क्या भारतीय संविधान परिसंघात्मक है-

    क्या भारतीय संविधान परिसंघात्मक है- 

संविधानवेताओं ने संविधानों को मुख्यतयत्ता दो वर्गों में विभाजित है परिसंघात्मक और  एकात्मक संविधान वह संविधान है जिसके अन्तर्गत सारी शक्तियों एक ही सरकार में निहित होती हैं ये प्रायः केन्द्रीय सरकार होती हैं। प्रान्तों को केन्द्रीय सरकार के अधीन रहना पड़ता है। इसके  विपरीत परिसंघात्मक संविधान वह संविधान है जिसमें शक्तियों का केन्द्र एवं राज्य में विभाजन रहता है। और दानों सरकारें अपने-अपने क्षेत्रों में स्वतन्त्र रूप से कार्य करती हैं।

भारतीय संविधान की प्रकृति के बारे में विधिशास्त्रियों में काफी मतभेद रहा है। संविधान निर्माताओं के अनुसार भारतीय संविधान एक परिसंघात्मक संविधान है।

पश्चिम बंगाल राज्य बनाम भारत संघ, 1963 एस.सी. में निर्धारित किया गया कि संविधान पूर्ण संघात्मक नहीं है। किन्तु न्यायाधिपति सुब्बाराव अपने अल्पमत में इसे मूलतः संघात्मक मानते हैं।

कर्नाटक राज्य बनाम भारत संघ, 1978 में न्यायाधिपति श्री वेग और सेन्ट्रल इनलैंड वाटर ट्रान्सपोर्ट कारपोरेशन बनाम ब्रजो नाथ गांगुली, 1986 में न्यायाधिपति श्री मदन ने न्यायाधिपति श्री सुब्बाराव के उक्त मत का समर्थन किया है।

एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ, 1994 एस.सी.सी. के विनिश्चय में बहुमत ने यह मत व्यक्त किया है कि भारतीय संविधान परिसंघय है।

संविधान प्रारूप-समिति के अध्यक्ष डॉ. अम्बेडकर ने कहा कि "मेरे इस विचार से सभी सहमत हैं कि यद्यपि हमारे संविधान में ऐसे उपबन्धों का समावेश है जो केन्द्र को ऐसी शक्ति प्रदान कर देते हैं जिनमे प्रान्तों की स्वतन्त्रता समाप्त-सी हो जाती है, फिर भी वह 'परिसंघात्मक संविधान' है। इससे संविधान-निर्माताओं का एकमत स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है।

संघात्मक संविधान के आवश्यक तत्व - 

एक संघात्मक संविधान में सामान्यता निम्नलिखित आवश्यक तत्व पाये जाते हैं-

(1) शक्तियों का विभाजन।

(2) संविधान की सर्वोपरिता।

(3) लिखित संविधान

(4) संविधान की अपरिवर्तनशीलता।

(5) न्यायपालिका का प्राधिकार।

(1) शक्तियों का विभाजन -

केन्द्रीय और प्रान्तीय सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन संघात्मक संविधान का एक परमावश्यक तत्व है। यह विभाजन संविधान के द्वारा ही किया जाता है। प्रत्येक सरकारें अपने-अपने क्षेत्र में सार्वभौम होती हैं और दूसरे के अधिकारों एवं शक्तियों पर अतिक्रमण नहीं कर सकतीं। इस प्रकार से संघवाद में राज्य की शक्तियों का अनेक सहयोग संस्थाओं में विकेन्द्रीकरण होता है। सरकार के सभी अंगों का स्रोत स्वयं संविधान होता है जो उसकी शक्तियों के प्रयोग पर नियंत्रण रखता है।

(2) संविधान की सर्वोपरिता-

 विधायिका और न्यायपालिका का स्रोत होता सभी उपबन्ध संविधान ही में निहित होते हैं। संविधान सरकार के सभी अंगों कार्यपालिका, है। उनके स्वरूप, संगठन और शक्तियों से सम्बन्धित संविधान उनके अधिकार क्षेत्र की सीमा निर्धारित करता है जिनके भीतर वे कार्य करते हैं। सभी संस्थाएँ संविधान के अधीन और उसके नियन्त्रण में कार्य करती है। संघीय व्यवस्था में संविधान देश की सर्वोच्च विधि माना जाता है।

