क्या भारतीय संविधान परिसंघात्मक है-
क्या भारतीय संविधान परिसंघात्मक है-

संविधानवेताओं ने संविधानों को मुख्यतयत्ता दो वर्गों में विभाजित है परिसंघात्मक और एकात्मक संविधान वह संविधान है जिसके अन्तर्गत सारी शक्तियों एक ही सरकार में निहित होती हैं ये प्रायः केन्द्रीय सरकार होती हैं। प्रान्तों को केन्द्रीय सरकार के अधीन रहना पड़ता है। इसके विपरीत परिसंघात्मक संविधान वह संविधान है जिसमें शक्तियों का केन्द्र एवं राज्य में विभाजन रहता है। और दानों सरकारें अपने-अपने क्षेत्रों में स्वतन्त्र रूप से कार्य करती हैं।
भारतीय संविधान की प्रकृति के बारे में विधिशास्त्रियों में काफी मतभेद रहा है। संविधान निर्माताओं के अनुसार भारतीय संविधान एक परिसंघात्मक संविधान है।
पश्चिम बंगाल राज्य बनाम भारत संघ, 1963 एस.सी. में निर्धारित किया गया कि संविधान पूर्ण संघात्मक नहीं है। किन्तु न्यायाधिपति सुब्बाराव अपने अल्पमत में इसे मूलतः संघात्मक मानते हैं।
कर्नाटक राज्य बनाम भारत संघ, 1978 में न्यायाधिपति श्री वेग और सेन्ट्रल इनलैंड वाटर ट्रान्सपोर्ट कारपोरेशन बनाम ब्रजो नाथ गांगुली, 1986 में न्यायाधिपति श्री मदन ने न्यायाधिपति श्री सुब्बाराव के उक्त मत का समर्थन किया है।
एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ, 1994 एस.सी.सी. के विनिश्चय में बहुमत ने यह मत व्यक्त किया है कि भारतीय संविधान परिसंघय है।
संविधान प्रारूप-समिति के अध्यक्ष डॉ. अम्बेडकर ने कहा कि "मेरे इस विचार से सभी सहमत हैं कि यद्यपि हमारे संविधान में ऐसे उपबन्धों का समावेश है जो केन्द्र को ऐसी शक्ति प्रदान कर देते हैं जिनमे प्रान्तों की स्वतन्त्रता समाप्त-सी हो जाती है, फिर भी वह 'परिसंघात्मक संविधान' है। इससे संविधान-निर्माताओं का एकमत स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है।
संघात्मक संविधान के आवश्यक तत्व -
एक संघात्मक संविधान में सामान्यता निम्नलिखित आवश्यक तत्व पाये जाते हैं-
(1) शक्तियों का विभाजन।
(2) संविधान की सर्वोपरिता।
(3) लिखित संविधान
(4) संविधान की अपरिवर्तनशीलता।
(5) न्यायपालिका का प्राधिकार।
(1) शक्तियों का विभाजन -
केन्द्रीय और प्रान्तीय सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन संघात्मक संविधान का एक परमावश्यक तत्व है। यह विभाजन संविधान के द्वारा ही किया जाता है। प्रत्येक सरकारें अपने-अपने क्षेत्र में सार्वभौम होती हैं और दूसरे के अधिकारों एवं शक्तियों पर अतिक्रमण नहीं कर सकतीं। इस प्रकार से संघवाद में राज्य की शक्तियों का अनेक सहयोग संस्थाओं में विकेन्द्रीकरण होता है। सरकार के सभी अंगों का स्रोत स्वयं संविधान होता है जो उसकी शक्तियों के प्रयोग पर नियंत्रण रखता है।
(2) संविधान की सर्वोपरिता-
विधायिका और न्यायपालिका का स्रोत होता सभी उपबन्ध संविधान ही में निहित होते हैं। संविधान सरकार के सभी अंगों कार्यपालिका, है। उनके स्वरूप, संगठन और शक्तियों से सम्बन्धित संविधान उनके अधिकार क्षेत्र की सीमा निर्धारित करता है जिनके भीतर वे कार्य करते हैं। सभी संस्थाएँ संविधान के अधीन और उसके नियन्त्रण में कार्य करती है। संघीय व्यवस्था में संविधान देश की सर्वोच्च विधि माना जाता है।
