पक्षकारों के कुसंयोजन या असंयोजन के बारे में आक्षेप- सीपीसी आदेश -1 नियम 9-13
पक्षकारों के कुसंयोजन या असंयोजन के बारे में आक्षेप-
सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 1 नियम 9 एवं 13 में पक्षकारों के असंयोजन एवं कुसंयोजन के बारे में प्रावधान किया गया है।
असंयोजन-
जहां कोई व्यक्ति किसी वाद में आवश्यक पक्षकार है, परन्तु उसे पक्षकार के रूप में संयोजित नहीं किया गया है, तो इसे 'असंयोजन' का मामला कहते हैं। इस प्रकार की स्थिति वादी अथवा प्रतिवादी दोनों के रूप में हो सकती है।
कुसंयोजन-
जहां कि एक से अधिक वादी हैं और एक मुकदमे में एक साथ संयोजित कर दिये जाते हैं, लेकिन अनुतोष का जिसका प्रत्येक वाद में वर्तमान होना अभिकथित किया गया है, उसी एक ही कार्य या संव्यवहार से उत्पन नहीं होता है और यदि पृथक मुकदमे लाये जाते हैं, तो उनमें कानून या तथ्य का कोई समान प्रश्न नहीं उठता है, वहां यह वादियों के कुसंयोजना का मामला होता है। प्रतिवादियों का कुसंयोजन, उस स्थिति में होता है, जब दो या दो से अधिक व्यक्ति प्रतिवादियों के रूप में संयोजित किये जाते हैं, लेकिन अनुतोष का अधिकार जिसका, उनमें से प्रत्येक के खिलाफ वर्तमान होना अभिकथित किया गया है, उसी एक ही कार्य के संव्यवहार से उत्पन्न नहीं होता है और कानून या तथ्य का कोई समान प्रश्न भी नहीं होता है।
पक्षकारों के असंयोजन और कुसंयोजन का प्रभाव-
पक्षकारों का असंयोजन या कुसंयोजन मुकदमे के लिए घातक नही है। आदेश 1 नियम 9 में यह स्पष्ट रूप से दिया गया है कि कोई मुकदमा पक्षकारों के असंयोजन या संयोजन के कारण विफल नहीं किया जायेगा और न्यायालय प्रत्येक मुकदमे में, विवादाग्रस्त मामलों में सतर्कता बरत सकेगी, जहां तक कि पक्षकारों के अधिकार और हित वास्तव में इसके समक्ष हैं। इस नियम का केवल एक अपवाद, इस सिद्धान्त द्वारा दिया गया है कि अदालत ऐसी डिक्री पारित नहीं करेगी, जो प्रभावहीन तथा फलहीन होगी।
प्रेमलता बनाम चन्द्र प्रकाश 2007 सु. को. के वाद में कहा गया कि यदि प्रतिवादी ने लिखित कथन में संयोजन का मामला नहीं उठाया है और वाद में आपत्ति की है, तो न्यायालय ऐसी आपत्ति को खारिज कर सकेगा।
श्रीमती नीकूबाई बनाम भगवान सिंह, 2009 (एन. ओ. सी.) बम्बई के वाद में कहा गया कि संविदा के विनिर्दिष्ट अनुतोष के मामले में वाद के दौरान प्रतिवादी की मृत्यु हो जाती है तो मृतक के वर्ग एक के उत्तराधिकारियों को विधिक प्रतिनिधि के रूप में अभिलेख पर लाना आवश्यक है। मृतक की पुत्रियों को संयोजित नहीं किया जा सका तो वाद ऐसे आवश्यक पक्षकारों को संयोजित किये बिना चलने योग्य नहीं है।
कुसुमचन्द्र बनाम सुनील, 2012 गुवाहाटी के बाद में गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने निर्णीत किया कि अपीलीय न्यायालय द्वारा आवश्यक पक्षकार के आयोजन के आधार पर वाद को खारिज करना उचित नहीं है।
संहिता की धारा 99 के अनुसार, कुसंयोजन या असंयोजन के आधार पर, यदि ऐसे संयोजन या असंयोजन के मामले के गुणावगुण पर या न्यायालय की अधिकारिता पर कोई प्रभाव नहीं पडता, तो किसी डिक्री को अपील में उल्टा नहीं जा सकता या उसमें सारभूत फेरफार नहीं किया जा सकता परन्तु यह नियम भी आवश्यक पक्षकार के असंयोजन पर नहीं लागू होता है।
कुसंयोजन और असंयोजन के विरुद्ध आक्षेप-
आदेश 1 नियम 13 के अनुसार पक्षकारों के असंयोजन और कुसंयोजन के आधार पर सभी आक्षेप यथासम्भव शीघ्रतम अवसर पर किये जायेंगे और ऐसे सभी मामलों में जहां विवाद्यक स्थिर किये जाते हैं, वहां स्थिरीकरण के समय या उससे पहले किये जायेंगे और यदि ऐसा आक्षेप नहीं किया जाता है तो वह आक्षेप अधित्यक्त कर दिया गया, समझा जायेगा।
चर्च ऑफ क्राइस्ट चैरिटेबुल ट्रस्ट एण्ड एजुकेशनल चैरिटेबुल सोसाइटी कम पोन्त्रियाम्मन एजुकेशनल ट्रस्ट 2012 सु. को. के वाद में कहा गया कि असंयोजन का तर्क प्रथम बार उच्चतम न्यायालय के समक्ष नहीं उठाया जा सकता। यदि उसे विचारण न्यायालय के समक्ष नहीं उठाया गया और जिसका परिणाम न्याय की असफलता में नहीं हुआ।
आवश्यक एवं उचित पक्षकार-