प्रोफेसर ह्वियर  के अनुसार, संघीय सरकार के लिए संविधान की सर्वोपरिता अति आवश्यक और उसके सुचारू रूप से कार्य करने के लिए संविधान का लिखित होना भी आवश्यक है। केन्द्रीय एवं प्रान्तीय विधानमंडलों की विधायी शक्ति का स्रोत संविधान ही है और उनके द्वारा बनाई गई विधियाँ संविधान के अधीन होती हैं। संविधान के उपबन्धों के विरुद्ध होने पर न्यायालय उन्हें अवैध घोषित कर सकता है। इसी प्रकार उन्हें संविधान द्वारा प्रदत्त अपने सभी अधिकारों और शक्तियों का प्रयोग संविधान द्वारा निर्धारित सीमा के भीतर ही करना होता है।

(3) लिखित संविधान-

 संघात्मक संविधान आवश्यक रूप से लिखित संविधान होता है। संघ-राज्य की स्थापना एक जटिल संविदा द्वारा स्थापित होती है जिसमें संघ में शामिल होने वाली इकाइयाँ कुछ शर्तों पर ही संघ में शामिल होती हैं। इन शर्तों का लिखित होना आवश्यक होता है अन्यथा संविधान की सर्वोपरिता को अक्षुण्ण रखना असम्भव होगा। इसी प्रकार की व्यवस्था को समझौता एवं परस्पर पर आधारित करना निश्चित ही सन्देह और मतभेद उत्पन्न करेगा। संविधान के लिखित होने से केंन्द्रीय एवं प्रान्तीय दोनों सरकारों को अपने-अपने अधिकारों के बारे में स्पष्ट रूप से ज्ञात रहता है और वे एक-दूसरे पर विश्वास रखकर कार्य करती है।

(4) संविधान की परिवर्तनशीलता-

 लिखित संविधान स्वभावतः अनम्य होता है। देशमकी सर्वोच्च विधि का अनम्य होना आवश्यक भी है। संविधान की नम्यता और अनम्यता उसके संशोधन की प्रक्रिया पर निर्भर करती है। जिस संविधान में संशोधन की प्रक्रिया कठिन होती है उसे अनम्य संविधान कहा जाता है। और जिसमें संशोधन सरलता से किये जा सकते हैं। उसे नम्य संविधान कहा जाता है किसी भी देश का संविधान एक स्थायी दस्तावेज होता है। यह देश की सर्वोच्च विधि कहा जाता है। संविधान की सर्वोपरिता को बनाये रखने के लिए संशोधन की प्रक्रिया का कठिन होना आवश्यक है। इसका यह अर्थ नहीं कि संविधान अपरिवर्तनशील हो वरन् केवल यह है कि संविधान में वही परिवर्तन किये जा सकें जो समय और परिस्थितियों के अनुसार आवश्यक हों।

(5) न्यायपालिका का प्राधिकार-

 संघीय संविधान में केन्द्रीय और प्रान्तीय सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन रहता है। यह विभाजन एक लिखित संविधान द्वारा किया जाता है। अतः यह सम्भव है कि विभिन्न सरकारें संविधान के उपबन्धों की अपने-अपने पक्ष में निर्वचन कर सकती है ऐसी दशा में उनका सही-सही निर्वचन करने के लिए ऐसी संस्था की आवश्यकता होती है जो स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष हो। संघीय संविधान में यह कार्य न्यायापालिका को सौंपा गया है। संविधान के उपबन्धों के निर्वचन के सम्बन्ध में अन्तिम निर्णय देने का प्राधिकार न्यापालिका को ही प्राप्त है यह संस्था किसी भी सरकार के अधीन नहीं होती है। यह सरकार के तीसरे अंग के रूप में एक पूर्ण स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष संस्था के रूप में रहकर अपने कार्यों का सम्पादन करती है। संघीय व्यवस्था में संविधान की सर्वोपरिता को सुरक्षित रखने का महान कार्य न्यायपालिका के ऊपर ही रहता है। न्यायपालिका द्वारा किया गया संविधान का निर्वचन सभी प्राधिकारियों पर आबद्धकर होता है।

