का कोई कानून विफल न हो। धारा 151 न्यायालय को उन विषयों की कोई अधिकारिता नहीं देती है, जो संप्रज्ञान के बाहर किये गए हैं।

जैसे कि-

(1) किसी ऐसे आदेश जो अपील योग्य नहीं है, कोई अपील अनुदत्त नहीं की जा सकती है। इस तरह, एक बार जब निर्णय पर हस्ताक्षर कर दिया जाता है, तो वह सिवाय उसके जो धारा 152 में दिया गया है या पुनर्विलोकन से और किसी तरह बदला नहीं जा सकता। उसी तरह कोई एकतरफा डिक्री रद्द नहीं की जा सकती, जब तक कि संहिता के आदेश 9, नियम 13 के अर्थ में कोई मामला रचा नहीं गया हो।

(2) अन्तर्निहित शक्ति का प्रयोग वहां नहीं किया जायेगा, जहां आवेदक को संहिता से और जहां कहीं वह उपाय प्राप्त था, लेकिन उसने उसका उपयोग करने में उपेक्षा की।

(3) अन्तर्निहित शक्ति का प्रयोग इस तरह नहीं किया जायेगा कि कानून के सामान्य सिद्धान्तों से उसका विरोध हो।

(4) सिविल प्रक्रिया संहिता के अनिवार्य नियमों की उपेक्षा के लिये न्यायालय की अन्तर्निहित शक्तियों की मांग नहीं की जा सकती।

(5) न्यायालय को दी गई अन्तर्निहित शक्तियां विवेकाधीन होती हैं। केवल यह तथ्य कि कोई उपाय है, जो सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 151 के नियमों को आकृष्ट नहीं करेगा, यदि न्याय के प्रयोजनों के लिये या न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिये यह आवश्यक हो।

(6) अन्तर्निहित शक्तियों के अधीन अधिकारिता का प्रयोग करने में, न्यायालय उस पक्षकार के पक्ष में जो उसकी सहायता मांगता है, मामले के न्याय से प्रभावित होता है। जहां पक्षकार ढिलाई का दोषी रहा है, या अपनी उपाय करने में अनिच्छुक होगा। इक्विटी सजग एवं सावधान व्यक्ति की मदद करती है, सोते हुये व्यक्ति की नहीं।

उपरोक्त प्रावधानों से स्पष्ट है कि धारा 151 में न्यायालय वाद के किसी पक्षकार के साथ यदि संहिता में उल्लिखित प्रक्रिया के परिणामस्वरूप अन्याय हो रहा है तो उसे न्याय दिलाने के लिए ऐसी प्रक्रिया में परिवर्तन कर सकेगा।

नोट-यदि धारा 151 के अधीन किसी न्यायालय द्वारा कोई आवेदन या डिक्री पारित की जाती है तो उसके विरुद्ध कोई अपील नहीं हो सकती परन्तु पीड़ित पक्षकार के आवेदन पर उच्च न्यायालय पुनरीक्षण कर सकेगा।

प्रश्न- न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों की परिधि एवं विस्तार की चर्चा कीजिए?

व्यवहार न्यायालय के अंतर्निहित शक्तियों से आप क्या समझते हैं? वर्णन करें। 

सिविल न्यायालयों की अन्तर्निहित शक्ति के संबंध में संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

सिविल न्यायालय की अन्तर्निहित शक्तियों के बारे में आप क्या जानते हैं? 

न्यायालय की अन्तर्निहित शक्तियां क्या हैं? उदाहरण दीजिए। 


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