आदेश 1(सीपीसी) वादों के पक्षकार -(parties to suits)

    आदेश 1(सीपीसी) वादों के पक्षकार -(parties to suits)


वादियों का संयोजन (Joinder of Plaintiffs)

आदेश 1 नियम-1 के अनुसार, वे सभी व्यक्ति वादियों के रूप में एक वाद में संयोजित किये जा सकेंगे जहां-

(क) एक ही कार्य या संव्यवहार या कार्यों या संव्यवहारों की आवली के बारे में या उससे पैदा होने वाले अनुतोष को अधिकार मिलने से वे संयुक्ततः या पृथकतः या अनुकल्पतः वर्तमान में विद्यमान रहते हैं

(ख) यदि ऐसे वैयक्ति पृथक-पृथक वाद लाते तो, विधि या तथ्य का सामान्य प्रश्न उत्पन्न होता है।

उपरोक्त प्रावधानों से स्पष्ट है कि यदि एक ही कृत्य अथवा संव्यवहार से एक से अधिक व्यक्ति प्रभावित होते हैं, जिसके परिणामस्वरूप उनको उस कृत्य के विरुद्ध अनुतोष प्राप्त करने का अधिकार होता है वहां ऐसे सभी व्यक्ति मिलकर वाद संस्थित कर सकेंगे। अनुतोष प्राप्त करने का इन सब व्यक्तियों को अधिकार संयुक्त रूप से या पृथक रूप से या वैकल्पिक रूप से प्राप्त होता है। इन तीनों दशाओं में इन व्यक्तियों को वादियों के रूप में संयोजित किया जा सकता है। क्योंकि इनको अनुतोष प्राप्त करने का अधिकार एक ही कृत्य या संव्यवहार से प्राप्त हुआ है। इनको निम्न उदाहरणों से स्पष्ट किया जा सकता है—

उदाहरण- (i) 'क' द्वारा जारी कथन कि 'राजस्थान में स्थित किसी विश्वविद्यालय से फर्जी डिग्री आसानी से प्राप्त की जा सकती है' स्थानीय पेपर में प्रकाशित होता है। 'क' द्वारा जारी ऐसे अपमान पूर्वक लेख के परिणामस्वरूप राजस्थान में स्थित सभी विश्वविद्यालय संयुक्त रूप से 'क' के विरुद्ध मानहानि के लिये वाद ला सकेंगे। क्योंकि इन सबको 'क' द्वारा प्रकाशित कथन से संयुक्त रूप से अनुतोष प्राप्त करने का अधिकार मिला।

(ii) 'क' की मृत्यु के उपरान्त उसकी सम्पत्ति के उत्तराधिकारी को लेकर परिवार के सदस्यों में झगड़ा उत्पन्न हुआ। 'क' की विधवा एवं 'क' का दत्तक पुत्र सहवादियों के रूप में परिवार के अन्य सदस्यों के विरुद्ध मृतक की सम्पत्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त करने के लिये वाद इस आधार पर दाखिल करते हैं कि यदि मृतक की सम्पत्ति स्व-अर्जित हो तो मृतक की विधवा एवं दत्तक पुत्र वर्ग एक के रूप में सम्पत्ति प्राप्त करने के अधिकारी हैं एवं यदि मृतक की सम्पत्ति सहदायिकी है तो वैकल्पिक रूप में दत्तक पुत्र अन्य व्यक्तियों की बजाय उत्तरजीवी सहदायिकी के रूप में प्राप्त करने का अधिकारी है। अतः उक्त वाद में विधवा एवं दत्तक पुत्र को वैकल्पिक रूप से संयोजित किया गया।

इस प्रकार उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि वादियों के संयोजन की कसौटी कार्य या संव्यवहार की समरूपता है, चाहे ऐसे वादियों को अनुतोष प्राप्त करने का अधिकार संयुक्त रूप से या पृथक रूप से या वैकल्पिक रूप से प्राप्त होता है।

परन्तु

आदेश 1 नियम 2 यह उल्लेख करता है कि जहाँ न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि वादियों के संयोजन से वाद के विचारण में उलझन या विलम्ब हो सकता है, वहाँ न्यायालय वादियों को वाद में सम्मिलित होने के चुनाव का अवसर दे सकेगा अथवा पृथक विचारण का अथवा ऐसा अन्य आदेश दे सकेगा जैसा कि न्यायालय उचित समझे।

