सह अपराधी -भारतीय साक्ष्य अधिनियम 2023

 

 भारतीय साक्ष्य अधिनियम 2023

               सह अपराधी -



सह अपराधी- सह अपराधी को अधिनियम में कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है सह अपराधी की परिभाषा हम सामान्य भावाबोध  में निम्न प्रकार दे सकते हैं-

                    सह-अपराधी की परिभाषा-

        'सह-अपराधी' वह व्यक्ति होता है जो अपराध कारित करने में अभियुक्त की सहायता करता है; उसे सहयोग देता है। दूसरे शब्दों में, सह-अपराधी अपराध में सह-दोषी या साझीदार होता है। विस्तृत भाव में सह-अपराधी का किसी अपराध के करने से सम्बन्ध होता है, चाहे वह मुख्य अपराधी के रूप में हो या सह-अपराधी के रूप में।

         लेकिन यहाँ यह ज्ञातव्य है कि वह व्यक्ति जो गुप्तचर या जासूस की हैसियत से अपराध का पता लगने के लिए किसी अपराध से सम्बन्ध रखता है, सह-अपराधी नहीं होता है।

          सह-अपराधी के लिए यह भी आवश्यक है कि उसने उसी अपराध में भाग लिया हो, जिसका कि अभियुक अपराधी है। यह प्रेरक अथवा सहयोगी किसी भी रूप में हो सकता है, घूस लेना अपराध है और वो किसी लोक अधिकारी को घूस देने का प्रस्ताव करता है, वह एक सह-अपराधी है।

       "सक्षमता"-सह-अपराधी सक्षम् गवाह तभी हो सकता है जब वह स्वयं, उस केस में, जिसमें उसका साक्ष्य अपेक्षित है, विचारण में रहा हो

       सामान्यत : जो भी व्यक्ति किसी अपराध को करने में किसी न किसी रूप में (मुख्यकर्ता, दुष्प्रेरक, षडयंत्रकारी या सहयोगी) के रूप में संलग्न रहता है, उसे विधि की दृष्टि में सह-अभियुक्त माना जाता है। और इन्हीं से अभियुक्त में से किन्हीं को क्षमादान  प्रदान कर राज्य साक्षी बना लिया जाता है तब उन्हें विधि की दृष्टि में सह-अपराधी कहा जाता है।

         सह-अपराधी के साक्ष्य की आवश्यकताएँ - 

         अभिनिर्धारित किया गया है कि सह-अपराधी के साक्ष्य के आधार पर दोषसिद्धि करने के लिए ये बातें आवश्यक हैं-

         (i) सह अपराधी का साक्ष्य विश्वास के योग्य होना चाहिये; और

       (ii) अपराध के साथ अभियुक्त का सम्बन्ध स्थापित करते हुए तात्विक विशिष्टियों में उसका साक्ष्य संपुष्ट किया जाना चाहिए;

        जब तक ऐसा साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया जाता तब तक इकबाली गवाह के साक्ष्य पर दोषी व्यक्ति के विरुद्ध दोषसिद्धि अभिलिखित करना निरापद नहीं है। 

         साधारण नियम यह है कि सह-अपराधी के परिसाक्ष्य में संपुष्टि की आवश्यकता सदैव रहती है। सह-अपराधी के साक्ष्य की सम्पुष्टि का नियम अब एक विधिक नियम बन गया है।

         पाश या फंसाने वाले साक्षी (Trap Witness) - 'पाश-साक्षी' से आशय ऐसे साक्षी से है जिसने पुलिस व अभियोग पक्ष की जानकारी में अनिच्छा से व अभियोग पक्ष के निर्देशन में अभियुक्त के साथ अपराध में इस आशय से भाग लिया हो कि अभियुक्त  के विरुद्ध साक्ष्य प्राप्त हो सके।   उदाहरणार्थ, 'अ' मजिस्ट्रेट द्वारा हस्ताक्षरित रुपयों के नोट 'ब' को रिश्वत के रूप में पुलिस की जानकारी में उसके बताये हुए समय व स्थान पर देता है।   इसमें 'अ' 'पाश-साक्षी' के रूप में है।   यह ध्यान रखना चाहिये कि यन्त्र-साक्षी न तो मुखबिर (approver) है और न सह-अपराधी (accomplice) ही है।   उसे अधिक से अधिक अनिच्छुक सह-अपराधी' (non-intended accomplice) कहा जा सकता है- यद्यपि यह भी पूर्ण रूप हे सत्य नहीं है।