संघात्मक संविधान के उपर्युक्त वर्णित सभी आवश्यक तत्व भारतीय संविधान में विद्यमान हैं। यह दोहरी राज्य पद्धति की स्थापना करता है- केन्द्रीय सरकार और राज्य सरकार केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन है। संविधान के उपबंध जो संघीय व्यवस्था से सम्बन्ध रखते हैं, उनमें राज्य सरकारों की सहमति के बिना परिवर्तन नहीं किया जा सकता है। संविधान की सर्वोपरिता, संविधान के निर्वचन और उसके संरक्षण के लिए एक स्वतन्त्र और निष्पक्ष न्यायपालिका की भी स्थापना की गई है। परन्तु जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कुछ संविधानवेत्ताओं ने इन पर आपत्ति प्रकट की है और उनका कहना है कि भारतीय संविधान सही रूप में एक संघीय नहीं है।

प्रोफेसर  ह्वियर के अनुसार, भारतीय संविधान अर्द्ध-संघीय संविधान है अथवा एक एकात्मक राज्य, जिसमें संघात्मक तत्व सहायक रूप में, न कि एक संघात्मक राज्य जिसमें एकात्मक तत्व सहायक कहे जा सकते हैं।

जेनिंग्स ने इस संविधान को (a federation with strong contralising tenderncy) अर्थात् 'एक ऐसा संघ जिसमें केन्द्रीयकरण की सशक्त प्रवृत्ति है' कहा है।

भारतीय संविधान के आलोचकगण अपने उक्त तर्क के पक्ष में संविधान के निम्नलिखित उपबन्धों को प्रस्तुत करते हैं-

(1) राज्यपाल की नियुक्ति

(2) राष्ट्रीय हित में राज्य-सूची के विषयों पर विधि बनाने की संसद की शक्ति

(3) नये राज्यों की निर्माण एवं वर्तमान राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं या नामों के बदलने की संसद की शक्ति

(4) आपात उपबन्ध

(1) राज्यपाल की नियुक्ति-

 प्रान्तों के राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है (अनुच्छेद 155, 156)। राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रसादप्रर्यन्त अपने पद पर बना रहता है। वह राज्य विधानमंडल के प्रति नहीं, बल्कि राष्ट्रपति के प्रति उत्तरदायी होता है। राज्य विधान-मंडल द्वारा पारित कोई भी विधेयक राज्यपाल की अनुमति के बिना, अधिनियम का रूप नहीं ले सकता है। कुछ विषयों से सम्बन्धित विधेयकों को वह राष्ट्रपति के विचारार्थ प्रेषित कर सकता है (अनुच्छेद 201,288(2), 304 (b)। कुछ मामलों में वह अपने विवेकानुसार भी कार्य कर सकता है (अनुच्छेद 166)। ऐसा कहा जाता है कि भारतीय संविधान की उक्त व्यवस्था संधीय सिद्धान्त के प्रतिकूल है और इससे राज्यों की स्वायतता पर आघात पहुँचता है परन्तु यह आरोप उचित नहीं है, क्योंकि राज्यपाल की स्थिति केवल एक सांविधानिक प्रमुख की है जो सर्वदा मन्त्रिमंडल के परामर्श से कार्य करता है। संविधान की शब्दावली जो भी हो किन्तु व्यवहार में ऐसे उदाहरण नगण्य ही है जब कि राष्ट्रपति ने राज्य विधान मंडल द्वारा बनाई गई विधियों पर अपने निषेधाधिकार का प्रयोग किया हो। करेल एजुकेशन बिल 1958 एस.सी. ही ऐसा एकमात्र उदाहरण है। किन्तु इस मामले में केन्द्र ने उच्चतम न्यायालय का परामर्श लेकर ही विधेयक को राज्य विधान-मंडल में पुनः विचारार्थ भेजा था।

