स्थगन- (आदेश 17)-


 स्थगन- (आदेश 17)-

सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 17 में स्थगन के संबंध में प्रावधान किया गया है।

दीवानी प्रक्रिया संहिता के प्रावधान पीड़ित पक्षकारों को न केवल न्याय दिलवाने में सहायक है, अपितु न्याय को शीघ्र दिलाने में भी सहायक हैं क्योंकि न्याय में अधिक देरी होना न्याय नहीं माना जाता। आदेश 17 में भी यही सामान्य सिद्धान्त दिया गया है कि वाद की एक बार कार्यवाही के आदेश होने के उपरान्त न्यायालय वाद के अन्तिम निस्तारण तक दिन प्रतिदिन वाद की सुनवाई करेगा, जब तक कि न्यायालय को किसी पर्याप्त कारण से सुनवाई स्थगित करनी पड़े।

किसी मामले में एक बार कार्यवाही के प्रारम्भ हो जाने पर वह निरन्तर जारी रहती है और रहना चाहिए। लेकिन यह कोई निरपेक्ष नियम हो, ऐसी बात नहीं है। कभी-कभी ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, जबकि न्यायालय के लिए किसी कार्यवाही का चालू रखना असम्भव हो जाता है और यदि इन परिस्थितियों में भी कार्यवाही को चालू रखा जाता है तो इससे पक्षकारों के साथ अन्याय होने की सम्भावना रहती है। इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए संहिता के आदेश 17 में 'स्थगन' के बारे में व्यवस्था की गई है।

'स्थगन' से अभिप्राय किसी कार्यवाही को एक तिथि से दूसरी के लिए स्थगित करना अथवा टालना है।

नियम 1 न्यायालय समय दे सकेगा और सुनवाई स्थगित कर सकेगा'

 (1) यदि वाद के किसी प्रक्रम पर पर्याप्त हेतुक दर्शित किया जाता है तो न्यायालय पक्षकारों या उनमें से किसी को समय दे सकेगा और लेखबद्ध किये जाने वाले कारणों से वाद की सुनवाई को समय-समय पर स्थगित कर सकेगा-

परन्तु,

ऐसा कोई स्थगन वाद की सुनवाई के दौरान एक पक्षकार को तीन बार से अधिक नहीं किया जायेगा।

उच्चतम न्यायालय ने सलेम एडवोकेट बार एसो. बनाम यूनियन आफ इण्डिया,  2005 सु. को. के वाद में कहा कि आदेश 17 नियम 1 और 2 को एक साथ पढ़ा जाना चाहिए और ऐसा पढ़ने पर तीन बार से अधिक का स्थगन दिया जाना प्रतिबन्धित नहीं है। यदि परिस्थितियां पक्षकार के नियंत्रण के बाहर हैं। ऐसी स्थिति में स्थगनों की संख्या को कोई प्रतिबंध नहीं हैं। नियंत्रण से बाहर परिस्थितियों का उदाहरण देते हुये उच्चतम न्यायालय ने कहा-जैसे अचानक अस्पताल में भर्ती होना (किसी गम्भीर बीमारी के कारण), गम्भीर दुर्घटना या दैवकृत के कारण विनाश आदि।

शिवनाथ बनाम बंगाई सहदेव,  2007 (एन. ओ. सी.)  इला. के वाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने निर्णीत किया कि संशोधन अधिनियम, 1999 द्वारा आरोपित परन्तुक 'तीन बार से अधिक स्थगन नहीं' एक आदेशात्मक नियम नहीं है, परन्तु निर्देशानुसार है। व्यय आरोपित करके चौथी बार न्यायालय सुनवाई को स्थगन कर सकेगा।

बगाई कन्स्ट्रक्शन बनाम गुप्ता बिल्डिंग मैटीरियल स्टोर, 2013 सु. को. के वाद में अभिनिर्धारित किया कि स्थगन, पुनः खोलने और वापस बुलाने सम्बन्धी अन्तरिम उपाय है और जहां तक सम्भव हो उससे बचना चाहिए, केवल बाध्यकर और स्वीकार्य कारणों से उन आवेदनों पर विचार करना चाहिए।

(2) स्थगन के खर्चे- 

न्यायालय हर ऐसे मामले में वाद की आगे की सुनवाई के लिये दिन नियत करेगा और [ ऐसे स्थगन के कारण हुये खर्चों और उच्चतर खर्चों के सम्बन्ध में ऐसा कर सकेगा जो वह ठीक समझे।]