        यह सच है कि पाश-साक्षी को मुखबिर का सह-अपराधी नहीं कहा जा सकता है।  लेकिन उसके साक्ष्य का मूल्यांकन लगभग एक 'पक्षपाती साक्षी' (partisan witness) के साक्ष्य के रूप में किया जाता है।  इसका कारण यह है कि यन्त्र-साक्षी अधिक नहीं तो कम से कम इस बात के लिए तो उत्सुक अवश्य ही होता है कि जिस कार्य या उद्देश्य के लिये उसका पाश (Trap) में प्रयोग किया गया है वह सफल हो।  अतः ऐने गवाह के साक्ष्य पर भी उतना ही विश्वास किया जाना चाहिये जितना कि पक्षपाती साक्ष्य का किया जाता है।  जिस प्रकार एक पक्षपाती साक्ष्य बिना किसी अन्य समर्थक साक्ष्य (Corroborative evidence) के अविश्वसनीय माना जाता है, उसी प्रकार पाश-साक्षी का साक्ष्य भी होता है।

        ऐसा साक्ष्य उसी दशा में विश्वसनीय माना जाता है जबकि इसे अभिलेख में उपस्थित अन्य साक्ष्यों से स्वतन्त्र साक्ष्य के रूप में समर्थन प्राप्त हो, कि न केवल प्रश्नगत अपराध किया गया है बल्कि वह अपराधी द्वारा किया गया है

        यह ध्यान रखना चाहिये कि उच्चतम न्यायालय ने इस विषय में सिद्धेश्वर बनाम पश्चिम बंगाल राज्यों के बाद में एक भिन्न व संशोधित रूप में निर्णय लिया है।  इस बाद के तथ्यों के अनुसार अपीलार्थी ने एक बालिका के साथ उसकी इज्जत पर आक्रमण का कार्य किया था।  इसके विरुद्ध बालिका की ओर से न्यायिक कार्यवाहियों की गयीं।  न्यायालय ने यह स्थापित किया कि ऐसे मामलों में वादिनी (prosecutrix) सामान्यतया सह-अपराधी (Accomplice) नहीं है, यद्यपि कि विवेक का सिद्धान्त यही है कि ऐसे वादी राज्य को भी समर्थक साध्य के बिना विश्वास का आधार नहीं बनाया जा सकता है।

     अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि पाश-साक्षी (trap witness) एक मुखबिर (approver) या सह- अपराधी (accomplice) कुछ भी नहीं है।   केवल उसकी स्थिति एक पक्षपाती गवाह की अवश्य होती है।

        पाश साक्षी के साक्ष्य पर बिना सम्पुष्टि के निर्भर करना उचित नहीं है।

      सम्पोषक साक्ष्य - उसकी प्रकृति (Nature and extent of corroboration) सह-अपराधी के कथन की विश्वसनीयता परखने के लिए निम्नांकित कसौटियाँ निर्धारित की गई हैं-

        (i) क्या वह विश्वस्त साक्षी है और क्या उसके द्वारा दिया गया वर्णन सारतः विश्वसनीय है?  और

     (ii) यदि ऐसा है तो क्या उसके साक्ष्य की तात्विक विशिष्टियों में प्रत्येक अभियुक्त के विरुद्ध, अन्य प्रत्यक्ष अथवा पारिस्थितिक साक्ष्य से सम्पुष्टि होती है कि नहीं?

        यदि दोनों कसौटियों में से एक पर भी उसका साक्ष्य खरा नहीं उतरता तो उसके आधार पर अभियुक्त को दोषी नहीं         करार दिया जा सकता ।

         सह-अपराधी के साक्ष्य का मूल्यांकन करते समय न्यायालय को दो टेस्ट काम में लाने चाहिये-

        (i) क्या उसका कथन विश्वसनीय है?

       (ii) उसके परिसाक्ष्य की सम्पुष्टि तात्विक विशिष्टियों में, अन्य स्वतन्त्र साक्ष्य से होती है?  विश्वसनीयता का टेस्ट वही है जो अन्य साक्षियों को लागू किया जाता है।

         सह-अपराधी के साक्ष्य की मूल्यहीनता के मुख्य कारण इस प्रकार हैं -

       (1) सह-अपराधी अपने ऊपर से दोष हटाने के लिये मिथ्या रूप से भी कसम खा सकता है।

      (2) सह-अपराधी अपराध में हिस्सेदार होता है, इस प्रकार वह स्वयं एक अनैतिक व्यक्ति होता है।

      (3) वह साक्ष्य इसलिए देता है कि यदि वह बता देगा तो क्षमा कर दिया जायेगा।

     सह-अपराधी के साक्ष्य का अन्य स्वतन्त्र साक्ष्यों द्वारा सम्पुष्टि होना आवश्यक है।  इस नियम की स्थापना  उच्चतम न्यायालय ने मदन मोहन बनाम स्टेट आफ पंजाब के वाद में भी किया है।  इसकी पुष्टि शेशम्मा बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र' में भी हुई है।

         सह-अपराधी का साक्ष्य सन्देहजनक क्यों?