(2) राष्ट्रीय हित में राज्य-सूची के विषय पर विधि बनाने की शक्ति-

अनुच्छेद 249 के अनुसार यदि राज्यसभा अपने सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत द्वारा यह घोषित कर दे कि राष्ट्रीय हित में यह आवश्यक तथा इष्टकर है कि संसद राज्य-सूची में उल्लिखित किसी विषय पर विधि बना दे तो संसद को उस विषय पर विधि बनाना विधिसंगत होगा। इस व्यवस्था पर भी किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। केन्द्र एवं राज्य सरकारों में शक्तियों का विभाजन इसी आधार पर किया जाता है कि राष्ट्रीय हित के आधार पर केन्द्र विधि बनाता है और क्षेत्रीय हित के विषय पर क्षेत्रीय सरकार। समाज के विकास एवं उसकी परिस्थितियों के अनुसार क्षेत्रीय विषयों का स्वरूप बदलकर राष्ट्रीय महत्व का हो सकता है और उस समय उस विषय पर ऐसी विधि की आवश्यकता होगी जो देश भर में लागू हो। यह कार्य केवल केन्द्रीय सरकार ही कर सकती है सामान्यतः संविधान में संशोधन किये बिना ऐसा नहीं किया जा सकता है। किन्तु हमारे संविधान-निर्माताओं ने इस उपबन्ध में एक ऐसी सरल प्रक्रिया की व्यवस्था की है जिससे हम संविधान में संशोधन किये बिना ही इस उद्देश्य की प्राप्ति कर सकते हैं और केन्द्र को राज्य सूची के उन विषयों पर, जो राष्ट्रीय हित का रूप धारण कर लेते हैं, विधि बनाने की शक्ति प्रदान की जा सकती है।

(3) नये राज्यों के निमार्ण एवं वर्तमान राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं सा नामों के बदलने की संसद की शक्ति -

अनुच्छेद 3 संसद को नये राज्यों के निर्माण, वर्तमान राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं या नामों के बदलने की शक्ति देता है। इस प्रकार राज्यों का अस्तित्व ही केन्द्र की इच्छा पर निर्भर है। इस व्यवस्था से निश्चय ही संघीय सिद्धान्त पर बहुत बड़ा आघात पहुँचता है। किन्तु संविधान निर्माताओं ने इस उपबन्ध को कुछ विशिष्ट कारणों से ही संविधान में समाविष्ट किया है। संसद की क्षेत्रीय समायोजन की शक्ति को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के सन्दर्भ में ही भलीभांति समझा जा सकता है। भारतीय संविधान ने भारत में पहली बार संघात्मक शासन-व्यवस्था लागू किया और उसमें अनेक इकाइयों को सम्मिलित किया। संविधान-निर्माता उन विशिष्ट परिस्थितियों एवं कारणों से भली-भाँति परिचित थे, जिनके फलस्वरूप राज्यों की स्थापना की गयी थी और कलान्तर में उनके क्षेत्रों में पुनः हेर-फेर की आवश्यकता को भी वे अनुभव करते थे। अतएव इस बात को ध्यान में रखते हुए उन्होनें अनुच्छेद 3 के अन्तर्गत भविष्य में उठाने वाली इस समस्या के समाधान की पहले व्यवस्था करना उचित समझा। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय संविधान राज्यों की क्षेत्रीय अखण्डता की गारण्टी नहीं देता है। ऐसा राजनीतिक और ऐतिहासिक दोनों कारणों से किया गया है।

(4) आपात्-उपबन्ध - 

अनुच्छेद 352 यह उपबन्धित करता है कि यदि राष्ट्रपति को यह समाधान हो जाता है कि युद्ध, बाह्य आक्रमण और सशस्त्र विद्रोह से देश की सुरक्षा संकट में है तो वह आपात की उद्घोषणा कर सकता है। अनुच्छेद 356 के अधीन यदि राष्ट्रपति को किसी राज्य के राज्यपाल से रिपोर्ट मिलने पर या अन्यथा यह समाधान हो जाता है कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गयी है जिसमें उस राज्य में सांविधानिक तन्त्र विफल हो गया है तो वह आपात की उ‌द्घोषणा कर सकता है। ऐसी उ‌द्घोषणा हो जाने पर राज्य सरकार को बरखास्त कर विधान सभा को भंग कर दिया जाता है और राज्य प्रशासन केन्द्रीय सरकार के अधीन आ जाता है। संसद को राज्य सूची के विषय पर विधि बनाने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। अनुच्छेद 360 यह उपबन्धित करता है कि भारत या उसके किसी भाग का वित्तीय स्थायित्व संकट में है तो वह इस आशय की घोषणा कर सकता है।