प्रतिवादियों का संयोजन (Joinder of defendants)

आदेश 1 नियम 3 के अनुसार, वे सभी व्यक्ति प्रतिवादियों के रूप में संयोजित किये जा सकेंगे, जहाँ-

(क) एक ही कार्य का संव्यवहार या कायों या व्यवहारों की आवली के बारे में (या उससे पैदा होने वाले अनुतोष पाने का कोई अधिकार उनके विरुद्ध संयुक्तता या अनुकल्पतः वर्तमान होना अधिकथित है, और

(ख) यदि ऐसे व्यक्तियों के विरुद्ध पृथक-पृथक वाद लाये जाते तो, विधि या तथ्य का सामान्य प्रश्न पैदा होगा।

उपरोक्त दोनों शर्तों की पूर्ति होने पर ही प्रतिवादियों को संयोजित किया जा सकेगा। इस नियम का उद्देश्य बहुवाद को रोकना एवं न्यायालय के समय को बचाना है। प्रतिवादियों के संयोजन को निम्न उदाहरणों से समझा जा सकता है।

उदाहरण- (1) 'ग' एवं 'ख' मिलकर 'क' के विरुद्ध आक्रमण की योजना बनाते हैं तथा 'क' पर आक्रमण कर देते हैं। 'क' को 'ख' एवं 'ग' के विरुद्ध आक्रमण के कृत्य के परिणामस्वरूप संयुक्त रूप से अनुतोष प्राप्त करने का अधिकार है। अतः क अपने वाद में 'ख' एवं 'ग' को संयोजित करके सहप्रतिवादी बनाकर वाद दाखिल कर सकेगा। इन दोनों के विरुद्ध पृथक-पृथक वाद लाया जाता तो विधि एवं तथ्य का सामान्य प्रश्न उत्पन्न होता।

(2) 'क' के विरुद्ध एक समाचार पत्र में एक अपमानजनक लेख प्रकाशित हुआ। 'क' एक ही वाद में समाचार-पत्र के स्वामी, सम्पादक, प्रकाशक तथा मुद्रक को सहप्रतिवादियों के रूप में संयोजित कर सकेगा। क्योंकि इन सभी व्यक्तियों के विरुद्ध अनुतोष के अधिकार की उत्पत्ति एक ही कार्य (प्रकाशन) से होती है और अगर इनके विरुद्ध पृथक-पृथक वाद लाये जाते तो इन सब में विधि एवं तथ्य का सामान्य प्रश्न उत्पन्न होता।

डिप्टी कमिश्नर बनाम रामकृष्णा, 1953 सु. को. एवं कलेक्टर (डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट) इलाहाबाद बनाम राजाराम,  1985 सु. को के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि इस नियम के प्रावधान्ना आदेशात्मक और बाध्यकर नहीं हैं।


प्रतिनिधि वाद (Representative Suit)-

 सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 1, नियम 3 में प्रतिनिधि वाद के बारे में प्रावधान किया गया है।

प्रतिनिधि वाद से तात्पर्य एक ऐसे वाद से है जो एक या एक से अधिक व्यक्ति अपने और दूसरे के फायदे के लिये, जिसमें उसका एक हित है, संस्थित कर सकते हैं या उनके विरुद्ध संस्थित किया जा सकता है।

उद्देश्य-

यह नियम सुविधा के सिद्धान्त पर आधारित है।

गाउण्डर बनाम गाउण्डर, 1955 मद्रास 281 वाद में कहा गया कि ऐसे वाद के माध्यम से एक ऐसे प्रश्न पर विनिश्चय प्राप्त किया जाता है, जिसमें व्यक्तियों का एक बड़ा वर्ग हितबद्ध है और जिसमें संहिता में बतायी गयी सामान्य प्रक्रिया अपनाने की आवश्यकता नहीं पड़ती।

इस उपबंध का भी उद्देश्य धारा 10, 11 एवं धारा 47 की भांति वादों की बहुलता को रोकना है। 