प्रोफेसर ह्वियर के अनुसार, संघीय सरकार के लिए संविधान की सर्वोपरिता अति आवश्यक और उसके सुचारू रूप से कार्य करने के लिए संविधान का लिखित होना भी आवश्यक है। केन्द्रीय एवं प्रान्तीय विधानमंडलों की विधायी शक्ति का स्रोत संविधान ही है और उनके द्वारा बनाई गई विधियाँ संविधान के अधीन होती हैं। संविधान के उपबन्धों के विरुद्ध होने पर न्यायालय उन्हें अवैध घोषित कर सकता है। इसी प्रकार उन्हें संविधान द्वारा प्रदत्त अपने सभी अधिकारों और शक्तियों का प्रयोग संविधान द्वारा निर्धारित सीमा के भीतर ही करना होता है।
(3) लिखित संविधान-
संघात्मक संविधान आवश्यक रूप से लिखित संविधान होता है। संघ-राज्य की स्थापना एक जटिल संविदा द्वारा स्थापित होती है जिसमें संघ में शामिल होने वाली इकाइयाँ कुछ शर्तों पर ही संघ में शामिल होती हैं। इन शर्तों का लिखित होना आवश्यक होता है अन्यथा संविधान की सर्वोपरिता को अक्षुण्ण रखना असम्भव होगा। इसी प्रकार की व्यवस्था को समझौता एवं परस्पर पर आधारित करना निश्चित ही सन्देह और मतभेद उत्पन्न करेगा। संविधान के लिखित होने से केंन्द्रीय एवं प्रान्तीय दोनों सरकारों को अपने-अपने अधिकारों के बारे में स्पष्ट रूप से ज्ञात रहता है और वे एक-दूसरे पर विश्वास रखकर कार्य करती है।
(4) संविधान की परिवर्तनशीलता-
लिखित संविधान स्वभावतः अनम्य होता है। देशमकी सर्वोच्च विधि का अनम्य होना आवश्यक भी है। संविधान की नम्यता और अनम्यता उसके संशोधन की प्रक्रिया पर निर्भर करती है। जिस संविधान में संशोधन की प्रक्रिया कठिन होती है उसे अनम्य संविधान कहा जाता है। और जिसमें संशोधन सरलता से किये जा सकते हैं। उसे नम्य संविधान कहा जाता है किसी भी देश का संविधान एक स्थायी दस्तावेज होता है। यह देश की सर्वोच्च विधि कहा जाता है। संविधान की सर्वोपरिता को बनाये रखने के लिए संशोधन की प्रक्रिया का कठिन होना आवश्यक है। इसका यह अर्थ नहीं कि संविधान अपरिवर्तनशील हो वरन् केवल यह है कि संविधान में वही परिवर्तन किये जा सकें जो समय और परिस्थितियों के अनुसार आवश्यक हों।
(5) न्यायपालिका का प्राधिकार-
संघीय संविधान में केन्द्रीय और प्रान्तीय सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन रहता है। यह विभाजन एक लिखित संविधान द्वारा किया जाता है। अतः यह सम्भव है कि विभिन्न सरकारें संविधान के उपबन्धों की अपने-अपने पक्ष में निर्वचन कर सकती है ऐसी दशा में उनका सही-सही निर्वचन करने के लिए ऐसी संस्था की आवश्यकता होती है जो स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष हो। संघीय संविधान में यह कार्य न्यायापालिका को सौंपा गया है। संविधान के उपबन्धों के निर्वचन के सम्बन्ध में अन्तिम निर्णय देने का प्राधिकार न्यापालिका को ही प्राप्त है यह संस्था किसी भी सरकार के अधीन नहीं होती है। यह सरकार के तीसरे अंग के रूप में एक पूर्ण स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष संस्था के रूप में रहकर अपने कार्यों का सम्पादन करती है। संघीय व्यवस्था में संविधान की सर्वोपरिता को सुरक्षित रखने का महान कार्य न्यायपालिका के ऊपर ही रहता है। न्यायपालिका द्वारा किया गया संविधान का निर्वचन सभी प्राधिकारियों पर आबद्धकर होता है।