आदेश 1 नियम 9 के अन्तर्गत आवश्यक एवं उपयुक्त पक्षकार का प्रयोग किया गया है।
आवश्यक पक्षकार-
आवश्यक पक्षकार से तात्पर्य ऐसे पक्षकार से है, जिसका वाद के पक्षकार के रूप में रहना नितान्त आवश्यक है या जिसका वाद में पक्षकार बनाया जाना परमावश्यक है या आवश्यक पक्षकार से तात्पर्य ऐसे पक्षकारों से हैं, जिसकी अनुपस्थिति में न्यायालय कोई प्रभावी डिक्री नहीं पारित कर सकता।
गवर्नमेन्ट ऑफ ए. पी. बनाम जी. जया प्रसाद राव 2007 के वाद में कहा गया कि जहां एक रिट याचिका एक नियम की विधि सम्मतता को चुनौती देती है। वहां यह आवश्यक नहीं है कि उन सभी को पक्षकार बनाया जाय जो इससे प्रभावित होने वाले हैं। यह सम्भव नहीं है कि उन सब की पहचान कर ली जाय जो प्रभावित होने वाले हैं। यही नहीं एक नियम के विधि सम्मतता का प्रश्न ऐसा है जो गुणागुण पर निर्णीत होगा और अन्त में जब नियम विधि सम्मत या अविधिमान्य अभिनिर्धारित किया जाय तो परिणाम अपने आप अनुगमन करता है।
उदाहरण-(1) जहाँ 'अ', 'ब', 'स' और 'द' संयुक्त हिंदू परिवार में सह-अंशधारी है, वहां अगर 'अ' विभाजन का वाद संस्थित करता है, तो 'ब', 'स' और 'द' आवश्यक पक्षकार हैं।
(2) जहां पति द्वारा दान दिये गये धन से पत्नी द्वारा सम्पत्ति खरीदी गई है, और लड़की पिता के इच्छापत्र के अधीन, निष्पादक से सम्पत्ति के प्रत्युद्धरण के लिये वाद संस्थित करती है, अपने भाइयों को वाद का पक्षकार नहीं बनाती, वहां ऐसा वाद नहीं चल सकता क्योंकि वहां आवश्यक पक्षकारों को नहीं संयोजित किया गया है-भाई आवश्यक पक्षकार है। (कनक राधा नम्मल बनाम लोगन्था, 1965 सु. को.)
उपयुक्त पक्षकार-
उपयुक्त पक्षकार वह है जिसकी उपस्थिति, विवादित प्रश्न या विवाद में उठाये गये प्रश्न के अधिक प्रभावकारी ढंग और पूर्ण रूप से विनिश्चय में न्यायालय की सहायता करती है। ऐसे पक्षकार के बिना भी प्रभावी डिक्री तो पारित की जा सकती है, लेकिन उसकी उपस्थिति मामले में के विवाद को पूर्ण रूप से निपटाने के लिये आवश्यक है।
उदाहरण के लिये जहाँ मकान मालिक ने किरायेदार के विरुद्ध, मकान के कब्जे के लिये वाद संस्थित किया है वहाँ, उप- किरायेदारी उपयुक्त पक्षकार है। इसी तरह जहाँ पुत्रों ने विभाजन का वाद, पिता के विरुद्ध संस्थित किया है, वहां पौत्र उपयुक्त पक्षकार है।
जहाँ विधान सभा का भंग करने सम्बन्धी राष्ट्रपति की उदृघोषणा को अभिखण्डित करने के लिये याचिका दाखिल की गयी-उद्घोषणा को इस आधार पर चुनौती दी गयी कि केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल की सलाह पर आधारित उदघोषणा भ्रान्तिमूलक है, राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति को प्रेषित रिपोर्ट को अभिखण्डित करने की कोई मांग नहीं की गयी है, यद्यपि उसके रिपोर्ट के विरुद्ध आक्षेप लगाये गये है, वहां मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने सुन्दर लाल पटवा बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया, 1993 म. प्र. नामक वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि राज्यपाल न तो आवश्यक पक्षकार है न ही उपयुक्त पक्षकार है।
अनिल कुमार बनाम ज्ञानदेव एण्ड सन्स, 1995 के वाद में कहा गया कि जहां एक किरायेदार के द्वारा यह अभिकथित करते हुए वाद लाया गया कि सम्पत्ति के उपभोग में उसी सम्पत्ति को एक दूसरे किरायेदार द्वारा बाधा पहुंचायी जा रही है, वहां यह अभिनिर्धारित किया गया कि सम्पत्ति भू-स्वामी, समुचित पक्षकार है न कि आवश्यक पक्षकार।
प्रश्न -
पक्षकारों के कुसंयोजन या असंयोजन के बारे में आक्षेप कब किया जा सकता। है? आवश्यक पक्षकार के असंयोजन का क्या प्रभाव होता है। क्या आवश्यक पक्षकार के असंयोजन के बारे में आक्षेप अपीलीय न्यायालय में उठाया जा सकता है?
वादों में पक्षकार के असंयोजन या कुसंयोजन से आप क्या समझते हैं? क्या ऐसे असंयोजन या कुसंयोजन के कारण कोई वाद विफल हो सकता है?
किसी वाद में पक्षकारों के असंयोजन या कुसंयोजन के सम्बन्ध में कोई आपत्ति कब उठाई जानी चाहिए?
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(क) आवश्यक एवं पक्षकार
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