परन्तु,

(क) यदि वाद की सुनवाई प्रारम्भ हो गई तो जब तक न्यायालय उन असाधारण कारणों से जो उसके द्वारा लेखबद्ध किये जायेंगे, सुनवाई का स्थगन अगले दिन से परे के लिये करना आवश्यक समझे, वाद की सुनवाई दिन प्रतिदिन तब तक जारी रहेगी जब तक सभी हाजिर साक्षियों की परीक्षा न कर ली जाये।

(ख) किसी पक्षकार के अनुरोध पर कोई भी स्थगन ऐसी परिस्थितियों को छोड़कर जो उस पक्षकार के नियंत्रण के बाहर हो, मन्जूर नहीं किया जायेगा,

(ग) यह तथ्य स्थगन के लिये आधार नहीं माना जायेगा कि किसी पक्षकार का प्लीडर दूसरे न्यायालय में व्यक्त है,

(घ) जहां प्लीडर की रुग्णता या दूसरे न्यायालय में उसके व्यस्त होने से भिन्न कारण से, मुकदमे का संचालन करने में उसकी असमर्थता को स्थगन के लिये एक आधार के रूप में पेश किया जाता है। वहां न्यायालय तब तक स्थगन मंजूर नहीं करेगा, जब तक उसको यह समाधान नहीं हो जाता है कि एक स्थगन के लिये आवेदन करने वाला पक्षकार समय पर दूसरा प्लीडर मुकर्रर नहीं कर सकता था।

(ङ) जहां कोई साक्षी न्यायालय में उपस्थित है किन्तु पक्षकार या उसका प्लीडर उपस्थित नहीं है अथवा पक्षकार या प्लीडर न्यायालय में उपस्थित होने पर भी किसी साक्षी की परीक्षा या प्रतिपरीक्षा करने के लिए तैयार नहीं है वहां न्यायालय, यदि ठीक समझे तो साक्षी का कथन अभिलिखित कर सकेगा और यथास्थिति, पक्षकार या उसके प्लीडर द्वारा जो उपस्थित न हो अथवा पूर्वोक्त रूप से तैयार न हो, साक्षी की मुख्य परीक्षा या प्रतिपरीक्षा करने को अभिमुक्त् करते हुये ऐसे आदेश कर सकेगा, जो वह ठीक समझे।

विचारण न्यायालय को इस बात के लिए स्थगन आदेश नहीं देना चाहिए कि उच्च न्यायालय में पुनरीक्षण की याचिका दाखिल की जा सके और रोक आदेश ले आया जा सके। ऐसा निर्णय राजस्थान उच्च न्यायालय में चन्दर सिंह बनाम छोटे लाल, 1994 राज.  के वाद में किया।

उदनापुर कोआपरेटिव हैंडलूम वीवर्स सोसाइटी बनाम स्पेशल, ए. डी. जे. 2009 इला. के वाद में अभिनिर्धारित किया गया कि एकपक्षीय डिक्री के अपास्त करने के बाद न्यायालय ने प्रतिवादी को परिव्यय भुगतान कर लिखित कथन प्रस्तुत करने की इजाजत दे दी। इससे पूर्व तीन बार स्थगन दिये जा चुके थे। प्रतिवादी ने न तो लिखित कथन पेश किया और न ही परिव्यय का भुगतान। प्रतिवादी द्वारा ऐसी स्थिति में स्थगन का आवेदन किया गया, जिसे न्यायालय ने खारिज कर दिया, जिसको इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उचित ठहराया।

नियम 2 यदि पक्षकार नियत दिन पर उपसंजात होने में असफल रहते हैं तो प्रक्रिया-

वाद की सुनवाई जिस दिन के लिए स्थगित हुई है। यदि उस दिन पक्षकार या उनमें से कोई उपसंजात होने में असफल रहते हैं तो न्यायालय आदेश 9 द्वारा उस निमित्त ढंगों में से एक से वाद का निपटारा करने के लिये अग्रसर हो सकेगा या ऐसा अन्य आदेश कर सकेगा, जो वह ठीक समझे।  

स्पष्टीकरण-

जहां किसी पक्षकार का साक्ष्य का पर्याप्त भाग पहले ही अभिलिखित किया जा चुका है और ऐसा पक्षकार किसी ऐसे दिन जिस दिन के लिये वाद की सुनवाई स्थगित की गई है। उपसंजात होने में असफल रहता है, वहां न्यायालय स्वविवेकानुसार उस मामले में इस प्रकार अग्रसर हो सकेगा मानों ऐसा पक्षकार उपस्थित हो।