प्रतिनिधि वाद की आवश्यक शर्तें -

 आदेश 1 नियम 8 की प्रयोज्यता के लिए निम्न शतों को पूरा करना आवश्यक है।

(1) पक्षकारों की संख्या अधिक हो,

(ii) वाद में उनका एक ही हित हो,

(iii) वाद संस्थित करने के लिए न्यायालय की अनुमति प्राप्त कर ली गई हो, और

(iv) उन सभी पक्षकारों जिनका कि प्रतिनिधित्व किया जाना है, सूचना दे दी गई हो।

(1) व्यक्तियों की अधिकता

इस नियम के लागू होने के लिये पहली आवश्यकता है कि व्यक्तियों की संख्या अत्यधिक होनी चाहिए। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि पक्षकारों की संख्या अनगिनत होनी चाहिए। इस नियम के अधीन एक ग्राम निवासियों की तरफ से ग्राम की सम्पत्ति के लिए वाद लाया जा सकेगा या एक पंथ, जाति या समुदाय की तरफ से वाद लाया जा सकेगा।

जहां 'क' ने एक समिति के पक्ष में या समिति की तरफ से एक वाद संस्थित किया, अधीनस्थ न्यायालय ने यह पाया कि समिति ने प्रस्ताव पारित करके 'क' को वाद संस्थित करने के लिये अधिकृत किया और यह तथ्य वाद-पत्र में दर्शाया गया है, वहाँ पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने निशावर सिंह बनाम लोकल गुरुद्वारा कमेटी मंजी साहब, 1986 के वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि 'क' को ऐसी स्थिति में प्रतिनिधि वाद संस्थित करने का अधिकार प्राप्त है।

(2) एक ही हित-दूसरी आवश्यक शर्त यह है कि वे सभी व्यक्ति जिनकी तरफ से ऐसा वाद संस्थित किया जा रहा है, उन सब का वाद में एक ही हित होना चाहिए।

रामगोपाल बनाम मूर्ति राधाकृष्ण मन्दिर,  2007 (एन. ओ. सी.) राज. के वाद में वादी का मन्दिर सम्पत्ति को सुरक्षित रखने का हित था तथा वह मन्दिर में ही रहता था। उसमें वाद दायर करने का अधिकार भी निहित था। अतः वादी बिना आदेश 1 नियम 8 की पूर्ति किये वाद को जारी रख सकता है।

खंडू महदजी बनाम परसराम, 2009 (बम्बई) के वाद में ग्राम पंचायत की सम्पत्ति को ग्राम पंचायत के एक सदस्य ने दोषपूर्ण रूप से अपने कब्जे में ले लिया। ग्राम पंचायत द्वारा कोई कार्यवाही नहीं करने पर गांव के दो पूर्व अध्यक्षों द्वारा इसके विरुद्ध प्रतिनिधि वाद को बम्बई उच्च न्यायालय ने उचित ठहराया।

(3) न्यायालय की अनुमति-

नियम के लागू होने की तीसरी आवश्यक शर्त है कि प्रतिनिधि वाद संस्थित करने के लिये अनुमति प्रदान की गई हो यो ऐसा करने के लिये न्यायालय का निर्देश अवश्य हो। न्यायालय की अनुमति वाद संस्थित करने से पूर्व ले ली जानी चाहिए। लेकिन ऐसा आवश्यक नहीं, ऐसी अनुमति वाद के दौरान या अपील के प्रक्रम पर भी ली जा सकती है।

कानन लाल मोडल बनाम पश्चिम बंगाल राज्य, 2008 (एन. ओ.सी.) कल. के वाद में कहा गया कि एक वाद को प्रतिनिधि वाद तभी माना जा सकता है, जब न्यायालय इसके लिए अनुमति प्रदान कर देता है, अन्यथा नहीं।

 हरिराम बनाम ज्योति प्रसाद, 2011 सु. को. के वाद में वादी ने लोक रास्ते में रुकावट को हटाने के लिये वाद दायर किया। ऐसी रुकावट से वादी स्वयं प्रभावित था। प्रतिनिधि वाद के रूप में इजाजत नहीं लेने से वादी का वाद खारिज नहीं किया जा सकता क्योंकि वादी स्वयं उससे पीड़ित था।

(4) सूचना-

प्रतिनिधि वाद सम्बन्धी नियम के लागू होने के लिए अन्तिम शर्त यह है कि सभी सम्बन्धित पक्षकारों को सूचना दी जानी चाहिए। यह न्यायालय का कर्तव्य है कि सूचना जारी करे। न्यायालय के द्वारा प्रतिनिधि वाद संस्थित किये जाने की अनुमति के पश्चात् इस नियम के अधीन सूचना अवश्य दी जानी चाहिए।

