सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 152 में निर्णयों, डिक्रियों या आदेशों का संशोधन

 


सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 152 में निर्णयों, डिक्रियों या आदेशों का संशोधन के बारे में प्रावधान किया गया है।

धारा 152 के अनुसार, निर्णयों या डिक्रियों या आदेशों में ही लेखन या गणित सम्बन्धी भूलें या किसी आकस्मिक भूल या लोप से उसमें हुयी गलतियों न्यायालय द्वारा स्वप्रेरणा से या पक्षकारों में से किसी के आवेदन पर किसी भी समय शुद्ध की जा सकेगी।

धारा 152 के प्रावधानों का आधार यह है कि "किसी को न्यायालय के कार्य से क्षति नहीं पहुँचनी चाहिये" (actus curiae neminem gravavit - an ant of court shall prejudice no man) यह सूत्र स्वयं न्याय एवं शुद्ध विवेक पर आधारित है।

आदेश 20 नियम 3 के अनुसार, निर्णय सुनाये जाने के समय न्यायाधीश उस पर खुले न्यायालय में तारीख डालेगा और उस पर हस्ताक्षर करेगा। एक बार जब निर्णय पर हस्ताक्षर कर दिया गया है, तदनन्तर न तो उसमें कोई परिवर्तन किया जायेगा और न ही कोई परिवर्धन किया जायेगा। परन्तु इस सामान्य नियम का अपवाद 152 में दिया गया है। जिसके अधीन एक निर्णय पर हस्ताक्षर करने के पश्चात् उसमें परिवर्तन और परिवर्धन हो सकता है।

निर्णयों में संशोधन-

निर्णयों, डिक्रियों या आदेशों में संशोधन केवल निम्न परिस्थितियों में किया जा सकता है

(1) जब उसमें लिपिकीय भूल हो, या

(2) जब उसमें गणितीय भूल हो, या

(3) आकस्मिक भूल हो, या

(4) आकस्मिक लोप से उत्पन्न गलती हो।

जहां डिक्री की धनराशि वाद में मांगे गये दावे से अधिक है, त्रुटि लेखन एवं गणित सम्बन्धी है, डिक्री में अधिक धनराशि के लिए प्रतिवादी ने न तो अपील दाखिल किया और न ही कोई प्रत्याक्षेप और न ही त्रुटि को ठीक करने के लिये धारा 151 के अधीन आवेदन दिया, वहां कर्नाटक उच्च न्यायालय ने विजया बैंक बनाम भसीजा, 1994 कर्नाटक के वाद में अभिनिर्धारित किया है कि ऐसी स्थिति में न्यायालय स्वप्रेरणा से त्रुटि ठीक कर सकता है।

तिलकराज बनाम बैकुण्ठी देवी, 2009 सु. को. के वाद में धारा 152 के अन्तर्गत न्यायालय वास्तविक या प्रामाणिक और सद्भावी गलती को सुधार सकता है। जैसे जहां वाद की सम्पति का खसरा नम्बर डिक्री में गलत पड़ गया। वहां ऐसी गलती की शुद्धि के लिये निर्देश मुकदमेबाजी को कम करने के लिये अनुज्ञेय है।

नियामत अली मोल्ला बनाम सोनारगोन हाउसिंग कोआपरेटिव सोसा. लि., 2008 सु. को. के वाद में कहा गया कि डिक्री या आदेश पर हस्ताक्षर हो जाने के पश्चात उसमें  संशोधन या परिवर्द्धन केवल दो रूपों में हो सकता है, एक तो धारा 151 के अधीन और दूसरा इस धारा (152) के अधीन । धारा 152 के प्रावधानों का अर्थान्वयन पांडित्यपूर्ण तरीके से नहीं किया जाना चाहिए।

उमेश चन्द्र करन बनाम शैल कुमारी देवी,  2007 पटना  के वाद में कहा गया कि धारा 152 के प्रावधान, लिपिकीय, गणितीय या आकस्मिक चूक तक सीमित है। धारा 152 के संशोधन के लिये कोई समय सीमा निर्धारित नहीं करती। यह अपील के दौरान भी हो सकता है।

पंचाट में संशोधन-

जहां पंचाट में लिपिकीय या गणितीय त्रुटि या गलती हुई है, वहां उसे सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 152 का सहारा लेकर ठीक किया जा सकता है। अतः धारा 152 के प्रावधान उत्तर प्रदेश औद्योगिक निविदा अधिनियम, 1947 की धारा 6 (6) पर भी स्पष्ट रूप से लागू होंगे।




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