आपात् घोषणा का परिणाम यह होता है कि देश का सम्पूर्ण प्रशासन केन्द्र में निहित हो जाता है तथा संसद् पूरे देश के लिए विधि बनाने के लिए सक्षम हो जाती है। राज्यों को केन्द्र के निर्देशानुसार अपना प्रशासन चलाना होता है। इन उपबन्धों के परिणामस्वरूप हमारा संविधान एकात्मक रूप धारण कर लेता है।

निश्चत ही इन उपबन्धों के फलस्वरूप संविधान के संघीय ढाँचे पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है किन्तु देखना यह है कि क्या इससे संघीय सिद्धान्त परिवर्तित या नष्ट हो जाते हैं। डॉ. बी. एन. शुक्त उक्त मत से सहमत नहीं है। उनके अनुसार आपात् उपबन्ध, जो केवल विशिष्ट परिस्थितियों में लागू होते हैं, हमारी संघीय व्यवस्था को परिवर्तित या नष्ट नहीं करते हैं। यह तो हमारे संविधान का विशेष गुण है जो उन विशिष्ट परिस्थितियों की कल्पना करता है जबकि संधीय सिद्धान्त को कोरता से लागू करने से वे मूलभूत धारणाएँ नष्ट हो सकती हैं। जिन पर हमारा संविधान आधारित है।

"भारतीय संविधान कठोर होते हुए भी लचीला है"

लचीला संविधान (Flexible Constitution) -

अखिलित संविधान साधारणतः लचीला संविधान होता है, जैसे कि इंग्लैण्ड का संविधान। लचीले संविधान में सभी विधियों को एक ही प्रक्रिया से संसद द्वारा चाहे जब संशांधित किया जा सकता है। लचीले संविधान में संसद सर्वोच्च होती है न्यायालय भी उसी अनुसार उनकी व्याख्या करता है।

कठोर संविधान (Rigid Constitution)- 

लिखित संविधान का मुख्य लक्षण उसकी कठोरता होती है। अर्थात् प्रत्येक लिखित संविधान कठोर संविधान होता है जैसे कनाडा, भारत आदि देशों का संविधान। कठोर संविधान में संविधान सर्वोच्च विधि होती है तथा उसमें विशिष्ट पक्रिया से ही परिवर्तन हो सकता है। न्यायालय संविधान के अनुसार ही विधियों की व्याख्या करता है।
संघात्मक संविधान की एक प्रमुख विशेषता उसकी परिवर्तनशीता भी है। संविधान की नम्यता और अनम्यता उसके संशोधन की प्रक्रिया पर निर्भर करती है। अपरिवर्तनशील संविधान उसे कहते हैं जिसमें संशोधन देश की विशेष प्रक्रिया के अनुसार ही किया जा सकता है जो प्रायः कठिन होती है। संविधान देश की सर्वोच्च विधि है, अतः उसकी सर्वोच्चता को बनाये रखने के लिए संशोधन की प्रक्रिया भी कठिन होनी चाहिए। भारतीय संविधान एक लिखित संविधान होते हुए भी काफी परिवर्तनशील संविधान है संविधान में केवल कुछ उपबन्ध ऐसे हैं जिनमें परिवर्तन करने के लिए एक विशेष प्रक्रिया का अनुसरण किया जाता है जब कि अधिकतर उपबंधों में संसद द्वारा साधारण विधि पारित करके ही परिवर्तन किया जा सकता है। यहाँ तक कि संशोधन की विशेष प्रक्रिया भी विश्व के अन्य संघात्मक संविधानों की अपेक्षा अधिक सरल है। भारतीय संविधान के निर्माताओं ने अनम्यता के साथ-साथ आवश्यकतानुसार नम्यता को भी स्थान देकर बड़ी ही सूझबूझ का कार्य किया। संविधान
के संशोधन की प्रकृति के बारे में पंडित नेहरू ने कहा है- "हालोंकि हम इस संविधान को इतन ठोस और स्थायी बनाना चाहते हैं जितना कि हम बना सकते हैं, फिर भी संविधान में कोई स्थायित्व नहीं है। इसमें कुछ सीमा तक परिवर्तनशीलता होनी चाहिए। यदि आप किसी वस्तु को अपरिवर्तशील और स्थायी बना देंगे तो आप राष्ट्र की प्रगति रोक देगें। और इस प्रकार आप एक जीवित और संगठित राष्ट्र की प्रगति को भी रोक देंगे- किसी भी अवस्था में हम इस संविधान को इतना अनम्य नहीं बना सकते थे कि यह बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित न हो सके। जबकि दुनिया एक संक्रान्ति काल में है और हम परिवर्तन की अत्यन्त ही तीव्र गति के युग से गुजर रहे हैं, तब सम्भव है कि हम आज जो कुछ कह रहें हैं कल वह पूरी तरह से लागू न हो सके।"