प्रतिनिधि वाद और प्राङ्गन्याय-

प्रतिनिधि वाद एवं प्राङ्गन्याय से सम्बन्धित प्रावधान था 11 के छठवें स्पष्टीकरण में दिया गया है।

धारा 11 के छठवें स्पष्टीकरण के अनुसार, जहां कोई व्यक्ति किसी लोक-अधिकार के किसी ऐसे निजी अधिकार के लिये सद्भावनापूर्वक मुकदमा करता है, जिसका वह अपने लिये और अन्य व्यक्तियों के लिये सामान्यतः दावा करता है, वहाँ ऐसे अधिकार के हितबद्ध सभी व्यक्तियों के बारे में इस धारा के प्रयोजन के लिये यह समझा जायेगा कि वे ऐसा मुकदमा करने वाले व्यक्तियों से व्युत्पन अधिकार के अधीन दावा करते हैं। इस प्रकार यह प्रावधान उस विषय को निर्दिष्ट करते हैं कि किसी वाद का निर्णय उन व्यक्तियों के विरुद्ध प्राङ्गन्याय के रूप में लागू हो सकता है, जो मुकदमे के पक्षकारों के रूप में स्पष्ट रूप से नामित नहीं किये गये हैं, यथा जहाँ  कोई वाद 'अ' और 'ब' के द्वारा  उनके लिये एवं अन्य लोगों के लिये संस्थित किया गया है या जहाँ 'अ' और 'ब' के विरुद्ध वाद उनके लिये या अन्य लोगों के लिये संस्थित किया गया है। वे शर्तें निम्न है, जिसके अन्तर्गत ऐसे वाद का निर्णय उन पक्षकारों के विरुद्ध प्राङ्गन्याय के रूप में लागू होगा, जिन्हें बाद में स्पष्ट रूप से नामित नहीं किया गया है-

(1) जहाँ किसी अधिकार के लिये दावा एक व्यक्ति द्वारा या एक से अधिक व्यक्तियों द्वारा अपने लिये और अन्य के लिये (जिनके नाम का स्पष्ट उल्लेख वाद में नहीं है) सामुहिक रूप से किया जाता है।

(2) वे पक्षकार जिनका स्पष्ट उल्लेख वाद में नहीं किया गया है  या जिन्हें स्पष्ट रूप से वाद में नहीं नामित किया गया है, ऐसे अधिकार से हितबद्ध (must be interested in such right) है।

(3) मुकदमेबाजी स‌द्भावनापूर्वक (bonafide) और सभी हितबद्ध पक्षकारों के लिये किया गया है, और

(4) वाद संहिता के आदेश 1, नियम 8 के अन्तर्गत है और उस नियम की सभी शर्तें पूरी कर दी गयी है।

श्रीमती सुदेहैया कुंवर बनाम रामदास, 1957 इलाहाबाद के वाद में कहा गया कि धारा 11 का छठवां स्पष्टीकरण केवल ऐसे प्रतिनिधिवाद तक सीमित नहीं है, जो संहिता के आदेश 1 नियम 8 के अन्तर्गत आते हैं। यह दूसरे मुकदमों में भी लागू होता है, जिसमें कोई व्यक्ति पारस्परिक रूप से अपने लिये और दूसरों के लिये अधिकार का दावा करता है।

वाद में दावे के किसी भाग का परित्याग-

आदेश 8 नियम 1 का उपनियम 4 के अनुसार-आदेश 23 के नियम 1 के उपनियम (1) के अधीन ऐसे वाद में दावे के किसी भाग का परित्याग नहीं किया जायेगा और उस आदेश के नियम 1 के उपनियम (3) के अधीन ऐसे वाद का प्रत्याहरण नहीं किया जायेगा और उस आदेश के नियम 3 के अधीन ऐसे बाद में कोई करार, समझौता या तुष्टि अभिलिखित नहीं की जायेगी, जब तक कि न्यायालय ने इस प्रकार हितबद्ध सभी व्यक्तियों को उपनियम (2) में विनिर्दिष्ट रीति से सूचना वादी के खर्चे पर न दे दी हो।

इस नियम के अधीन सूचना देने का औचित्य यह है कि डिक्री प्रतिनिधि वाद में पारित की जाएगी। वह यदि धोखे या दुरभिसंधि से नहीं प्राप्त की गई है तो सभी सम्बन्धित, हितबद्ध पक्षकारों पर बाध्यकारी होगी। अतः सूचना उन सभी पक्षकारों को दी जानी चाहिए, जिनके ऊपर ऐसी डिक्री बाध्यकारी होगी, अन्यथा उनके हित के बिना उन्हें सूचना के और अभिलेख पर दर्ज हुए मुकदमें प्रभावित हो सकते हैं।