पी. नल्ला थाम्पी बनाम बी. एल. शंकर, 1984 सु. . को. के वाद में अभिनिर्धारित किया गया कि यह नियम चुनाव याचिकाओं की भी सुनवाई पर लागू होगा।

नियम 3 पक्षकारों में से किसी पक्षकार के साक्ष्य, आदि पेश करने में असफल रहने पर भी न्यायालय आगे कार्यवाही कर सकेगा-

जहां वाद का कोई ऐसा पक्षकार जिसे समय अनुदत्त किया गया है, अपना साक्ष्य पेश करने में या अपने साक्षियों को हाजिर कराने में या वाद की आगे प्रगति के लिये आवश्यक कोई ऐसा अन्य कार्य करने में जिसके लिए समय अनुज्ञात किया गया है, असफल रहता है, वहां न्यायालय ऐसे व्यतिक्रम के होते हुए भी-

(क) यदि पक्षकार उपस्थित हों तो वाद को तत्क्षण विनिश्चित करने के लिये अग्रसर हो सकेगा, अथवा

(ख) यदि पक्षकार या उनमें से कोई भी अनुपस्थित हो तो नियम 2 के अधीन कार्यवाही कर सकेगा।

जहां एक वाद में स्थगन अगली तारीख के लिये, तमाम विवाद्यकों में से एक के निस्तारण के लिये किया गया, वादी को यह सूचना नहीं थी कि स्थगन अन्तिम सुनवाई और मामले के निस्तारण के लिये है, वादी निश्चित तिथि को उपसंजात नहीं होता है, वाद को विचारण न्यायालय ने खारिज कर दिया। वहां इलाहाबाद उच्च न्यायालय की एक पूर्ण पीठ ने माखन सिंह बनाम एलेविन्य एडीशनल डिस्ट्रिक्ट जज आगरा, 2004 इला. के वाद में अभिनिर्धारित किया कि खारिजी का आदेश नियम 2 (आदेश 17) न कि नियम 3 (आदेश 17) में पारित किया गया है। ऐसी स्थिति में वाद के प्रत्यावर्तन का आवेदन पोषणीय है।

रूपेश कुमार दशरथ मेहतो,  2011 झार. के वाद में साक्ष्य की समाप्ति के उपरान्त वादी ने अपने साक्ष्य प्रस्तुत करने के लिये आवेदन किया। वादी कैन्सर से पीड़ित था, अस्पताल में भर्ती था। अस्पताल से छुट्टी मिलने से पूर्व न्यायालय परीक्षण न्यायालय साक्ष्य समाप्त कर दिये। झारखण्ड न्यायालय ने परीक्षण न्यायालय को नियम 3 में साक्ष्य करने का निर्देश दिया-

आदेश 17 नियम 3 को लागू करने के लिए निम्न शर्तें आवश्यक हैं-

(1) वाद के दोनों पक्षकारों में से किसी एक पक्षकार के आवेदन पर सुनवाई स्थगित की गई हो।

(2) सुनवाई का स्थगन ऐसे पक्षकार के आवेदन पर ही किया गया हो, जिसने स्थगित तारीख को कोई चूक की हो।

(3) न्यायालय द्वारा स्थगन इस आधार पर मंजूर किया गया कि आवेदक पक्षकार को स्थगित तारीख पर कोई साक्ष्य या कोई दस्तावेज प्रस्तुत करना हो या वाद के सन्दर्भ में कोई अन्य कृत्य करना हो।

(4) पक्षकार स्थगित तारीख को वह कृत्य करने में विफल रहता है, जिसके लिये न्यायालय ने उसे स्थगन मंजूर किया था।

(5) अथवा ऐसा पक्षकार ऐसे कृत्य को करने में विफल रहने के साथ न्यायालय में उपस्थित नहीं होता है। 

उपरोक्त नियम से स्पष्ट है कि यदि स्थगित तारीख को स्थगन चाहने वाला पक्षकार उस दस्तावेज या साक्ष्य को प्रस्तुत करने में विफल रहता है, तो न्यायालय वाद की कार्यवाही की ओर अग्रसर होगा एवं वाद का निस्तारण गुण व दोष के आधार पर कर सकेगा।

प्रश्न-

स्थगन क्या है? स्थगन के खर्चे के संबंध में क्या प्रावधान किया गया है? स्पष्ट कीजिए।

स्थगन के संबंध में सिविल प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत क्या प्रावधान किया गया है? स्पष्ट कीजिए।

स्थगन के क्या आधार हैं? यदि पक्षकार नियत दिन पर उपसंजात होने में असफल रहते हैं। वहां न्यायालय क्या प्रक्रिया अपना सकता है?


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