लेकिन संविधान-निर्मातागण यह भी जानते थे कि यदि संविधान को आवश्यकता से अधिक नम्य बना दिया जायेगा तो वह शासक दल के हाथों की कठपुतली बन जायेगा और वे अनावश्यक संशोधन भी कर देंगे। इसलिए हमारे संविधान निर्माताओं ने एक मध्यम वर्ग का अनुसरण किया है। यह न तो इतना अनम्य है कि आवश्यक संशांधन न किये जा सकते हों और न इतना नम्य ही है कि अवांछनीय संशोधन किये जा सकते हों। अतएव यह कहा जा सकता है कि भारतीय संविधान नम्यता-अनम्यता का एक अनोखा मिश्रण है।

भारतीय संविधान की जटिल संशोधन-प्रकिया को देखकर डॉ जेनिंग्स ने कहा था कि भारतीय संबिधान को आवश्यकता से अधिक अनम्य बना दिया गया है। संविधान में किये गये संशोधन को देखते हुए डॉ जेनिंग्स का कथन निराधार ही लगता है। 66 वर्षों के भीतर संविधान के 100 संशोधन किये जा चुके हैं। इससे भारतीय संविधान की नम्यता स्पष्ट परिलक्षित होती है। इसके विपरीत अमेरिका के संविधान में करीब 200 वर्षों के अन्दर केवल 26 संशोधन का किया जाना वहाँ के संविधान की जटिल संशोधन प्रक्रिया का परिणाम है। भारतीय संविधान इस अतिवादी दृष्टिकोण से सर्वथा मुक्त है।

संशोधन की प्रक्रिया

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 में संशोधन की प्रक्रिया उपबंधित की गई है। संसद ही संविधान में संशोधन कर सकती है और ऐसा करते समय संसद को अनुच्छेद 368 में विहित प्रक्रिया का अनुसरण करना पड़ता है। और संविधान के संशोधन के लिए विधेयक किसी भी सदन में आरम्भ किया जा सकता है। जब यह विधेयक प्रत्येक सदन के कुल सदस्य संख्या के बहुमत द्वारा (अर्थात् 50 प्रतिशत से अधिक) तथा उसमें उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के कम से कम दो तिहाई बहुमत द्वारा पारित कर दिया जाता है तब राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत किया जायेगा जो विधेयक पर अनुमति देने के लिए बाध्य होगा। विधेयक पर राष्ट्रपति की अनुमति प्राप्त हो जाने पर ब संविधान उस विधेयक के निर्बन्धनों के अनुसार संशोधित हो जायेगा।

इस प्रकार संशोधन की दृष्टि से संविधान के विभिन्न उपबन्धों को तीन भागों में विभजित किय गया है और प्रत्येक भाग के लिए पृथक् प्रक्रिया अपनाई गई हैं।

(1) साधारण बहुमत-
 इस श्रेणी में अनुच्छेद 4, 169 और 239-A आते हैं। इसने संशोधन के लिए संसद का साधारण बहुमत पर्याप्त है। इन अनुच्छेदों को अनुच्छेद 368 के क्षेत्र में परे रखा गया है, क्योंकि ये विषय कोई विशेष संवैधानिक महत्व के नहीं है।

(2) विशेष बहुमत -

इसमें संविधान के अन्य सभी उपबन्ध आते हैं जो न. (1) और (3) में सम्मिलित नहीं है। इन उपबंधों के संशोधन के लिए केवल संसद का विशेष बहुमत पर्याप्त है। राज्यों के उपस्थित तथा मतदान करने वाले सदस्यों के 2/3 बहुमत से होता है।