संघात्मक संविधान के उपर्युक्त वर्णित सभी आवश्यक तत्व भारतीय संविधान में विद्यमान हैं। यह दोहरी राज्य पद्धति की स्थापना करता है- केन्द्रीय सरकार और राज्य सरकार केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन है। संविधान के उपबंध जो संघीय व्यवस्था से सम्बन्ध रखते हैं, उनमें राज्य सरकारों की सहमति के बिना परिवर्तन नहीं किया जा सकता है। संविधान की सर्वोपरिता, संविधान के निर्वचन और उसके संरक्षण के लिए एक स्वतन्त्र और निष्पक्ष न्यायपालिका की भी स्थापना की गई है। परन्तु जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कुछ संविधानवेत्ताओं ने इन पर आपत्ति प्रकट की है और उनका कहना है कि भारतीय संविधान सही रूप में एक संघीय नहीं है।
प्रोफेसर ह्वियर के अनुसार, भारतीय संविधान अर्द्ध-संघीय संविधान है अथवा एक एकात्मक राज्य, जिसमें संघात्मक तत्व सहायक रूप में, न कि एक संघात्मक राज्य जिसमें एकात्मक तत्व सहायक कहे जा सकते हैं।
जेनिंग्स ने इस संविधान को (a federation with strong contralising tenderncy) अर्थात् 'एक ऐसा संघ जिसमें केन्द्रीयकरण की सशक्त प्रवृत्ति है' कहा है।
भारतीय संविधान के आलोचकगण अपने उक्त तर्क के पक्ष में संविधान के निम्नलिखित उपबन्धों को प्रस्तुत करते हैं-
(1) राज्यपाल की नियुक्ति
(2) राष्ट्रीय हित में राज्य-सूची के विषयों पर विधि बनाने की संसद की शक्ति
(3) नये राज्यों की निर्माण एवं वर्तमान राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं या नामों के बदलने की संसद की शक्ति
(4) आपात उपबन्ध
(1) राज्यपाल की नियुक्ति-
प्रान्तों के राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है (अनुच्छेद 155, 156)। राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रसादप्रर्यन्त अपने पद पर बना रहता है। वह राज्य विधानमंडल के प्रति नहीं, बल्कि राष्ट्रपति के प्रति उत्तरदायी होता है। राज्य विधान-मंडल द्वारा पारित कोई भी विधेयक राज्यपाल की अनुमति के बिना, अधिनियम का रूप नहीं ले सकता है। कुछ विषयों से सम्बन्धित विधेयकों को वह राष्ट्रपति के विचारार्थ प्रेषित कर सकता है (अनुच्छेद 201,288(2), 304 (b)। कुछ मामलों में वह अपने विवेकानुसार भी कार्य कर सकता है (अनुच्छेद 166)। ऐसा कहा जाता है कि भारतीय संविधान की उक्त व्यवस्था संधीय सिद्धान्त के प्रतिकूल है और इससे राज्यों की स्वायतता पर आघात पहुँचता है परन्तु यह आरोप उचित नहीं है, क्योंकि राज्यपाल की स्थिति केवल एक सांविधानिक प्रमुख की है जो सर्वदा मन्त्रिमंडल के परामर्श से कार्य करता है। संविधान की शब्दावली जो भी हो किन्तु व्यवहार में ऐसे उदाहरण नगण्य ही है जब कि राष्ट्रपति ने राज्य विधान मंडल द्वारा बनाई गई विधियों पर अपने निषेधाधिकार का प्रयोग किया हो। करेल एजुकेशन बिल 1958 एस.सी. ही ऐसा एकमात्र उदाहरण है। किन्तु इस मामले में केन्द्र ने उच्चतम न्यायालय का परामर्श लेकर ही विधेयक को राज्य विधान-मंडल में पुनः विचारार्थ भेजा था।
(2) राष्ट्रीय हित में राज्य-सूची के विषय पर विधि बनाने की शक्ति-