पक्षकारों का जुड़ना या प्रतिस्थापन - 

आदेश 1, नियम 8, उपनियम 3 के अधीन कोई व्यक्ति जिसकी ओर से या जिसके फायदे के लिए उपनियम के अधीन कोई वाद संस्थित किया जाता है या ऐसे वाद में प्रतिरक्षा की जाती है, उस वाद में पक्षकार बनाये जाने के लिए न्यायालय को आवेदन कर सकेगा। ऐसे पक्षकार को केवल सहवादी या सह-प्रतिवादी के रूप में जोड़ा जा सकता है, किन्तु इसे मूल पक्षकार की जगह पर प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता। किन्तु संहिता में सन् 1976 के संशोधन के माध्यम से अब पक्षकारों की जगह पर प्रतिस्थापित किया जा सकता है। (आदेश 1 नियम 8 के उपनियम 5)

प्रतिनिधि वाद, समझौता, उपशमन और पुनरीक्षण- 

जहाँ एक बार आदेश 1, नियम 8 के अधीन प्रतिनिधि वाद संस्थित करने की अनुमति किसी प्रतिनिधि को दी गई, वहाँ उसे वाद में समझौता करने का भी अधिकार होना चाहिए। ऐसे वाद में प्रतिनिधि वाद का मालिक होता है, जब तक कि निर्णय न हो जाय। अतः वह ऐसे वाद को बन्द कर सकता है या समझौता कर सकता है। (एल. एम. दास बनाम स्टेट ऑफ वेस्ट बंगाल,  1951 कल.)

जहाँ तक वाद के उपशमन का प्रश्न है, ऐसे वाद को संस्थित करने वाले या जिसके विरुद्ध वाद संस्थित किया जाता है, की मृत्यु पर उपशमन नहीं होता। (आनन्दराव बनाम रामदास दादूराम, 1921 प्रि. कौ.)

ध्यान रहे, ऐसे वाद में समझौता तब तक नहीं किया जा सकता (आदेश 23, नियम 3 के अधीन) जब तक कि उसकी सूचना वादी के खर्चे पर सभी हितबद्ध व्यक्तियों को चाहे व्यक्तिगत तामील से या सार्वजनिक विज्ञापन द्वारा न दे दी जाये।

जहाँ तक पुनरीक्षण का प्रश्न है, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के अनुसार, जहां आदेश 1. नियम 8 के अधीन आवेदन को ग्रहण करने से अस्वीकार कर दिया जाता है, बिना कानूनी कार्यवाहियों को पूरा किये, वहां ऐसे आदेश का पुनरीक्षण हो सकता है। (फर्म कृशन लाल बनाम दुर्गा सहाय और अन्य,  1982 मध्य प्रदेश,)

आदेश 1 का नियम 8 किसी प्रतिनिधि वाद का अधिकार प्रदान नहीं करता अपितु यह प्रतिनिधि वाद के संस्थित किये जाने की प्रक्रिया के सम्बन्ध में व्यवस्था करता है। इस प्रकार के वाद द्वारा उस समुदाय के सदस्यों का व्यक्तिगत रूप में वाद संस्थित करने का अधिकार प्रभावित नहीं होता है। 

प्रश्न-

 किसी सिविल वाद में संयुक्त वादी एवं प्रतिवादी बनाने के नियमों को उदाहरण सहित समझाइये। 

प्रतिनिधि वाद से आप क्या समझते हैं? क्या ऐसे वाद के निर्णय हितबद्ध पक्षकारों पर प्राङ्गन्याय के रूप में लागू होते हैं? 

प्रतिनिधि वाद क्या होता है? किनके द्वारा और किन परिस्थितियों में ऐसा वाद लाया जा सकता है?

प्रतिनिधिवाद में वाद का मालिक करार या समझौता हितबद्ध पक्षकारों को सूचना दिये बिना करता है? ऐसे करार या समझौते की विधिमान्यता का परीक्षण कीजिए। क्या प्रतिनिधिवाद में पारित डिक्री हितबद्ध पक्षकारों पर आबद्धकर होती हैं?



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