(3) विशेष बहुमत तथा राज्यों द्वारा अनुसमर्थन-

 इस श्रेणी में वे उपबन्ध आते हैं जो संघात्मक ढाँचे से सम्बंधित हैं। इन उपबंधों के संशोधन के लिए सबसे कठिन प्रक्रिया अपनायी गयी है। इसमें संशोधन के लिए संसद के प्रत्येक सदन के 2/3 सदस्यों का बहुमत तथा कम से कम 50 प्रतिशत राज्यों के विधानमण्डलों का अनुसमर्थन भी आवश्यक है।

निम्नलिखित उपबन्धों के संशोधन के लिये विशेष बहुमत और राज्यों का अनुसमर्थन आवश्यक है-

(1) राष्ट्रपति का निर्वाचन (अनु. 54, 55)

(2) संघ तथा राज्यों की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार (अनु. 73, 162)

(3) संघ तथा राज्य न्यायपालिका (अनु. 124-147, 214-231, 241)

(4) संघ और राज्यों के बीच विधायी शक्ति का वितरण (अनु. 245-255)

(5) संसद् में राज्यों के प्रतिनिधित्व में (अनुसूची 4) या,

(6) सातवीं अनुसूची की सूची में; या

(7) अनु 368 के उपबन्धों में ।

अतः उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि भारतीय संविधान के अधिकतर उपबन्धों में संशोधन साधारण विधान प्रक्रिया द्वारा ही किया जा सकता है। केबल कुछ उपबन्धों में, जो परिसंघीय दाँचे, से सम्बन्धित हैं, संशोधन के लिए विशेष बहुमत तथा आधे राज्यों के विधान-मण्डलों के अनुसमर्थन की आवश्यकता पड़ती है। भारतीय संविधान में संविधान के संशोधन की प्रक्रिया अमेरिका और आस्ट्रेलिया के संविधानों की संशोधन की प्रक्रिया की अपेक्षा सरल है। आस्ट्रेलिया और स्विटरजरलैण्ड के संविधान में जनमत-संग्रह की प्रक्रिया और अमेरिकन संविधान के सांविधानिक परिपाटियों या रूढ़ियों की दुरूह प्रक्रिया को भारतीय संविधान में समाविष्ट नहीं किया गया है।

अतः निष्कर्षतः यही कहा जा सकता है कि भारतीय संविधान न तो इतना अनन्य है कि आवश्यक संशोधन न किये जा सकते हों और न इतना नम्य ही है कि अवांछनीय संशोधन किये जा सकते हों। अतः कहा जा सकता है कि भारतीय संविधान नम्यता-अनम्यता का एक अनोखा मिश्रण है।

भारतीय शासन प्रणाली संसदात्मक है या अध्यक्षात्मक संघात्मक-

 संविधान के अन्तर्गत मुख्यतया दो प्रकार की सरकारों की स्थापना की जा सकती है- संसदीय तथा अध्यक्षात्मक। भारतीय संविधान ने संसदीय सरकार की स्थापना की है। यह व्यवस्था केन्द्र तथा राज्य दानों सरकारों में एक सी है। सरकार का यह स्वरूप इंग्लैंड की सरकार के समान है। सरकार के इस स्वरूप को अपनाने का मुख्य कारण यह था कि भारत में इसकी नींव वर्तमान संविधान के लागू होने के पहले ही पड़ चुकी थी और हम इसके अभ्यस्त हो चुके थे। भारत सरकार अधिनियम 1935 के अन्तर्गत सरकार का ढाँचा इसी प्रकार का था। संविधान सभा ने बिना किसी विकल्प पर विचार किये ही ऐतिहासिक परम्परा के आधार पर ऐसी सरकार के ढ़ाँचे को अपना लिया।

संसदीय प्रणाली में राष्ट्रपति का स्थान इंग्लैण्ड के सप्नाट के समान ही है। यह कार्यपालिका का नाममात्र का प्रावधान होता है, वास्तविक कार्यपालिका- शक्ति जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों में, जिसे मन्त्रि-प्रतिषद् कहते हैं, निहित होती है। मन्त्रि-परिषद का 'प्रधान प्रधानमन्त्री होता है। मन्निः परिषद् सामुहिक रूप से संसद के प्रति उत्तरदायी होता है। यद्यपि संविधान के अनुसार समस्त कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति के हाथों में निहित है, किन्तु वह उसका प्रयोग मन्त्रि-परिषद की सलाह से ही करता है।