अनुच्छेद 249 के अनुसार यदि राज्यसभा अपने सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत द्वारा यह घोषित कर दे कि राष्ट्रीय हित में यह आवश्यक तथा इष्टकर है कि संसद राज्य-सूची में उल्लिखित किसी विषय पर विधि बना दे तो संसद को उस विषय पर विधि बनाना विधिसंगत होगा। इस व्यवस्था पर भी किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। केन्द्र एवं राज्य सरकारों में शक्तियों का विभाजन इसी आधार पर किया जाता है कि राष्ट्रीय हित के आधार पर केन्द्र विधि बनाता है और क्षेत्रीय हित के विषय पर क्षेत्रीय सरकार। समाज के विकास एवं उसकी परिस्थितियों के अनुसार क्षेत्रीय विषयों का स्वरूप बदलकर राष्ट्रीय महत्व का हो सकता है और उस समय उस विषय पर ऐसी विधि की आवश्यकता होगी जो देश भर में लागू हो। यह कार्य केवल केन्द्रीय सरकार ही कर सकती है सामान्यतः संविधान में संशोधन किये बिना ऐसा नहीं किया जा सकता है। किन्तु हमारे संविधान-निर्माताओं ने इस उपबन्ध में एक ऐसी सरल प्रक्रिया की व्यवस्था की है जिससे हम संविधान में संशोधन किये बिना ही इस उद्देश्य की प्राप्ति कर सकते हैं और केन्द्र को राज्य सूची के उन विषयों पर, जो राष्ट्रीय हित का रूप धारण कर लेते हैं, विधि बनाने की शक्ति प्रदान की जा सकती है।
(3) नये राज्यों के निमार्ण एवं वर्तमान राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं सा नामों के बदलने की संसद की शक्ति -
अनुच्छेद 3 संसद को नये राज्यों के निर्माण, वर्तमान राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं या नामों के बदलने की शक्ति देता है। इस प्रकार राज्यों का अस्तित्व ही केन्द्र की इच्छा पर निर्भर है। इस व्यवस्था से निश्चय ही संघीय सिद्धान्त पर बहुत बड़ा आघात पहुँचता है। किन्तु संविधान निर्माताओं ने इस उपबन्ध को कुछ विशिष्ट कारणों से ही संविधान में समाविष्ट किया है। संसद की क्षेत्रीय समायोजन की शक्ति को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के सन्दर्भ में ही भलीभांति समझा जा सकता है। भारतीय संविधान ने भारत में पहली बार संघात्मक शासन-व्यवस्था लागू किया और उसमें अनेक इकाइयों को सम्मिलित किया। संविधान-निर्माता उन विशिष्ट परिस्थितियों एवं कारणों से भली-भाँति परिचित थे, जिनके फलस्वरूप राज्यों की स्थापना की गयी थी और कलान्तर में उनके क्षेत्रों में पुनः हेर-फेर की आवश्यकता को भी वे अनुभव करते थे। अतएव इस बात को ध्यान में रखते हुए उन्होनें अनुच्छेद 3 के अन्तर्गत भविष्य में उठाने वाली इस समस्या के समाधान की पहले व्यवस्था करना उचित समझा। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय संविधान राज्यों की क्षेत्रीय अखण्डता की गारण्टी नहीं देता है। ऐसा राजनीतिक और ऐतिहासिक दोनों कारणों से किया गया है।
(4) आपात्-उपबन्ध -
अनुच्छेद 352 यह उपबन्धित करता है कि यदि राष्ट्रपति को यह समाधान हो जाता है कि युद्ध, बाह्य आक्रमण और सशस्त्र विद्रोह से देश की सुरक्षा संकट में है तो वह आपात की उद्घोषणा कर सकता है। अनुच्छेद 356 के अधीन यदि राष्ट्रपति को किसी राज्य के राज्यपाल से रिपोर्ट मिलने पर या अन्यथा यह समाधान हो जाता है कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गयी है जिसमें उस राज्य में सांविधानिक तन्त्र विफल हो गया है तो वह आपात की उद्घोषणा कर सकता है। ऐसी उद्घोषणा हो जाने पर राज्य सरकार को बरखास्त कर विधान सभा को भंग कर दिया जाता है और राज्य प्रशासन केन्द्रीय सरकार के अधीन आ जाता है। संसद को राज्य सूची के विषय पर विधि बनाने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। अनुच्छेद 360 यह उपबन्धित करता है कि भारत या उसके किसी भाग का वित्तीय स्थायित्व संकट में है तो वह इस आशय की घोषणा कर सकता है।
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