         सह-अपराधी अपनी ही स्वीकृति पर अपराधी होता है, (Self confessed criminal) वह अत्यन्न नीच प्रकृति का व्यक्ति होता है, जिसने अपने पूर्व के मित्रों एवं साथियों के साथ केवल अपने बचाव के लिए दगा की है। अतः चाहे उसके साक्ष्य को शंका की दृष्टि से भी देखा जाय, उसको निर्णय का आधार बनाने के लिए अत्यधिक सावधानी बरतनी चाहिए।

          सह -अपराधी शब्द की परिभाषा सर्वप्रथम डेविस बनाम  जिला डिस्टिक पब्लिक प्रॉसीक्यूशन 1954 के मामले में हाउस आफ लॉर्ड्स ने दिया जिसमें केवल इतना कहा गया कि जो कोई व्यक्ति जब  कर्ता के रूप में या दुष्प्रेरित करके या सहयोग करके किसी अपराध में शरीक रहा हो तो इसी को सह अपराधी कहते हैं। इसी को आर. के . डालमिया बनाम दिल्ली एडमिनिस्ट्रेशन के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्वीकार कर लिया।

          भारतीय साक्ष्य अधिनियम 2023 की धारा 138 अध्याय 9 में यह उपबंध किया गया है कि सह- अपराधी किसी अभियुक्त व्यक्ति के विरुद्ध सक्षम होगा, और कोई दोषसिद्धि  इसलिए  अवैध नहीं है यदि वह किसी सह अपराधी के संपुष्ट परिसाक्ष्य के आधार पर की गई है।

         इस अधिनियम के अध्याय 7 धारा 119 का दृष्टांत "ख" यह भी उल्लेख करता है कि -"न्यायालय उपधारित कर सकेगा कि सह अपराधी विश्वसनीयता के अयोग्य है जब तक की तात्विक विशिष्टियों  में उसकी संपुष्टि नहीं होती "

         इन दोनों में जो विपरीत बात प्रतीत होती है उसका समाधान डगडू बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र 1977 के बाद में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ के निर्णय में मिलता है जो-

           धारा 138 एवं 119 दृष्टांत "ख" में कोई विपरीतता नहीं है क्योंकि दृष्टांत केवल यह कहता है कि न्यायालय चाहे तो उपधारणा कर सकता है यह निर्णायक उपधारणा के लिए नहीं कहती है दोनों साथ लेने पर यह बात बनती है। कि सह अपराधी सक्षम गवाह होता है और उसकी  असंपुष्ट परिसाक्ष्य के आधार पर दोषसिद्धि हो सकती है। तब न्यायालय उचित रूप से यह आधारित कर सकता है कि सह अपराधी के परिसाक्ष्य पर विश्वास नहीं किया जा सकता है  जब तक की खास खास बातों में किसी स्वतंत्र साक्ष्य से सं संपुष्टि न हो जाए।

        सम्पुष्टि सावधानी का सिद्धान्त है (Corroboration as a rule of caution)

      (i) सह-अपराधी की प्रवृत्ति सदैव अपने ऊपर से दोष हटाने की होती है। अतः अपने ऊपर की दोषिता को दूसरे पर लादने की दृष्टि से वह मिथ्या शपथ लेता है।

      (ii) अपराध में एक सहयोगी होने के कारण इस बात की अधिसम्भावना रहती है कि वह शपथ की पवित्रता की अवहेलना कर सकता है तथा मिथ्या साक्ष्य भी दे सकता है। उसने अपने साक्षियों के साथ विश्वास भंग किया है और न्यायालय पर भी कपट कर सकता है।

     (iii) अगर उसे सरकार ने क्षमा कर दिया है अर्थात् वह इकबाली साक्षी (approver) हो गया है तो इससे उसके द्वारा सरकार के ही पक्ष में बात करने की सम्भावना बन जाती है। (pardon tendered to him) है।