संविधान के अनुच्छेद 74(1) के अनुसार, राष्ट्रपति को सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रि-परिषद् होगी जिसका प्रधान, प्रधानमंत्री होगा और राष्ट्रपति अपने कृत्यों का प्रयोग करने में ऐसी सलाह के अनुसार कार्य करेगा।

अनुच्छेद 75 (3) के अनुसार, मंत्रिपरिषद सामुहिक रूप के लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होगी।

इसी प्रकार राज्यों के संबंध में अनुच्छेद 163 (1) के अनुसार, राज्यपाल की उसकी कार्यों के प्रयोग करने में सहायता और मंत्रणा देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होगी जिसका प्रधान मुख्यमंत्री होगा सिवाय वहाँ तक जहाँ संविधान के अन्तर्गत अपने कृत्यों या उनमें से किसी को अपने विवेकानुसार करे।

अनुच्छेद 164(2) के अनुसार, मंत्रि-परिषद राज्य की विधान-सभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरादायी होगी।

राज्य में राज्यपाल की संवैधानिक स्थिति वही है जो केन्द्र में राष्ट्रपति की है अर्थात् वह राज्य का नाममात्र का संवैधानिक प्रमुख होता है उसकी कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग उसके नाम से राज्य का मंत्रिमण्डल करता है।

विधायी प्रक्रिया के संबंध में-

 अनुच्छेद-107 के अनुसार, जो विधेयक संसद के दोनों सदनों में पारित कर दिये जाते हैं, उन पर राष्ट्रपति की स्वीकृति अनुच्छेद 111 के अन्तर्गत केवल औपचारिक रूप से ही प्राप्त की जाती है धन विधेयक पर तो वह अपनी स्वीकृति देने के लिए बाध्य होता है किन्तु अन्य विधेयकों के सबंध में भी जहाँ उसको किसी विधेयक पर अपनी स्वीकृति रोक लेने का निषेधधिकार प्राप्त है वहाँ पर भी उसे विधेयक को, उसके द्वारा सुझाये गये किसी संशोधन पर पुनर्विचार करने के लिए संसद को लौटाना पड़ता है और उस दशा में यदि संसद उसे पुनः उसके मूल रूप में पारित कर देती है तो राष्ट्रपति उस पर अपनी स्वीकृति देने के लिए बाध्य हो जाता है, यही स्थिति अनुच्छेद 200 के अन्तर्गत राज्यों में राज्यपाल की होती है।

अतः उपर्युक्त विवेचना के पश्चात यही कहा जा सकता है कि हमारे देश में संसदीय प्रणाली के स्थान पर राष्ट्रपतीय प्रणाली को अपनाने की वांछनीयता अथवा अवांछनीयता के संबंध में कुछ बहस चलती रहती है। किंतु हमारे संविधान निर्माताओं ने संसदीय प्रणाली को अपनाया क्योंकि उन्हें इसके संचालन का कुछ अनुभव था और सुस्थापित संस्थाओं को जारी रखने के अनेक लाभ थे। उनका विश्वास था कि अत्याधिक बहुवादी समाज वाले भारत जैसे विशाल तथा विविधता से भरपूर देश के लिए, जहाँ विभिन्न प्रकार के प्रभाव काम करते हैं, सभी हितों को संजोने तथा संयुक्त भारत के निर्माण के लिए संसदीय प्रणाली सर्वाधिक अनुकूल होगी।

न्यायिक निर्णय - 

राम जवाया कपूर बनाम पंजाब राज्य, 1955 एस.सी. के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि हमारे संविधान में इंग्लैण्ड की संसदीय सरकार की प्रणाली को अपनाया गया है, जिसका मूल सिद्धान्त यह है कि राष्ट्रपति कार्यपालिका का सांविधानिक प्रधान होता है और वास्तविक कार्यपालिका शक्ति मन्त्रिपरिषद् में निहित होती है।

शमशेर सिहं बनाम स्टेट ऑफ पंजाब, 1974 एस.सी. के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि अधीनस्थ न्यायालयों में कार्यरत न्यायिक आफिसरों की नियुक्ति और पदच्युक्ति करने की शक्ति कार्यपालिका शक्ति है, जिसका प्रयोग राष्ट्रपति और राज्यपाल अपनी मन्त्रिपरिषद् की सलाह पर ही कर सकते हैं।











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