        सामान्य मानव जाति की यह प्रकृति होती है कि जब वह किसी अपराध में फँस जाता है तो वह अपने-आप को बचाने के लिए दूसरों को अपराध में फँसाने का प्रयास करता है और अपने निम्न एवं अनैतिक चरित्र के कारण वह अपने साथियों के साथ विश्वासघात कर बैठता है तथा उन्हें संकट में डाल देता है। इन्हीं सब कारणों से सह-अपराधी के साक्ष्य की सम्पुष्टि की आवश्यकता पर बल दिया गया है।

        कृष्णन बनाम स्टेट ऑफ तमिलनाडु के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह विनिर्धारित किया गया है कि सह-अपराधी की साक्ष्य का अन्य सह-अपराधी के विरुद्ध प्रयोग नहीं किया जा सकता है। यदि अभियुक्त संख्या 3 की सूचना के आधार पर मृतक की लाश को बरामद किया गया है तो उसका उपयोग अन्य अभियुक्त के विरुद्ध नहीं किया जा सकता है।

          बी.सी.शुक्ला बनाम दिल्ली प्रशासन के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि सह अपराधी के साक्ष्य को ग्रहण करने में सावधानी और सतर्कता का मापदंड अपनाना चाहिए।

           पंचू लाल बनाम पंजाब राज्य के वाद में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि साक्ष्य की संपुष्टि  एक प्रज्ञा का नियम है अतः यदि कथन का साक्षिकमूल्य अन्यथा ग्राहय है तो संपुष्टि न होने मात्र से उसे  निष्प्रभावी  नहीं किया बनाया जा सकता।

            साक्ष्यिक मूल्य-

इसके साक्ष्यिक मूल्य के संबंध में साक्ष्य अधिनियम कोई निर्देश नहीं देती।

           भूवनि साहू बनाओ किंग के वाद में जान व्यूमाट ने कहा कि-

(1) सह अपराधी के असंपुष्टि आधार पर निर्णय आधारित करना न्यायसंगत नहीं है।

(2) किसी सह अपराधी या सहअभियुक्त के साक्ष्य से किसी सह अपराधी के साक्ष्य का पुष्टिकरण न्यायसंगत नहीं है।

              बोस महोदय ने रामेश्वरम बनाम राजस्थान और सिद्धेश्वर बनाम स्टेट आफ पश्चिम बंगाल में कहा कि यद्यपि महिलाएं सह अपराधी की कोटि में नहीं आती फिर भी उनके साक्ष्यिक मूल्य  पर उतनी ही सावधानी रखनी चाहिए जितनी की सहअपराधी के। सह अपराधी और महिलाओं के साक्ष्य को एक ही दर्पण में देखना चाहिए।

            मदन मोहन बनाम स्टेट आफ पंजाब - सहअपराधी के साक्ष्य को अन्य स्वतंत्र साक्ष्य से संपुष्टि किया जाना आवश्यक है।

              पियारा सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब के वाद में सह अपराधी के साक्ष्य की दो कसोटियां की गई है- (1) क्या तत्विकता विश्वासनीय  है (2)अन्य साक्ष्य  है कि नहीं।

 उपरोक्त दोनों कसोटियों पर सहअपराधी का साक्ष्य खरा उतरता है तो दोषसिद्धि की जा सकती है।

               पृथ्वी पाल सिंह बनाम पंजाब राज्य के मामले में कहा गया कि यद्यपि से सहअपराधी एक सक्षम साक्षी होता है और उसके असंपुष्टि साक्ष्य के आधार पर दोषसिद्धि की जा सकती है,  किंतु न्यायालय इस बात के लिए अधिकृत है कि वह उसकी विश्वसनीयता की उपधारणा तब तक नहीं कर सकता जब तक तात्विक रूप से विशिष्टत: तथा साक्ष्य द्वारा उसे संपुष्टि न कर दिया जाए।

                 निष्कर्षत:

यह कहा जा सकता है की उपयुक्त नियमों में और अवलोकन से यही स्पष्ट होता है कि न्यायालय का भी एक मत सा बन गया है कि सह अपराधी के साक्ष्य की संपुष्टि होना आवश्यक है और उसके साक्ष्य पर दोषसिद्ध किया जाना सुरक्षित नहीं है। इस प्रकार स्पष्ट है कि सह अपराधी के परिसाक्ष्य की संपुष्टि और उसके साक्ष्य की संपुष्टि का नियम अब एक विधिक नियम बन गया है। 





           

     

कोई टिप्पणी नहीं

Blogger द्वारा संचालित.